
आपातकाल इस देश में पिछले पांच दशकों से चर्चा और विवाद का विषय रहा है। 50 वर्ष पहले 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात में देश के संसदीय लोकतंत्र पर 21 महीनों के आपातकाल का ग्रहण लगा था।
मार्च, 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद के तकरीबन 49 वर्षों की तरह इस साल भी आपातकाल के काले दिनों को बड़े पैमाने पर याद करने, आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी, दमन और उत्पीड़न, मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता पर हुए प्रहारों, प्रेस सेंसरशिप के नाम पर प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने, संविधान संशोधनों के जरिए न्यायपालिका को नियंत्रित करने के प्रयासों की भर्त्सना करने के साथ ही इस सबके लिए जिम्मेदार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘अधिनायकवादी रवैये’ को कोसने और कांग्रेस को भी लानत-मलामत भेजने की रस्म निभाने के साथ ही बढ़-चढ़ कर लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं।
आपातकाल के दौरान संघर्ष की तमाम शौर्य गाथाएं भी सुनाई जा रही हैं। ऐसा करने वालों में बहुत सारे वे ‘लोकतंत्र प्रहरी और सेनानी’ भी हैं, जिनमें से कइयों ने और उनके संगठन ने भी आपातकाल में इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे या फिर वे जिनका उस समय कहीं अता-पता नहीं था और जिन पर आज सत्तारूढ़ हो कर अमृतकाल के नाम पर लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ परोक्ष रूप से कमोबेस वही सब करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी, उनकी कांग्रेस और आपातकाल को कोसते रहते हैं।
यकीनन, आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला और कलंकित अध्याय था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने और उनकी पार्टी ने भी आपातकाल लागू करने और उस अवधि में हुई ज्यादतियों के लिए माफी मांग ली थी, उन 21 महीनों के दौरान लोकतंत्र पर हुए हमलों, दमन-उत्पीड़न, मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता को कुचलने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के स्वरों को दबाने के प्रयासों को आज भी याद करने और खासतौर से उस पीढ़ी के लिए भी जानना बहुत जरूरी है जो उस समय पैदा भी नहीं हुई थी या फिर आपातकाल के मायने समझने के लायक नहीं थी। जब देश में आपातकाल लागू हुआ था, उस समय आज के भारत की आधी से अधिक आबादी का जन्म भी नहीं हुआ था। उस समय देश की आबादी तकरीबन 62 करोड़ थी, जो इस समय बढ़कर तकरीबन 144 करोड़ हो गई है।
आज के भारत के हर दस में से 8-9 लोग तब इतने बड़े नहीं थे कि उस समय हो रहे राजनीतिक-प्रशासनिक घटनाक्रमों के परिणामों का सहज अंदाज़ा लगा पाते। जाहिर सी बात है कि इतने साल बीत जाने के बाद लोगों की चेतना पर आपातकाल के निशान धुंधला से गए हैं। इसलिए भी आज न सिर्फ आपातकाल को याद करना बल्कि उसके प्रति देशवासियों को चौकस करना भी जरूरी है ताकि दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े। भविष्य में कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत और हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था।
आज की सामान्य समझ यही है कि आपातकाल उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री को लक्ष्य कर चल रहे आंदोलनों और अदालती फैसलों से घिरे एक व्यक्ति, इंदिरा गांधी के सनक की सीमा तक पहुंचे अहंकार और फासीवादी मंसूबों का नतीजा था। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने श्रीमती गांधी को चुनावों में धांधली करने का दोषी करार देते हुए 1971 में रायबरेली से उनके लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित करने, उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द करने के साथ ही उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध भी लागू करने का फैसला दिया था।
