सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में उत्तर प्रदेश के प्रयागराज स्थित एक यूनिवर्सिटी के कुलपति और अन्य अधिकारियों पर कथित तौर पर जबरिया धर्मांतरण करवाने के आरोप में दर्ज की गई एफआईआर को रद्द करते हुए साफ तौर पर कहा है कि आपराधिक कानून लोगों के उत्पीड़न का औजार नहीं बन सकता।
हाल के समय में खास तौर पर भाजपा शासित राज्यों में धर्मांतरण के विरोध के नाम पर पुलिसिया कार्रवाइयों में जिस तरह से तेजी आई है, उसे देखते हुए यह फैसला दूरगामी है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का आधार उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मांतरण अधिनियम, 2021 की धारा चार है, जिसके मुताबिक कोई भी अजनबी या तीसरा पक्ष जबरिया धर्मांतरण की शिकायत दर्ज नहीं कर सकता।
इस मामले में 2022 में विश्व हिंदू परिषद के एक नेता ने प्रयागराज के सैम हिग्गिन बॉटम एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के कुलपति राजेंद्र बिहारी लाल तथा अन्य लोगों के खिलाफ 90 लोगों का जबरिया धर्मांतरण करने का आरोप लगाया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने और स्वतंत्रता के अधिकार में मनमाने आपराधिक अभियोग से सुरक्षा भी शामिल है। पिछले महीने सितंबर में ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सहित नौ राज्यों को नोटिस भेजकर धर्मांतरण विरोधी कानूनों पर रोक लगाने वाली याचिकाओं पर उनके जवाब मांगे हैं।
हैरत नहीं होनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश ने अगस्त 2024 में अपने धर्मांतरण विरोधी कानून में संशोधन कर धारा चार पर रोक लगा दी थी! निस्संदेह प्रलोभन या डरा धमका कर किए जाने वाले धर्मांतरण को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।
दूसरी ओर धर्मांतरण रोकने के नाम पर जिस तरह से भाजपा और आरएसएस से जुड़े विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठन मनमाने ढंग से कार्रवाइयां कर रहे हैं, उसे इस पूरे घटनाक्रम से अलग करके नहीं देखा जा सकता। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी मनमानी राजनीतिक सर्वेक्षण के बिना संभव नहीं है।
दरअसल बहुसंख्यकवाद का जो नरैटिव देश में बनाया जा रहा है, उसके निशाने पर अल्पसंख्यक ही हैं। यह विडंबना ही है कि अपने नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी तो सरकारों की है, लेकिन इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना पड़ रहा है।

