
ऐसे कई लोग थे, जिन्हें आपातकाल के दौरान संजय गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से काफी प्रताड़नाएं झेलनी पड़ीं। इनमें स्वतंत्रता सेनानी और उद्योगपति रामकृष्ण बजाज भी शामिल थे। जमनालाल बजाज के पुत्र रामकृष्ण बजाज, जो स्वयं को ‘गांधी का कुली’ कहते थे, के लिए आपातकाल के पूरे 21 महीने मुश्किलों से भरे रहे। संजय और उनकी मंडली, जिसमें विद्याचरण शुक्ल, ओम मेहता और अंबिका सोनी शामिल थे, मध्य दिल्ली में स्थित एक गैर-राजनीतिक युवा प्रशिक्षण एवं विकास केंद्र ‘विश्व युवक केंद्र’ को कब्जाना चाहते थे। रामकृष्ण बजाज इस केंद्र के निदेशक थे। जब वे इस केंद्र को छोड़ने के लिए राजी नहीं हुए तो उन्हें बड़े पैमाने पर आयकर छापों का सामना करना पड़ा। फिर गौ-हत्या पर प्रतिबंध की मांग के समर्थन में अनशन पर बैठने जा रहे गांधीवादी नेता विनोबा भावे को इससे रोकने के लिए उन पर गैर जरूरी दबाव भी डाला गया।
30 अगस्त 1975 को रामकृष्ण को दिल्ली प्रशासन से अचानक एक अधिग्रहण आदेश प्राप्त हुआ, जिसमें उनसे विश्व युवक केंद्र सरकार को सौंपने के लिए कहा गया था। रामकृष्ण ने इस बाबत कांग्रेस के अपने कुछ मित्रों से चर्चा की कि आखिर सरकार इस केंद्र पर काबिज होना क्यों चाहती है? उन्हें पता चला कि संजय गांधी विश्व युवक केंद्र के भवन (जिसमंे अच्छी सुविधाओं से लैस एक छात्रावास भी था) का इस्तेमाल युवा कांग्रेस के लिए करना चाहते थे। इसके बाद तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी के साथ उनका लंबा पत्राचार भी चला, लेकिन कोई समाधान नहीं निकला। इस बीच, शुक्ल ने रामकृष्ण से कहा कि विश्व युवक केंद्र के ट्रस्टी पद से इस्तीफा देकर ट्रस्ट संजय गांधी को सौंप देने में ही उनकी भलाई होगी। इसके बाद रामकृष्ण ने इस मुद्दे को इंदिरा गांधी के सामने उठाया, जो विनोबा भावे से मिलने वर्धा गई थीं। वहां रामकृष्ण ने इंदिरा के साथ करीब छह घंटे बिताए थे।
हवाई यात्रा के दौरान रामकृष्ण ने इंदिरा से हिंदी में पूछा था, “आपकी मुझसे क्या कोई नाराजगी है?” इस पर इंदिरा का जवाब था, “हां, शिकायतें तो होती ही रहती हैं।” इसके बाद उद्योगपति ने केंद्र को लेकर इंदिरा से बात करने की कोशिश की, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बाद में जब रामकृष्ण ने आपातकाल की घटनाओं की जांच के लिए गठित शाह आयोग के समक्ष गवाही दी तो उन्होंने कहा था कि मोहम्मद यूनुस ने उन्हें ‘यारी-दोस्ती’ में इशारा किया था कि तत्कालीन सरकार के पास बहुत अधिक शक्तियां हैं, जिनका वह उपयोग कर सकती है।
केंद्र को छोड़ने के लिए रामकृष्ण तैयार नहीं थे। इस पर 18 मई 1976 को आयकर विभाग ने बजाज परिवार के देश भर में फैले 114 आवासीय और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर छापामार कार्रवाई शुरू कर दी। करीब 1,100 अधिकारियों ने मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, चेन्नई, कानपुर, कोलकाता और अन्य स्थानों पर फैक्ट्रियों तथा घरों पर छापे मारे। अति तो तब हो गई, जब इन छापों में रामकृष्ण की 84 वर्षीय मां जानकी देवी तक को नहीं बख्शा गया, जिन्होंने 1942 में अपने पति जमनालाल के निधन के बाद से ही सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर एकाकी भरा सादा जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया था।