अदालत के इस फैसले के अनुसार उनके पास अपने पद से इस्तीफा देने, हाईकोर्ट से मिली 20 दिनों की मोहलत का इस्तेमाल कर फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में जाने और सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करने का लोकतांत्रिक विकल्प था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने के बजाय अपनी सत्ता और प्रधानमंत्री पद को बचाए रखने के लिए देश को आपातकाल के हवाले कर दिया था। हालांकि एक सच यह भी है कि उन्हीं इंदिरा गांधी ने अपने चहेते बेटे संजय गांधी और कुछ खास सलाहकारों की इच्छा और सलाह को भी दरकिनार कर आपातकाल को बहुत लंबे समय तक जारी नहीं रखा और 21 महीने बाद लोकसभा के चुनाव भी करवाए। इसके चलते ही वह तथा उनकी पार्टी चुनाव में हारकर सत्ता से बेदखल भी हो गई थीं।
इस मायने में आपातकाल ने देशवासियों को अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी के महत्व को समझाया और आनेवाली सरकारों को यह सबक भी देकर गया कि भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश में अनिश्चितकाल के लिए तानाशाही और एकाधिकारवादी शासन चलाना नामुमकिन सा है। लेकिन गुजरते वक्त के साथ ही आपातकाल के वे ज़्यादातर सबक भुला से दिए गए।
आपातकाल से लेकर ‘अमृतकाल’ के पिछले 50 वर्षों के सफर में देश ने तमाम तरह के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलाव देखे हैं। इस अवधि में केंद्र में गैर कांग्रेसी दलों और कांग्रेस के नेतृत्व में मिली-जुली सरकारें आईं और गईं। इस क्रम में एक दर्जन प्रधान मंत्रियों (मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पी वी नरसिंह राव, एच डी देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डा. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी) तथा उनकी कार्यशैली को भी देखा-परखा है।
एक निवर्तमान और एक पूर्व प्रधानमंत्री को आतंकवादी हिंसा का शिकार होते, सामाजिक रूप से अन्य पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण, अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद पंजाब, जम्मू-कश्मीर तथा उत्तर पूर्व के राज्यों में अलगाववादी, आतंकवादी राजनीति और संघर्ष, नक्सलवादी राजनीति और हिंसा, नोटबंदी और कोरोना जैसी जानलेवा महामारी को भी देखा है। इन 50 वर्षों की अवधि में ही, 15 अगस्त, 1997 को देश ने भारतीय स्वाधीनता का स्वर्ण जयंती वर्ष तथा 15 अगस्त 2022 को आजादी का अमृत पर्व भी मनाया।
चार साल पहले, 15 अगस्त 2021 को 75वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में अगले 25 वर्षों (15 अगस्त, 2022 से 15 अगस्त, 2047) तक देश को विकसित भारत बनाने के लक्ष्य के साथ अमृतकाल के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इस तरह से देखें तो हम अभी ‘अमृतकाल’ में जी रहे हैं।
कांग्रेस विभाजन के समय ही बन गई थी भूमिका

इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के हवाले क्यों किया था! तात्कालिक कारण तो 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इंदिरा गांधी के रायबरेली से लोकसभा चुनाव को रद्द करने का फैसला और उसके मद्देनजर श्रीमती गांधी पर पद त्याग के लिए बन रहा दबाव और दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में हुई विपक्षी दलों की रैली में पुलिस, सुरक्षा बलों और सेना के जवानों को भी शासन करने का नैतिक आधार खो चुकी श्रीमती गांधी की सरकार के आदेश नहीं मानने का आह्वान ही कहा जा सकता है, लेकिन उन्हें आंतरिक आपातकाल लागू करने का सुझाव तो उस समय श्रीमती गांधी के खासमखास, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने छह महीने पहले, जनवरी, 1975 के पहले सप्ताह में ही दे दिया था। और 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की सभा से बहुत पहले ही प्रधानमंत्री निवास में आपातकाल की रूपरेखा, जेल में विपक्ष के नेताओं को रखने आदि का विमर्श पूरा हो गया था।
सच तो यह है कि आपातकाल लागू करने की पृष्ठभूमि कांग्रेस में सिंडिकेट के नेताओं के साथ इंदिरा गांधी के राजनीतिक वर्चस्व के संघर्ष, कांग्रेस के ऐतिहासिक विभाजन और उसके कुछ वर्ष बाद से ही तैयार होने लगी थी। 1971 के आम चुनाव में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे अपने लोक लुभावन फैसलों पर आधारित गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुईं श्रीमती गांधी ने अपने सरकारी प्रचार तंत्र और मीडिया का सहारा लेकर आम जनता के बीच अपनी गरीब हितैषी छवि बनाई थी।
