प्रयागराज महाकुंभ के दौरान गंगा के प्रदूषण में चिंताजनक इजाफा हुआ है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को 3 फरवरी को सौंपी अपनी रिपोर्ट में गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता को लेकर जो इशारे किए हैं, वो न केवल जनस्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं, बल्कि गंगा की सफाई के नाम के तमाम ढकोसलों को भी उजागर कर देने वाले हैं। गंगा एक्शन प्लान से लेकर नमामि गंगे प्रोजेक्ट तक जनता के हजारों करोड़ रुपए गंगा में बह गए, लेकिन हासिल है एक ऐसी नदी, जिसे पवित्रता की कसमों के साथ सिर्फ छला गया,निचोड़ा गया,कुचला गया और वोट बटोरे गए। सीपीसीबी की रिपोर्ट बताती है कि कुंभ के दौरान अपशिष्ट जल संदूषण के सूचक ‘फेकल कोलीफॉर्म’ की मात्रा स्वीकार्य सीमा से कई गुना अधिक है। गंगा के किनारे विकसित हुई सभ्यता को छोड़िए, क्या हमारी आस्थाएं भी यह स्वीकार करेंगी कि जिस नदी का जल इस देश का श्रद्धालु वर्ग श्रद्धा के साथ अपने घरों में सहेज कर रखता है, उसमें फेकल कोलीफॉर्म यानी मानव मल और जानवरों के मल जैसे अपशिष्ट पदार्थों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया स्वीकार्य सीमा से इतने अधिक हों कि एक नदी का दम ही घुटता नजर आने लगे ? दरअसल इसके लिए जितनी जिम्मेदारी हमारी सरकारों की है, उतने ही जिम्मेदार समाज के तौर पर हम भी हैं। अंध आस्थाओं का शिकार हम जनहित,समाज हित जैसे सरोकारों को जाने कब त्याग चुके हैं। ऐसा न होता, तो गंगा में लगने वाली हर डुबकी के साथ हम सरकारों से सवाल करते कि पिछले कई दशकों से, हजारों करोड़ रुपए बहा देने के बाद भी गंगा , यमुना और बाकी नदियां भी ऐसी दुर्दशा का शिकार क्यों हैं ? बस करते रहिए हर–हर गंगे और घोलते रहिए जहर।
कैसे हो हर-हर गंगे ?
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आवेश तिवारी