बस्तर में गुरुवार को नारों की गूंज सुनाई दी। ये नारे नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन–एनएमडीसी की किरंदूल और बचेली प्लांट के दरवाजों पर गांव वाले लगा रहा थे। 1965 में स्थापित एनएमडीसी बस्तर से आज छत्तीसगढ़ सरकार को ही रॉयल्टी के रूप में करीब दस हजार करोड़ रुपए दे रहा है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि बस्तर के प्राकृतिक संसाधनों का कितना दोहन हो जाता है। हालांकि एनएमडीसी सार्वजनिक क्षेत्र का कॉरपोरेशन है और यह दोहन इस देश के विकास के लिए ही हुआ है, हो रहा है, लेकिन आज किरंदूल और बचेली स्थित एनएमडीसी प्लांट्स के आसपास के करीब पच्चीस गांवों के लोग यह सवाल लेकर इस कॉरपोरेशन के दरवाजे पर खड़े थे कि पानी हमारा, खनिज हमारा, जंगल हमारे, खेत हमारे तबाह हुए, प्रदूषण हम झेल रहे हैं और बदले में हमें क्या मिला? उनकी मांग निचले पदों पर सौ फीसदी स्थानीय युवाओं की भर्ती की है। इन इलाकों के पंच, सरपंच, जनपद पंचायत सदस्य, ग्रामीण सबने मिल कर हाल ही में एक संगठन बनाया है और ऐलान किया है कि अगर एनएमडीसी प्रबंधन उनकी मांग नहीं मानता तो यह आंदोलन लंबा खिंचेगा और इसका विस्तार भी किया जाएगा। जानकार बताते हैं कि पहले दिन ही एनएमडीसी को करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ है। आर्थिक नफा–नुकसान से इतर ग्रामीणों की बात गौर करने की है। जब वो स्थानीय भर्ती की बात कर रहे हैं तब वो सिर्फ इतना नहीं कह रहे हैं कि नौकरियां मूल निवासियों को दी जाए। उनका कहना है कि हर जाति,धर्म,समाज के युवा जिनके परिजन चालीस–पचास वर्षों से इस इलाके में रह रहे हैं कम से कम एल–वन और एल–टू जैसे निचले पदों पर नौकरियां तो उनका हक है! उनकी मांग बिल्कुल जायज़ है। दरअसल यह बाहरी और स्थानीय का मुद्दा है भी नहीं। यह पूरी तरह से रोजगार का मुद्दा है। यह उस मोर्चे की बात है जिस पर सरकारें पूरी तरफ से विफल रही हैं। एनएमडीसी तो केंद्र के अधीन एक कॉरपोरेशन है लेकिन यहां रोजगार की तस्वीर खराब है। बताते हैं कि जिस बचेली और जिस किरंदूल के प्लांट में उत्पादन लगातार बढ़ रहा है, राजस्व में लगातार वृद्धि हो रही है वहां स्थायी रोजगार के आंकड़े घट रहे हैं और भर्ती के नाम पर ठेका और संविदा श्रमिकों की भर्तियां हो रही हैं। बेशक सार्वजनिक क्षेत्र के किसी भी संस्थान में नौकरी का हक पूरे देश के हर इलाके के युवा का है लेकिन यह सवाल नाजायज नहीं है कि अपने खेत,अपनी मिट्टी,अपने जंगल,अपना पानी,अपनी आबोहवा सब बर्बाद होते देखने वाली स्थानीय आबादी को क्या ऐसे प्रतिष्ठानों में सबसे निचले पदों पर भी स्थानीय नौकरियां ना मिलें ? ये मामला सिर्फ नौकरियों का नहीं है। ये मामला सिर्फ एनएमडीसी का भी नहीं है क्योंकि अभी बस्तर से ही सैकड़ों शासकीय कर्मचारी नियमितीकरण की मांग को लेकर पैदल ही राजधानी रायपुर पहुंचे हैं। दरअसल ये मामला तो बस्तर में नक्सलवाद के सफाए को निकली एक सरकार की स्थानीय बस्तरिया के प्रति जवाबदेही का भी है। ये मामला उन आश्वासनों और उन वादों का भी है जो बस्तर जैसे इलाके में आजादी के बाद से संसदीय लोकतंत्र करता आ रहा है लेकिन उन्हें निभाने में विफल ही रहा। बेहतर है कि एनएमडीसी के दरवाजों पर गूंजते नारों को आज सुन लिया जाए और आगे भी इन दरवाजों पर नारों की ही गूंज की गुंजाइश बची रहने दी जाए!