साल के अंत में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भारतीय सेना के हाथों पाकिस्तान की शर्मनाक शिकस्त और एक अलग देश के रूप में बांग्लादेश के उदय ने भी उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचा दिया था। लेकिन आगे चलकर देश में बिगड़ते आर्थिक हालात, श्रीमती गांधी की कार्यशैली में बढ़ी एकाधिकारवादी और चाटुकारिता पसंद प्रवृत्ति, किसी संवैधानिक पद पर नहीं रहते हुए भी उनके छोटे बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में सक्रिय नेताओं-नौकरशाहों की चौकड़ी का संगठन और सरकार में बढ़ा अनधिकृत दखल, महंगाई, बेरोजगारी और नीचे से ऊपर तक बढ़े भ्रष्टाचार के कारण जन मानस और खासतौर से छात्र-युवाओं में असंतोष और आक्रोश बढ़ने लगा।
इसका प्रस्फुटन सबसे पहले गुजरात में हुआ। एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में बढ़ी फीस और घटिया भोजन की आपूर्ति के विरुद्ध शुरू हुए छात्र आंदोलन ने गुजरात में नव निर्माण आंदोलन का व्यापक रूप धर लिया था। गुजरात के नव निर्माण आंदोलन का विस्तार बिहार आंदोलन के रूप में हुआ। इस आंदोलन ने आगे चलकर देश भर में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का रूप ले लिया था।
महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने से क्रुद्ध देश भर के छात्र-युवा और आम जन भी बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजवादी-सर्वोदयी नेता जय प्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे। इस आंदोलन ने और इसी दरम्यान हुई ऐतिहासिक रेल हड़ताल और उसके कुछ महीनों बाद ही तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की बम धमाके में हत्या और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अजित नाथ रे को लक्ष्य कर सुप्रीम कोर्ट के पास ही हुए बम प्रहारों ने भी ‘सर्व शक्तिमान’ इंदिरा गांधी और उनकी सरकार को भी भीतर-बाहर से हिला दिया था। उन्हें लगने लगा था कि बाहरी शक्तियां, खासतौर से अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए उनके राजनीतिक विरोधियों के जरिए षड्यंत्र कर उन्हें अपदस्थ करवा सकती हैं। उन्हें अपनी जान पर खतरा भी महसूस होने लगा था। असंतोष के स्वर कांग्रेस के भीतर भी उभरने लगे थे।
सुबह छह बजे हुई कैबिनेट की बैठक
इस सबके बीच ही 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा का ऐतिहासिक फैसला आया और उसी दिन शाम को गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करनेवाले विधानसभा के चुनावी नतीजे भी आ गये। जस्टिस सिन्हा ने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करते हुए उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था।
हालांकि जस्टिस सिन्हां ने श्रीमती गांधी को अपने फैसले के विरुद्ध 20 दिनों का स्थगनादेश भी जारी किया था ताकि वह उस फैसले के विरोध में सर्वोच्च अदालत में अपील कर सकें। वह सुप्रीम कोर्ट में गईं भी। सुप्रीम कोर्ट ने 24 जून के अंतरिम आदेश में उन्हें सशर्त लोकसभा सदस्य और प्रधानमंत्री बने रहने की आंशिक राहत ही दी थी। अंतिम फैसला आने तक वह प्रधानमंत्री बने रह सकती थीं, लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वहां किसी चर्चा में हस्तक्षेप और वोट भी नहीं कर सकती थीं।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार किसी ने नहीं किया। न सत्ता पक्ष ने और ना ही विपक्ष ने। श्रीमती गांधी चाहतीं तो पद त्याग कर सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला आने तक पार्टी में ऐसे किसी वरिष्ठ और भरोसेमंद नेता को जो सुप्रीम कोर्ट से मनमाफिक फैसला आने पर प्रधानमंत्री का पद वापस श्रीमती गांधी को सौंप देता, अंतरिम प्रधानमंत्री बनवाकर लोकतांत्रिक मिसाल कायम कर सकती थीं लेकिन उन्हें एक तो अपनी पार्टी में भी किसी पर भरोसा नहीं था, दूसरे पार्टी के अंदर अंतिरम प्रधानमंत्री के लिए भी किसी एक नाम पर सहमति बनानी मुश्किल थी। उनके पुत्र संजय गांधी और कुछ अन्य खासुलखास लोगों ने उन्हें समझाया कि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि एक बार प्रधानमंत्री बन जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनके हक में आने पर भी कोई उनके लिए पद त्याग करेगा। विपक्ष ने भी सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार नहीं किया।
