अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की पहल पर इस्राइल और हमास के बीच हुए शांति समझौते के बाद दोनों ओर के बंधकों की रिहाई यकीनन राहत की बात है, लेकिन यह भी सच है कि बीते दो सालों के दौरान गाजा में इस्राइल ने जैसी तबाही मचाई है और हजारों फलस्तीनियों को उसने जिस तरह के मानवीय संकट में डाल दिया उससे उबरना आसान नहीं।
दरअसल यह नहीं भूला जा सकता कि 2017 में राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल में ही डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका की सात दशक पुरानी विदेश नीति को पलटते हुए येरुशलम को इस्राइल की राजधानी के रूप में मान्यता देते हुए अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से वहां स्थानांतरित कर दिया था। डोनाल्ड ट्रंप और इस्राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के रिश्ते किसी से छिपे भी नहीं हैं।
फिर भी, गाजा में फौरी शांति, एक छोटा ही सही अहम कदम है। इस समझौते के बाद सात अक्टूबर, 2023 को हमास के हमले में बंधक बनाए गए सभी जीवित इस्राइली नागरिकों को छोड़ दिया गया है और दूसरी ओर इस्राइल ने 2000 से कुछ अधिक फलस्तीनियों को रिहा कर दिया है, लेकिन यह तकलीफदेह खबर है कि इनमें से करीब डेढ़ सौ लोगों को वह किसी तीसरे देश में निर्वासित कर रहा है!
असल में इसी में इस समझौते की कमजोर नब्ज को टटोला जा सकता है, जिससे लगता है कि यह बेहद मजबूरी और दबाव में आकर उठाया गया कदम है, जिसमें कोई दूरगामी सोच नहीं है।
हमास ने सात अक्टूबर, 2023 को इस्राइली नागरिकों को जिस हिंसक तरीके से बंधक बनाया था, उसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। बल्कि हकीकत तो यही है कि उसकी इस हरकत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग की फलस्तीन से उठती आवाजों को कमजोर ही किया था। दूसरी ओर हमास की कार्रवाई के बाद इस्राइल ने गाजा पर जिस तरह की भीषण कार्रवाई की उसमें बीते दो सालों में 67 हजार फलस्तीनी मारे गए जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। यही नहीं, गाजा के एक बड़े हिस्से में इस्राइल ने कब्जा तो कर ही लिया, दुनियाभर से आने वाली मानवीय सहायता को रोककर उसने हजारों फलस्तीनियों के लिए जीने मरने का संकट पैदा कर दिया था।
ट्रंप की 20 सूत्रीय शांति योजना में भले ही इस्राइल और फलस्तीन के सहअस्तित्व की बात की गई है, लेकिन यह कहना जितना आसान है, व्यवहार में यह उतना ही कठिन है। दरअसल इस योजना की सबसे बड़ी कमजोरी तो यही है कि इसमें इस्राइल और फलस्तीन के रूप में दो राष्ट्र के सिद्धांत के बारे में स्पष्टता से कुछ भी नहीं कहा गया है। फलस्तीन के इस दर्द का एहसास तो ट्रंप को भी आज इस्राइली संसद में हो गया होगा, जहां उनके कसीदे तो पढ़े गए, लेकिन साथ ही, उन्हें एक विपक्षी सांसद के विरोध का सामना भी करना पड़ा।
वास्तव में इस शांति समझौते का हासिल दोनों ओर के परिवारों के बिछड़े सदस्यों का मिलन है, जो दिखाता है कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। वरना तो, अमेरिका की नीतियां और इस्राइल की नीयत किसी से छिपी नहीं है।

