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दवाओं के दाम बेकाबू, आखिर वजह क्‍या है ?

The Lens Desk
Last updated: April 17, 2025 9:22 pm
The Lens Desk
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why are medicines expensive
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जेके कर, दवा नीति विशेषज्ञ और स्तंभकार

why are medicines expensive: आज के समय में चिकित्सा का खर्च आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। अस्पतालों की भारी-भरकम फीस, जांच की लागत और दवाओं के आसमान छूते दाम मरीजों के लिए बोझ बन गए हैं। इस संकट का एक प्रमुख कारण दवाओं की कीमतों का अनियंत्रित होना है। यदि सरकार दवा मूल्य नियंत्रण नीति में बदलाव करे, तो दवाओं के दाम को काफी हद तक कम किया जा सकता है। यह न केवल मरीजों को राहत देगा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक सुलभ बनाएगा। आइए, इस मुद्दे को विस्तार से समझें और जानें कि नीति परिवर्तन कैसे दवाओं को सस्ता कर सकता है।

भारत में अभी दवाओं की कीमतें बाजार आधारित मूल्य नियंत्रण नीति के तहत तय की जाती हैं, जिसे 2013 में लागू किया गया था। इस नीति ने दवाओं के दाम तय करने की पुरानी लागत आधारित प्रणाली को पूरी तरह बदल दिया। पहले, दवाओं की कीमतें उनकी उत्पादन लागत और पैकेजिंग खर्च के आधार पर तय होती थीं।

इसमें अधिकतम स्वीकार्य पोस्ट-मैन्युफैक्चरिंग खर्च (MAPE) को जोड़ा जाता था, जो आमतौर पर लागत का 100% होता था। इस प्रणाली में खुदरा विक्रेताओं,  थोक विक्रेताओं, वितरकों और परिवहन का खर्च भी इसी मार्जिन में समाहित होता था। आयातित दवाओं की कीमतें उनके लैंडिंग कॉस्ट के आधार पर तय की जाती थीं।

लेकिन 2013 की नीति ने इस व्यवस्था को उलट दिया। अब दवाओं की अधिकतम खुदरा कीमत (MRP) बाजार में उपलब्ध विभिन्न ब्रांडों की औसत कीमत के आधार पर तय की जाती है। इसका मतलब है कि दवाओं की वास्तविक लागत को दरकिनार कर बाजार की कीमतों को आधार बनाया जाता है।

यह नीति उन दवाओं पर लागू होती है, जिनका कुल दवा बिक्री में एक फीसदी या उससे अधिक का हिस्सा होता है। नतीजतन, दवा कंपनियां अपनी मर्जी से ऊंची कीमतें तय करती हैं, और औसत मूल्य भी ऊंचा ही रहता है। यह प्रणाली दवा कंपनियों के मुनाफे को तो बढ़ाती है, लेकिन मरीजों के लिए दवाएं और महंगी हो जाती हैं।

लागत बनाम बाजार मूल्य को ऐसे समझें

दवाओं की वास्तविक लागत और उनकी बाजार कीमत के बीच का अंतर समझने के लिए दो उदाहरण काफी हैः

पहला उदाहरण : सिप्रोफ्लोक्सासिन (Ciprofloxacin)

why are medicines expensive: सिप्रोफ्लोक्सासिन एक व्यापक रूप से इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवा है। केमिकल वीकली के अनुसार, 1 अप्रैल 2025 को मुंबई के बाजार में 25 किलोग्राम सिप्रोफ्लोक्सासिन बल्क ड्रग की कीमत 1650 रुपये थी। यानी, एक किलोग्राम की कीमत 66 रुपये। इस एक किलोग्राम से 500 मिलीग्राम की 2000 गोलियां बनाई जा सकती हैं।

इस तरह, एक गोली में बल्क ड्रग की लागत मात्र 0.033 रुपये आती है, लेकिन बाजार में ब्रांडेड सिप्रोफ्लोक्सासिन की 500 मिलीग्राम की एक गोली की कीमत 4.76 रुपये है! जेनेरिक दवा की कीमत भी लगभग 4.70 रुपये है, और 30% छूट के बाद यह 3.29 रुपये हो जाती है। सवाल यह है कि 0.033 रुपये की लागत वाली गोली को 4.76 रुपये में बेचने का क्या औचित्य है?

दूसरा उदाहरण: एमलोडिपीन (Amlodipine)

why are medicines expensive: एमलोडिपीन उच्च रक्तचाप के इलाज में इस्तेमाल होने वाली एक आम दवा है। 1 अप्रैल 2025 को मुंबई बाजार में पांच किलोग्राम एमलोडिपीन बल्क ड्रग की कीमत 2450 रुपये थी, यानी एक किलोग्राम की कीमत 490 रुपये। इस एक किलोग्राम से पांच मिलीग्राम की दो लाख गोलियां बनाई जा सकती हैं। इस हिसाब से एक गोली में बल्क ड्रग की लागत मात्र 0.002 रुपये आती है।

फिर भी, बाजार में ब्रांडेड एमलोडिपीन की पांच मिलीग्राम की एक गोली की कीमत 2.80 रुपये है। यह अंतर चौंकाने वाला है। आखिर, इतनी कम लागत वाली दवा को इतनी ऊंची कीमत पर बेचने का आधार क्या है?

