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Home » ‘नारी अदालतों’ का विस्तार जरूरी कदम या सिर्फ वोट बैंक साधने की कोशिश!

सरोकार

‘नारी अदालतों’ का विस्तार जरूरी कदम या सिर्फ वोट बैंक साधने की कोशिश!

The Lens Desk
Last updated: May 17, 2025 10:56 am
The Lens Desk
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सचिन श्रीवास्तव 

केंद्र सरकार की ओर से घरेलू हिंसा, दहेज विवादों और बच्चे की अभिरक्षा (चाइल्ड कस्टडी) जैसे मामलों के समाधान के लिए नारी अदालतों का विस्तार किया जा रहा है। ऊपरी तौर पर देखने से यह पहल महिलाओं के लिए एक जरूरी और प्रगतिशील कदम दिखाई देती है, लेकिन इसके साथ ही कुछ सवाल भी खड़े होते हैं। यह कितनी प्रभावी होगी, इन अदालतों की सीमाएं क्या होंगी और इसका सामाजिक-आर्थिक प्रभाव क्‍या होगा, इसे देखे बगैर अदालतों का विस्तार महज टोटका ही कहलाएगा। यह अदालत महिलाओं के वोट बैंक साधने की और कमजोर कोशिश साबित होगा।

गौरतलब है कि दिसम्बर 2023 में असम और जम्मू-कश्मीर राज्यों की 50-50 ग्राम-पंचायतों में पायलट आधार पर लागू की गई ‘मिशन शक्ति’ की ‘संबल’ उप-योजना के अंतर्गत ‘नारी अदालत’ योजना ग्राम-पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए एक वैकल्पिक शिकायत निवारण तंत्र प्रदान करती है। यह योजना बातचीत, मध्यस्थता और सुलह के माध्यम से छोटे विवादों (जैसे घरेलू हिंसा, दहेज, बाल-हिरासत) को हल करने में मदद करती है। इसमें ग्राम-पंचायत द्वारा नामित 7 से 11 सदस्य होते हैं जिन्हें ‘न्याय सखी’ कहा जाता है।    

‘नारी अदालत’ की यह योजना अब देशभर में लागू की जा रही है। इसमें कोई शक नहीं है कि ‘नारी अदालतों’ की स्थापना एक जरूरी कोशिश है, लेकिन इस पहल की हकीकत जानना भी जरूरी है। यहां कुछ सवाल लाजिमी हैं। अव्वल तो, महिलाओं को कानूनी संस्थाओं से जोड़ना और उनकी समस्याओं का समाधान करने की दिशा में सबसे बड़ा रोड़ा हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा है तो क्या ये अदालतें पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चुनौती दे पाएंगी या फिर वे इन्हीं संरचनाओं के बीच जैसे-तैसे अपनी साख बचाने के लिए अभिशप्त होंगी? अगर इन अदालतों का संचालन पुरुष प्रधान संरचनाओं की ही तरह किया जाएगा, तो महिलाओं की समस्याओं का समाधान कितना प्रभावी होगा? 

इसके अलावा, क्या ये अदालतें महिलाओं को न्याय दिलाने के बजाय उन्हें केवल ‘समझौते’ करने के लिए मजबूर करेंगी? अक्सर देखा गया है कि घरेलू हिंसा और दहेज मामलों में महिला को ‘परिवार बचाने’ की सलाह दी जाती है, जिससे उनकी समस्याएं और जटिल हो जाती हैं। नारी अदालतों के जरिये महिलाओं को न्याय दिलाने की कोशिश में यह देखना भी जरूरी होगा कि यह कोशिश कितने संरचनात्मक बदलाव ला पाएगी। महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए जरूरी है कि शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक स्वायत्तता को बढ़ावा दिया जाए। जब तक महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं होगी, तब तक नारी अदालतें महज एक अस्थायी समाधान होंगी।

