कांग्रेस संसदीय दल की चेयर पर्सन सोनिया गांधी ने पश्चिम एशिया के हालात पर द हिन्दू में एक लेख लिखकर मोदी सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाया है और उसे सलाह भी दी है कि अब भी नई दिल्ली की आवाज सुनी जा सकती है। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार लगातार जिस तरह से संसदीय और लोकतांत्रिक परंपराओं की अवहेलना कर रही है, उसमें यह उम्मीद करना मुश्किल है कि वह सोनिया के इस लेख का संज्ञान लेकर कोई पहल करेगी। बेशक, हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले और फिर पाकिस्तान परस्त आतंकियों के अड्डों पर किए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद केंद्र सरकार ने सांसदों के सर्वदलीय दल विदेश भेजे थे, लेकिन इन दलों का हासिल क्या है, यह बताने की जरूरत नहीं है। दरअसल मोदी सरकार ने न तो पहलगाम हमले और ऑपरेशन सिंदूर को लेकर संसद की बैठक बुलाई, और न ही पश्चिम एशिया के मौजूदा संकट को लेकर। पहलगाम हमले के बाद सरकार ने सर्वदलीय बैठक जरूर बुलाई थी, लेकिन उसमें भी प्रधानमंत्री मोदी नहीं थे। यह भी दोहराने की जरूरत नहीं है कि जब राष्ट्रहित की बात आती है, तो सारे दल आम तौर पर सरकार के साथ होते हैं। यह समझने की जरूरत है कि पश्चिम एशिया का बढ़ता तनाव भी राष्ट्रहित से परोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। पश्चिम एशिया का ताजा तनाव इजराइल के ईरान पर ऐसे समय किए गए एकतरफा हवाई हमले से पैदा हुआ है, जब अमेरिका के साथ उसकी बातचीत प्रस्तावित थी। निःसंदेह भारत परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का विरोधी है और शांतिपूर्ण वार्ता का पक्षधर है। इसके साथ ही भारत इजराइल-फलस्तीन विवाद में द्विराज्य के सिद्धांत का पक्षधर है, खुद मोदी सरकार इसे दोहरा चुकी है। ऐसी ही स्थिति ईरान को लेकर कही जा सकती है, जिससे भारत के ऐतिहासिक रिश्ते हैं, जिसे रेखांकित किए जाने की जरूरत है। सोनिया गांधी ने अपने लेख में याद दिलाया है कि 1994 में संयुक्त राष्ट्र में जब कश्मीर में मानवाधिकार का मसला आया था, तब ईरान ने भारत का समर्थन किया था। सरकार की ओर से तो पहले ही विशेष सत्र की मांग ठुकरा कर मानसून सत्र का एलान कर दिया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सर्वदलीय बैठक पर सरकार विचार क्यों नहीं कर सकती?