श्रीमती गांधी के पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन, 25 जून को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में हुई विपक्ष की ऐतिहासिक रैली में जय प्रकाश नारायण ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ का उद्घोष किया था। इसी रैली में उन्होंने सभी पुलिस कर्मियों, सुरक्षा बलों और सेना के जवानों से भी इंदिरा गांधी की सरकार के अंसवैधानिक आदेश नहीं मानने का आह्वान किया था क्योंकि उनके अनुसार श्रीमती गांधी ने शासन करने की वैधता खो दी थी। उसी समय मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में लोक संघर्ष समिति गठित कर 28 जून से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देशव्यापी आंदोलन-सत्याग्रह शुरू करने का फैसला हुआ था।
लेकिन बाहर और अंदर से भी बढ़ रहे राजनीतिक विरोध और दबाव के बावजूद श्रीमती गांधी ने पदत्याग के लोकतांत्रिक रास्ते को चुनने के बजाय अपने छोटे बेटे संजय गांधी, निजी सचिव आर के धवन और अपने बेहद करीबी, वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ खास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद कैबिनेट के औपचारिक प्रस्ताव के बगैर‘ आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करवा दिया था। इस पर कैबिनेट की मंजूरी अगली सुबह छह बजे ली गई थी। उसके तुरंत बाद आकाशवाणी पर श्रीमती गांधी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, ‘‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है।’’
उन्होंने आपातकाल को जायज ठहराने के इरादे से विपक्ष पर साजिश कर उन्हें सत्ता से हटाने और देश में अव्यवस्था और आंतरिक उपद्रव की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया और कहा कि सेना और पुलिस को भी विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था। उन्होंने कहा, ‘‘जबसे मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी राजनीतिक साजिश रची जा रही थी।’’ लेकिन आपातकाल लागू होने के साथ ही जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, राजनारायण, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमये, मधु दंडवते सहित विपक्ष के तमाम बड़े-छोटे नेताओं-कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेलों में बंद कर दिया गया, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगे जबकि मौलिक अधिकारों और नागरिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। नौकरशाही पर तो पहले ही नियंत्रण हो गया था, संविधान में संशोधनों के जरिए न्यायपालिका को भी नियंत्रित करने की कोशिशें की गई थीं।
जनता सरकार
हमने स्वयं सपरिवार आपातकाल के दंश को झेला है। आपातकाल लागू होने के समय हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध इविंग क्रिश्चियन कॉलेज में कला स्नातक की पढ़ाई करते समय समाजवादी आंदोलन में सक्रिय थे। आपातकाल की अधिसूचना जारी होने के कुछ दिन बाद ही, जुलाई, 1975 के पहले सप्ताह में आजमगढ़ (अभी मऊ) जनपद के अपने पैतृक कस्बे, मधुबन में गिरफ्तार कर लिए गए थे। इसके कुछ ही दिन बाद, 15 अगस्त, 1975 को हमारे पिता, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए जहां हम पहले से निरुद्ध थे। कई महीने हम एक साथ जेल की एक ही बैरक में रहे। बाद में परीक्षा के नाम पर पैरोल और फिर जमानत पर जेल से बाहर आकर हम आपातकाल के विरुद्ध लोकसभा चुनाव कराने की घोषणा तक भूमिगत संघर्ष में शामिल हो गए थे।
हालांकि, आपातकाल की समाप्ति के बाद केंद्र में बनी पहली गैर कांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में संशोधनों के जरिए आपातकाल में हुए गलत कार्यों का परिमार्जन किया था और ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि दोबारा किसी शासक के लिए आपातकाल लागू कर पाना नामुमकिन सा हो गया। लेकिन बाद के दिनों में न सिर्फ जनता पार्टी की सरकार ने कई अलोकतांत्रिक कार्य किए, बल्कि उसके बाद आती और जाती रही सरकारों ने भी आपातकाल लागू किए बगैर भी मौलिक अधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चोट पहुंचाने के लिए कई कठोर कानून बनाए।
