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लेंस संपादकीय

नई श्रम संहिताएं : व्यापक सहमति के बिना

Editorial Board
Editorial Board
Published: November 25, 2025 9:29 PM
Last updated: November 25, 2025 9:29 PM
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Protest Against Labor Code
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केंद्र सरकार ने आखिरकार बीते शुक्रवार को चार नई श्रम संहिताएं लागू करने का ऐलान कर दिया है, जो कि मौजूदा 29 केंद्रीय श्रम कानूनों की जगह लेंगी। ये श्रम संहिताएं हैं, मजदूरी संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्त संहिता, 2020।

दुनिया भर में मजदूरों ने लंबी लड़ाई के जरिये अपने हक में जो हासिल किया, उसे कमजोर करने की कोशिशें हर जगह तेज हुई हैं, उससे भारत भी अछूता नहीं है।

भारत में मजदूरों ने लंबी लड़ाई लड़ कर अपने हक में 44 कानून बनवाए थे, जिनमें काम के निश्चित घंटे और श्रमिक संगठन बनाने जैसे अधिकार शामिल थे।

बेशक, पुराने कानूनों की जटिलतों को खत्म होना ही चाहिए, लेकिन श्रम संहिताएं मजदूरों को लगातार हाशिये पर डालने की कोशिशों को ही तेज करती लगती हैं।

यों तो 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से श्रम सुधारों की बात उठती रही है, लेकिन हकीकत में इसकी आड़ में लगातार मजदूरों की स्थिति कमजोर हुई है।

इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि 1970 के दशक की ट्रेड यूनियन की हड़तालों ने मजदूरों का भला करने के बजाए नुकसान किया, लेकिन दूसरी ओर प्रबंधन भी निरंकुश होता गया है और बची-खुची कसर सरकारों ने कर दी।

वास्तविकता यही है कि इन श्रम संहिताओं से देश के 50 करोड़ से ज्यादा कामगारों का भविष्य जुड़ा हुआ है, जिनमें संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों के श्रमिक-कर्मचारी शामिल हैं। इसके बावजूद सरकार ने व्यापक सहमति के बिना इन श्रम संहिताओं को लागू करने का फैसला किया है, जिससे उसकी नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

मसलन, औद्योगिक संबंध संहिता को ही देखें, तो उसके तहत अब 300 से अधिक श्रमिकों वाली फैक्टरियों को तालाबंदी या छंटनी से पहले सरकार की इजाजत अनिवार्य की गई है, जबकि पहले इसका दायरा 100 श्रमिकों वाली फैक्टरियों तक सीमित था।

इसी तरह से अब हड़ताल करने से पहले 14 दिन का नोटिस देना अनिवार्य है, और कुछ सेवाओं में तो हड़ताल पूरी तरह प्रतिबंधित है। क्या इससे मजदूरों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत कमजोर नहीं हुई है ?

नई संहिताओं में पहली बार गिग वर्कर्स को परिभाषित किया गया है और उन्हें इन कानूनों के दायरे में लाया गया है, यह अच्छी बात है। मगर हकीकत यह भी है कि उनके काम के घंटे तय नहीं हैं और उन्हें गला काट स्पर्धा वाले इस क्षेत्र में जान जोखिम में डाल कर काम करना पड़ता है।

सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों को जिस तरह से लगातार कमजोर कर निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया है, उसके मद्देनजर भी इन श्रम संहिताओं को देखने की जरूरत है।

इन संहिताओं के विरोध में 26 नवंबर यानी आज संविधान दिवस पर हड़ताल कर रही देश की 10 शीर्ष ट्रेड यूनियनों का कहना है कि सरकार ने श्रमिकों को भरोसे में लिए बिना मनमाने ढंग से इन्हें लागू कर रही है।

अच्छा होता कि यह नौबत ही नहीं आती और सरकार श्रमिकों को भरोसे में लेकर व्यापक सहमति के बाद ही ऐसा कदम उठाती। मुश्किल यह है कि मोदी सरकार अपनी गलतियां नहीं मानती, जैसा कि तीन कृषि कानूनों और त्रुटिपूर्ण जीएसटी तथा नोटबंदी के मामले में देखा जा चुका है। दुखद यह है कि उसका हर ऐसा मनमाना फैसला आम श्रमिकों और वंचित तबके पर भारी पड़ता है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार को जनता की हितैषी होना चाहिए न कि अंग्रेजी राज की तरह माई-बाप सरकार!

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