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“संविधान सिर्फ एक शासकीय दस्तावेज नहीं”, CJI गवई ने ऐसा क्‍यों कहा ?

Lens News Network
Last updated: June 19, 2025 7:03 pm
Lens News Network
ByLens News Network
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Chief Justice BR Gavai
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द लेंस डेस्‍क। भारत के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा कि विगत 75 वर्षों में भारतीय संविधान ने देश के नागरिकों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिससे इसके आलोचकों की भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं।

मिलान में बुधवार को “संविधान की भूमिका और देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय” विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए CJI ने बताया कि संविधान को अपनाने के प्रारंभिक वर्षों में कई विशेषज्ञों ने इसकी विश्वसनीयता और दीर्घकालिक प्रभावशीलता पर सवाल उठाए थे।

उन्होंने उल्लेख किया कि इनमें प्रख्यात संवैधानिक विद्वान और राष्ट्रमंडल इतिहासकार सर आइवर जेनिंग्स भी शामिल थे। 1951 में मद्रास विश्वविद्यालय में व्याख्यान के दौरान जेनिंग्स ने भारतीय संविधान की आलोचना करते हुए इसे अत्यधिक लंबा, जटिल और अति-विस्तृत करार दिया था।

CJI ने कहा, “पिछले 75 सालों के अनुभव ने जेनिंग्स की आलोचनाओं को खारिज कर दिया है। भारतीय संविधान ने सामाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। इस दिशा में पहल भारतीय संसद ने शुरू की थी।”

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्याय केवल एक सैद्धांतिक अवधारणा नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक ढांचों में गहराई तक समाहित करना होगा। उन्होंने आगे कहा, “जब तक सामाजिक संरचनाओं में मौजूद असमानताएं, जो समाज के बड़े वर्ग को किनारे करती हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया जाता, तब तक कोई भी देश सही मायने में प्रगतिशील या लोकतांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, सामाजिक-आर्थिक न्याय स्थिरता, सामाजिक एकता और प्रगति के लिए एक अनिवार्य और व्यावहारिक जरूरत है।”

उन्होंने आगे कहा कि 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ संविधान केवल एक शासकीय दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह समाज के लिए एक प्रतिबद्धता, एक परिवर्तनकारी घोषणा और औपनिवेशिक शासन की गरीबी, असमानता और सामाजिक विभाजन से उबरते राष्ट्र के लिए उम्मीद का प्रतीक है। यह एक ऐसी नई शुरुआत का वचन था, जहां सामाजिक और आर्थिक न्याय देश का केंद्रीय उद्देश्य होगा। भारतीय संविधान अपने मूल में स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को संजोए हुए है।

CJI ने यह भी कहा कि भारत का संविधान अन्य विकासशील देशों के लिए एक आदर्श बन गया है, जो समावेशी और सहभागी शासन व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में प्रयासरत हैं। उन्होंने बल देकर कहा कि न्याय केवल एक सैद्धांतिक अवधारणा नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक ढांचे, अवसरों के समान वितरण और लोगों के जीवन स्तर में प्रतिबिंबित होना चाहिए।

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