1977 में सत्ता संभालने के बाद ही आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम कांग्रेस की चुनी हुई नौ राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया था। इसका अनुसरण करते हुए दोबारा 1980 में सत्तारूढ़ हुई इंदिरा गांधी ने भी नौ गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त करवा दिया था। यह क्रम आगे भी चलते रहा। अभी मणिपुर में मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह के त्यागपत्र के बाद विधानसभा में पूर्ण बहुमत होने के बावजूद मोदी सरकार ने वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए जनता पार्टी की सरकार के लोगों को देश में ‘मिनी मीसा’ लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ।
बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले लोगों और उनके बाद की सरकारों ने भी अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए टाडा, पोटा, यूएपीए और पीएमएलए जैसे आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) और भारत रक्षा कानून (डीआइआर) से भी ज्यादा कठोर और घातक कानून बनाए। यह सब अलगाववाद, आतंकवाद रोकने के नाम पर हुआ लेकिन इन कानूनों के शिकार विपक्ष, सरकार से अहमति व्यक्त करने वाले सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, मीडिया के लोगों को भी बनाया गया। कई सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों को यूएपीए और राजद्रोह जैसे खतरनाक कानूनों के तहत लंबे समय तक जेलों में बंद किया गया।
इंदिरा इज इंडिया से मोदी भगवान तक

दरअसल, आपातकाल किसी सिरफिरे की सनक नहीं बल्कि एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। उसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी प्रवृत्ति सत्ता पक्ष और विपक्ष के भी कमोबेश सभी राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं में देखने को मिलती रही है। आज भी स्थितियां उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं!
हालांकि अमृतकाल या कहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो उनके या उनकी सरकार के विरोध में उस तरह के संगठित आंदोलन, धरना-प्रदर्शन और बंद नहीं देखने को मिल रहे हैं जिस तरह के आंदोलन इंदिरा गांधी और उनकी सरकार को लक्ष्य कर 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में होते थे, देश धार्मिक कट्टरपंथ और ‘उग्र राष्ट्रवाद’ के सहारे एक अराजक माहौल और ‘अघोषित आपातकाल’ में ही जी रहा है। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी सत्तर के दशक की या कहें, आपातकाल की इंदिरा गांधी का अनुसरण करते हुए एकाधिकारवादी, केंद्रीकृत सत्ता का संचालन कर रहे हैं। आपातकाल और उससे पहले उनकी पार्टी के नेता मंत्री और राष्ट्रीय अध्यक्ष तक इंदिरा गांधी की चाटुकारिता की हदें पार करते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ कहने में संकोच नहीं करते थे। ठीक उसी तरह इस समय मोदी काल में भी उनके समर्थक, पार्टी के बड़े नेता, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री श्री मोदी की चाटुकारिता की हदें पार करते अघाते नहीं।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने पिछले दिनों श्री मोदी को देवताओं का भी नेता करार दिया था। स्वयं श्री मोदी खुद को ‘नान बायोलॉजिकल’, ईश्वर द्वारा सीधे भेजा गया ‘देवदूत’ बताने लगे हैं। इतना ही नहीं श्री मोदी से लेकर उनकी पार्टी के तमाम बड़े नेता यह स्थापित करने में लगे रहे कि 2014 से पहले इस देश में प्रगति और विकास के नाम पर कुछ हुआ ही नहीं और देश की तकरीबन सभी समस्याओं की जड़ देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी और कांग्रेस ही हैं, इसलिए भी वह ‘कांग्रेस मुक्त भारत” का नारा जोर शोर से लगाते रहे।