इन उदाहरणों से साफ है कि दवाओं की कीमतें उनकी वास्तविक लागत से कहीं ज्यादा हैं। बाजार आधारित मूल्य नियंत्रण नीति ने दवा कंपनियों को मनमानी कीमतें तय करने की छूट दे दी है, जिसका खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ रहा है।

why are medicines expensive: लागत आधारित नीति की वापसी क्यों जरूरी?

1995 तक भारत में लागत आधारित मूल्य नियंत्रण प्रणाली लागू थी। इस प्रणाली में दवाओं की कीमतें उनकी उत्पादन लागत, पैकेजिंग और अन्य खर्चों के आधार पर तय की जाती थीं। इसमें 100% मार्जिन जोड़ा जाता था, जिसमें सभी संबंधित खर्च (खुदरा, थोक, वितरण, परिवहन आदि) शामिल होते थे।

यह प्रणाली दवाओं को सस्ता और सुलभ रखने में प्रभावी थी। लेकिन 2013 की नीति ने इस व्यवस्था को पूरी तरह बदल दिया। अब दवाओं की कीमतें बाजार के औसत मूल्य पर आधारित हैं, जो स्वाभाविक रूप से ऊंची होती हैं। लागत आधारित नीति की वापसी कई कारणों से जरूरी है:

मरीजों को राहत: लागत आधारित नीति दवाओं की कीमतों को उनकी वास्तविक लागत के करीब रखेगी, जिससे मरीजों को सस्ती दवाएं मिलेंगी।

पारदर्शिता: इस प्रणाली में दवाओं की कीमतें उत्पादन लागत पर आधारित होती हैं, जिससे मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता बनी रहती है।

कंपनियों की मनमानी पर लगाम: बाजार आधारित नीति में कंपनियां ऊंची कीमतें तय करती हैं, जबकि लागत आधारित नीति में उनकी मनमानी पर नियंत्रण रहेगा।

स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में सुधार: सस्ती दवाएं ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचेंगी, जिससे स्वास्थ्य सेवाएं अधिक समावेशी बनेंगी।

मरीजों की अनसुनी आवाज

why are medicines expensive: भारत में स्वास्थ्य और दवाओं का मुद्दा राजनीतिक प्राथमिकता में शायद ही कभी शीर्ष पर रहा हो। इसका एक कारण यह है कि मरीज कोई संगठित वोट बैंक नहीं हैं। लोग मतदान करते समय नीतियों के बजाय नेताओं या भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं। जब तक नीतियों के आधार पर वोट देने की परंपरा शुरू नहीं होगी, तब तक दवाओं के दाम कम करने जैसी मांगें नक्कारखाने में तूती की तरह गूंजती रहेंगी।

आज के समय में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अस्थमा, किडनी रोग, हृदय रोग और मानसिक रोग जैसी बीमारियां आम हो गई हैं। इनके इलाज के लिए मरीजों को साल भर दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। ऐसे में दवाओं की ऊंची कीमतें मरीजों और उनके परिवारों पर भारी आर्थिक बोझ डालती हैं। सस्ती दवाएं इस बोझ को कम कर सकती हैं और लाखों लोगों को राहत दे सकती हैं।

why are medicines expensive: वैश्विक परिप्रेक्ष्य और भारत की जिम्मेदारी

दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं और दवाओं की लागत को कम करने की मुहिम चल रही है। कई देशों ने दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए लागत आधारित या अन्य प्रभावी नीतियां अपनाई हैं। लेकिन भारत में स्थिति उलट है। यहां दवा कंपनियों को लाभ पहुंचाने की नीतियां बन रही हैं, जबकि मरीजों की जरूरतों को नजरअंदाज किया जा रहा है। यह विडंबना है कि भारत, जो दुनिया का “फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड” कहलाता है, अपने ही नागरिकों को सस्ती दवाएं उपलब्ध नहीं करा पा रहा।

आगे की राह

why are medicines expensive: वक्त की मांग है कि सरकार दवा मूल्य नियंत्रण नीति को पुनर्विचार करे और लागत आधारित प्रणाली को फिर से लागू करे। यह कदम न केवल मरीजों को राहत देगा, बल्कि स्वास्थ्य क्षेत्र में विश्वास को भी बहाल करेगा। पिछले 11 वर्षों में इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या मौजूदा नीति कॉरपोरेट हितों को प्राथमिकता दे रही है।

स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञ और आम नागरिक बेसब्री से उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब सरकार दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी। यह न केवल नीतिगत बदलाव का सवाल है, बल्कि सामाजिक न्याय और मानवता का भी सवाल है। सस्ती दवाएं हर नागरिक का अधिकार हैं, और इस अधिकार को सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है।

दवाओं की कीमतों को कम करने के लिए नीति परिवर्तन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। लागत आधारित मूल्य नियंत्रण प्रणाली की वापसी से न केवल दवाएं सस्ती होंगी, बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं भी अधिक सुलभ और समावेशी बनेंगी। यह बदलाव लाखों मरीजों के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालेगा और उन्हें आर्थिक बोझ से राहत देगा।

अब समय आ गया है कि सरकार पुरानी नीतियों की आलोचना करने के बजाय उनसे सीख ले और दवाओं के दाम कम करने की दिशा में ठोस कदम उठाए। आखिर, स्वस्थ नागरिक ही एक मजबूत राष्ट्र की नींव होते हैं।

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