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लेंस संपादकीय

उत्तर में दक्षिण की भाषाएं क्यों नहीं

The Lens Desk
Last updated: March 6, 2025 3:32 pm
The Lens Desk
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नई शिक्षा नीति 2020 के तीन भाषा फॉर्मूले के बहाने दक्षिणी राज्यों में कथित तौर पर हिंदी थोपने की कोशिश न तो नई है और न ही इसका विरोध। यह दक्षिण और उत्तर के राज्यों में हर तरह के व्यापक समन्वय और संतुलन से जुड़ा सवाल है और भाषा इसमें विरोध का एक औजार बन गई है। ऐसे में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के इस सवाल पर गौर किया जाना चाहिए कि दक्षिण भारत हिन्दी प्रचारिणी सभा जैसी पहल दक्षिणी भाषाओं तक पहुंच बनाने के लिए उत्तर में क्यों नहीं की गई? बेशक हिन्दी की पहुंच पूरे देश में किसी भी अन्य भाषा से अधिक है, लेकिन इसकी आड़ में जिस तरह से आरएसएस और भाजपा खासतौर से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित अपनी राजनीतिक सत्ता कायम करना चाहते हैं, उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। जबकि वास्तविकता यह है कि 1960 के दशक में हिन्दी विरोध चरम पर पहुंच चुका था, लेकिन उसके बाद के दशकों में यह ठंडा पड़ गया था। दरअसल ताजा विरोध सिर्फ भाषा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसने दक्षिणी राज्यों, खासतौर से तमिलनाडु में लोकसभा की सीटों के प्रस्तावित परिसीमन से उपजी आशंकाओं को और गहरा कर दिया है। सवाल वाजिब है कि दक्षिण के राज्य तकरीबन हर मानक पर अच्छे प्रदर्शन की कीमत अपेक्षाकृत कम प्रतिनिधित्व के रूप में क्यों चुकाएं? जाहिर है, इसे भाषा के विवाद तक सीमित रख कर नहीं देखा जा सकता।

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