संवैधानिक संस्थाओं के साथ कमोबेस उसी तरह से खिलवाड़ किए जा रहे हैं जैसे आपातकाल या उससे पहले इंदिरा गांधी के राज में किया जा रहा था। श्रीमती गांधी की तरह ही श्री मोदी के शासन में भी प्रतिबद्ध नौकरशाही, नियंत्रित और प्रतिबद्ध न्यायपालिका-पत्रकारिता की दिशा में काम हो रहे हैं। कैबिनेट सिस्टम को धता बता कर सभी तरह के उच्चस्तरीय राजनीतिक, आर्थिक फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री निवास से किए जा रहे हैं। कहा तो यह भी जाता है कि देश में नोट बंदी के भारत सरकार के फैसले की घोषणा से पहले उसकी भनक मोदी मंत्रिमंडल के सदस्यों, यहां तक कि उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली को भी नहीं लग सकी थी। यही हाल विधायिका का भी है।
संसद और विधानमंडलों के सत्र सीमित और छोटे होते जा रहे हैं। सदन में विपक्ष की आवाज दबाने के आरोप लगते हैं। सदन में हंगामे अथवा विपक्ष के बहिष्कार, विपक्षी सदस्यों के एकमुश्त निलंबन के बीच सरकार के महत्वपूर्ण और दूरगामी असर वाले विधेयक बिना किसी चर्चा के पास करा लिए जाते हैं। पूरे एक कार्यकाल (2019 से 2024 तक) और फिर तीसरे कार्यकाल का एक साल बीत जाने के बाद भी लोकसभा में कोई उपाध्यक्ष नहीं चुना गया। आपातकाल में प्रेस काउंसिल आफ इंडिया को भंग कर दिया गया था। अभी इसकी उपेक्षा और अनदेखी की जा रही है। 14वीं प्रेस काउंसिल के लिए सात महीनों तक कोई अध्यक्ष नहीं नियुक्त किया जा सका।
तीन साल का कार्यकाल पूरा होने तक काउंसिल में लोकसभा के तीन सदस्यों को नामित नहीं किया गया। मानवाधिकारों, नागरिक स्वतंत्रताओं के साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ी दिख रही है। पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों, सोशल मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों और यहां तक कि अदालतों का भी इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए अमृतकाल में भी एक अलग तरह तरह के ‘अघोषित आपातकाल’ के अक्स साफ दिख रहे हैं। आपातकाल में अगर मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता के आगे समर्पित होकर उनकी तथा उनके पुत्र संजय गांधी की चाटुकारिता में जुट गया था, आज का या कहें मोदी काल में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा या कहें मुख्यधारा का मीडिया इससे कहीं आगे निकलकर सत्ता पक्ष के लिए एजेंडा सेट करने से लेकर उसे राजनीतिक लाभ पहुंचाने की गरज से समाज में नफरत का जहर घोलते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में लगा हुआ है।
भ्रष्टाचार के नाम पर राजनीतिक विरोधियों को बदनाम करने के साथ ही उन्हें सत्ता के सामने समर्पण करने के लिए बाध्य किया जा रहा है या फिर ईडी, सीबीआई के जरिए उनके विरुद्ध बदले या कहें राजनीतिक प्रतिशोध से प्रेरित कार्रवाइयां हो रही हैं। उन्हें, यहां तक कि मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों को भी अनिश्चितकाल तक जेलों में रखा जा रहा है। इनमें से कुछ अदालत के हस्तक्षेप से ही बाहर आ पा रहे हैं। दूसरी तरफ गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं, जिन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह खुद भ्रष्टतम राजनेता होने के आरोप लगा चुके होते हैं, उन्हें सत्तारूढ़ भाजपा में शामिल होते ही मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, मंत्री, और सांसद बना दिया जा रहा है।
ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स के लोग भूले से भी उनका रुख नहीं करते। उनके खिलाफ चल रहे मामले या तो रफा दफा कर दिए जाते हैं या उन्हें ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाता है। राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त, दबाव और प्रलोभन के जरिए विपक्ष की चुनी हुई सरकारों को अपदस्थ कर भाजपा-राजग की सरकारें बनवाने के खेल भी हो रहे हैं। चुनाव आयोग सत्ता दल के प्रति अपने पक्षपाती रवैए को लेकर लगातार सवालों के कठघरे में है।
इसलिए भी आपातकाल की 50वीं बरसी मनाते समय आमजन को और खासतौर से हमारी नई, युवा पीढ़ी को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी जानना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरा गांधी जैसी नेता को कुछ समय के लिए ‘तानाशाह’ बना देती हैं। और आज भी वही प्रवृत्तियां ‘अच्छे दिन’ लाने के वायदे के साथ सत्तारूढ़, लोकप्रियता का चरम छू रहे लोगों के भीतर ‘एकाधिकारवादी‘ नेतृत्व’ का एहसास भर देती हैं।