फिर विनोबा भावे की एंट्री
अंतत: मामले में सुलह की कोशिश के तौर पर रामकृष्ण से कहा गया कि वे गौ-हत्या के विरोध में उपवास करने जा रहे विनोबा भावे को ऐसा नहीं करने के लिए मना लें। संजय गांधी के खास आदमी और गृह राज्य मंत्री ओम मेहता ने रामकृष्ण को संदेश पहुंचाया कि यदि वे विनोबा भावे को उपवास पर न बैठने के लिए अपनी ओर से दबाव डाल सकें तो आयकर के छापे रोके जा सकते हैं। दरअसल, इंदिरा गांधी इस गांधीवादी नेता द्वारा आपातकाल पर मोहर लगाने की अपेक्षा कर रही थीं, जिसे विनोबा टालते आ रहे थे।
ओम मेहता के संदेश को सुनकर रामकृष्ण स्तब्ध रह गए। उन्होंने मेहता से कहा, “आप भी किसी दिन विनोबाजी से मिलने क्यों नहीं चलते? तब आपको पता चलेगा कि वे कितने महान व्यक्ति हैं। वे न सिर्फ मेरे गुरु हैं, बल्कि मेरे पिताजी के भी गुरु थे। मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं कि उनकी सोच पर सवाल उठा सकूं, उन्हें किसी बात के लिए मनाना तो बहुत दूर की बात है।” (एमवी कामथ, गांधीज कुली : लाइफ एंड टाइम्स ऑफ रामकृष्ण बजाज, अलाइड पब्लिशर्स, अहमदाबाद, 1988)।
लेकिन रामकृष्ण की इस दलील से कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें मजबूरी में विनोबा भावे को एक पत्र लिखना पड़ा, जिसमें अपने गुरु के उपवास पर जाने की वजह से संभावित मुसीबतों के बारे में चर्चा की गई थी। हिंदी में लिखे इस पत्र में उन्होंने कहा: “मैं बहुत छोटा आदमी हूं। यह स्वाभाविक है कि कोई भी शिष्य अपने गुरु के सामने अपनी बात रखने में संकोच करता ही है, वैसा ही मैं भी महसूस करता हूं। आपने मुझसे कहा था कि पूज्य काकाजी (जमनालाल बजाज) ने अपनी जिंदगी के अंतिम वर्षों में गौ-सेवा को अपने जीवन का मिशन बना लिया था और अब आप उनके अधूरे मिशन को पूरा करके उनकी आत्मा को संतोष प्रदान करना चाहते हैं। जहां तक मैं समझ पाया हूं, काकाजी की प्रवृत्ति लोगों को निरंतर प्रयासों से जागृत करने, इस पूरे विषय का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने और उचित संगठनात्मक तंत्र स्थापित करके गाय की रक्षा करने की थी।”
उन्होंने आगे लिखा, “मुझे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में उपवास करने के स्थान पर यदि हम व्यावहारिक विचारों के आधार पर निर्णय लें, तो वह अधिक उपयोगी होगा। इसलिए मुनासिब यही होगा कि हम उस दिशा में प्रयासों को तेज करें, ताकि जनमत को प्रभावी रूप से संगठित किया जा सके।”
अंतत: अपने शिष्य की मंशा और मजबूरी को समझकर विनोबा भावे उपवास नहीं करने पर राजी हो गए।
प्रतिशोध की एक और छोटी–सी दास्तान
रामकृष्ण बजाज के अलावा एक बड़े नौकरशाह को भी संजय और उनकी टोली की ‘प्रतिशोध’ मानसिकता से रूबरू होना पड़ा। ये नौकरशाह थे 1973 तक इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे पी.एन. हक्सर। मारुति परियोजना का विरोध करने की वजह से उन्हें न केवल अपने पद से हाथ धोना पड़ा, बल्कि कहा जाता है कि हक्सर के अस्सी वर्षीय चाचा को भी इसका थोड़ा-बहुत खामियाजा भुगतना पड़ा। हालांकि हो सकता है, यह केवल एक संयोग हो, लेकिन आपातकाल में उन्हें एक दिन पुलिस हिरासत में बिताना पड़ा, क्योंकि उन्होंने अपनी दुकान में रखे टॉवेल्स और रूमालों पर अलग-अलग प्राइस टैग्स नहीं लगा रखे थे, यद्यपि बंडलों पर लगे हुए थे।