महिलाओं से जुड़े कानूनी मामलों में न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि नारी अदालतों के सामने कई सांस्कृतिक और कानूनी चुनौतियां भी होंगी। भारतीय संदर्भ में आज भी महिला अधिकारों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और इसकी गंभीरता को न समझते हुए हास्यास्पद बना दिया जाता है। पितृसत्ता के प्रति मोह कानून और पुलिस व्यवस्था में भी किस हद तक शामिल है, यह किसी से छुपा नहीं है। यह महिलाओं की न्याय तक पहुंच को रोकता है।

गहराई से देखें तो यह समझ आता है कि महिलाओं पर होने वाले अन्याय और हिंसा के पीछे आर्थिक असमानता और वर्ग विभाजन की भी बड़ी भूमिका है। घरेलू हिंसा और दहेज हत्या जैसे अपराध न केवल लैंगिक भेदभाव की वजह से हैं, बल्कि वे पूंजीवादी संरचनाओं द्वारा पोषित होने वाली सामाजिक-आर्थिक असमानता से भी जुड़े हैं। इसलिए इस बात को जोर देकर कहना जरूरी है कि जब तक महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं होगी, तब तक वे पुरुष प्रधान समाज में दोयम दर्जे की नागरिक होने के लिए अभिशप्त होंगी। नारी अदालतें न्याय का एक मंच जरूर उपलब्ध कराएंगी, लेकिन क्या वे महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता की ओर कोई ठोस पहल कर पाएंगी? ऐसे में यह पहल केवल आंशिक समाधान भर नहीं देंगी?

एक और सवाल नारी अदालतों तक पहुंच का है। क्या इन तक सभी वर्गों की महिलाओं की समान पहुंच होगी? गांवों और शहरी गरीब बस्तियों की महिलाएं पहले से ही कानूनी संस्थाओं से कटी हुई हैं। उनकी प्राथमिक चिंता खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जुटाना है। इस क्रम में, नारी अदालतों के प्रभाव का सही मूल्यांकन करना जरूरी है। राज्य का कानून अक्सर अमीरों और ताकतवरों के हितों की रक्षा करता है। यह एक स्वत: सिद्ध तथ्य है। यदि नारी अदालतों को केवल राज्य नियंत्रित करेंगे और इसमें जनता की भागीदारी कम रहती है, तो यह न्यायिक प्रक्रिया भी अन्य संस्थानों की तरह ताकतवरों के हित सुरक्षित रखने का साधन भर बन सकती है। 

न्याय, समानता और सामाजिक बदलाव के संदर्भ में यह कहना भी जरूरी है कि हम इस पहल पर व्यावहारिक नजरिये से सोचें। न्याय का स्वरूप क्या होना चाहिए? क्या यह केवल कानूनी प्रक्रिया तक सीमित रहना चाहिए, या इसे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव से जोड़कर देखा जाना चाहिए? न्याय केवल किसी समस्या का समाधान भर नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक पुनर्संरचना की प्रक्रिया भी है। जब तक महिलाओं को कानूनी रूप से ही नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी समानता नहीं मिलेगी, तब तक नारी अदालतें अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाएंगी।

अगर इस पहल को दीर्घकालिक रूप से प्रभावी बनाना है, तो इसे तात्कालिक राहत देने वाले साधन के बजाय एक व्यापक सामाजिक बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए। महिलाओं की शिक्षा, रोजगार के अवसर और उनकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करना उतना ही जरूरी है जितना कि उन्हें न्याय दिलाने के लिए विशेष अदालतों की स्थापना करना। इसलिए नारी अदालतों को महिलाओं की पूर्ण स्वतंत्रता और समानता की दिशा में एकमात्र समाधान मानना ठीक नहीं होगा। जरूरी यह है कि इन अदालतों और मुख्य अदालतों को भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्त रखा जाए और महिलाओं को केवल पारिवारिक संरचना के भीतर समझौता करने के बजाय उनके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए। साथ ही सामाजिक-आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए स्थायी समाधान तलाशे जाएं। (सप्रेस)

(सचिन श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।)

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

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