हिंदी जगत का समूचा विमर्श लगता है सोशल मीडिया पर आ कर टिक गया है, जहां इन दिनों नई धारा राइटर्स रेजीडेंसी की घटना को लेकर घमासान मचा हुआ है। इस घटना की शिकायतकर्ता ने अपने सोशल मीडिया पेज पर उनके साथ गलत हरकत करने वाले कवि से मांग की है कि वह नई धारा के किसी जिम्मेदार व्यक्ति की मौजूदगी में लिखित में माफी मांगें या रेजीडेंसी छोड़कर चले जाएं। यह स्थिति दो साहित्यकारों के साथ ही एक स्त्री और एक पुरुष के बीच घटी घटना की है, जिसमें उस स्त्री को अपनी निजता और सम्मान को बचाने का पूरा नैतिक और कानूनी हक है। उसने अभी कानूनी रास्ता नहीं चुना है, इसके बावजूद हमारा कानून भी कहता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री की निजता में उसकी मर्जी के बगैर दखल देने की कोशिश करे, तो वह अपराध के दायरे में आता है। ‘नहीं’ का अर्थ नहीं है, और कुछ नहीं! यह घटना जिस संस्था के भीतर हुई है, उसका रवैया बेहद गैरजिम्मेदाराना है और उससे भी अधिक बुरा हाल हिंदी के साहित्यकारों का है, जिन्होंने सोशल मीडिया को अखाड़ा बना दिया है। निस्संदेह, यह एक बेहद गंभीर घटना है, जिसका संज्ञान लिया जाना चाहिए, लेकिन इसके बहाने सोशल मीडिया में ट्रॉयल चल रहा है। हर कोई हिसाब बराबर कर लेना चाहता है। गुटबाजी सड़क पर है। कवि-कथाकार सब खुद ही मुंसिफ और मुद्दई बन गए हैं। यह बेहद पीड़ादायक है कि हिंदी जगत ने नई धारा की घटना को लेकर जैसी सक्रियता दिखाई है, वैसी संवेदना बस्तर से लेकर मणिपुर को लेकर नजर नहीं आती, जहां मानवाधिकार और संवैधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। यह चिंता महाराष्ट्र को लेकर भी नहीं दिखती, जहां विधानसभा में सरकार ने माना है कि करीब सात सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली, या फिर ओडिशा की उस घटना से भी हिंदी के लेखक-कवियों की पत्थरदिल आत्मा नहीं पसीजती, जहां दो दलितों के साथ मध्ययुगीन बर्बरता की गई। ऐसे समय जब देश के अकादमिक और शिक्षण संस्थानों पर वैचारिक हमले हो रहे हैं और संविधान के लिए गंभीर चुनौती पेश की जा रही है, हिंदी के लेखक-कवियों की ओर से कोई दमदार आवाज उठती नहीं दिखती। क्या शिक्षा, संविधान और गरीबी के सवाल साहित्य के सवाल नहीं होने चाहिए? लगता है कि पुरस्कारों, फैलोशिपों, किताबों के विमोचन, सेमीनारों, अकादमिक बहसों और पुस्तक मेलों की व्यस्तता से मिले अवकाश में कवियों-कथाकारों-चिंतकों-आलोचकों ने आभासी दुनिया में अपने लिए एक नया संसार रच लिया है। नई धारा की घटना भी उनके लिए एक स्त्री की निजता और अस्मिता के सवाल से कहीं अधिक आभासी बौद्धिक बहस और किस्से कहानियों का विषय है, जिनके हमाम में न जाने कितने बड़े नाम नंगे हैं।

