देशभर में शारदीय नवरात्रि का त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक, हर क्षेत्र में देवी मां की आराधना हो रही है। भारत में विभिन्न मान्यताओं, परंपराओं और संस्कृति की एक अनोखी मिसाल है दुर्गा पूजा।
सांस्कृतिक परंपरा की एक सुंदर कहानी जिसकी शुरुआत तब होती है जब बंगाल से अलग होकर बिहार एक नया राज्य बना और वहां के सुदूर इलाकों में बसे बंगाली समाज ने अपने सांस्कृतिक अस्तित्व को जीवित रखने के लिए ग़ुलाम भारत में प्रारंभ किया दुर्गा पूजा।
साल 1912 में बिहार के चंपारण में कुछ बंगाली परिवारों ने मिलकर मोतिहारी में यादव लाल शाह के प्रांगण में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया। बनारस से पधारे भट्टाचार्य पुरोहित बंधुओं ने प्रथम वर्ष की पूजा संपन्न कराई। अगले एक दशक तक शहर के विभिन्न स्थानों में बंगाली समाज का यह महोत्सव आयोजित होता रहा।
नील आंदोलन के दौरान देशबंधु चितरंजन दास का भी मोतिहारी आना हुआ। उन्होंने यहां के बंगाली समाज को एक धनराशि दान में दी जिसकी मदद से दुर्गा पूजा के लिए स्थाई जगह का इंतजाम हो सके। डब्ल्यू एस इर्विन नामक अंग्रेज़ अधिकारी ने बंगाली समाज को ज़मीन दिलाने का काम पूरा किया।
मोतिहारी के ज्ञान बाबू चौक स्थित भवानी मंडप में साल 1922 से दुर्गा पूजा की परंपरा फिर से स्थापित हुई। हालांकि साल 1934 के भूकंप में मंडप क्षतिग्रस्त हो गया जिसे बाद में स्थानीय लोगों के सहयोग से फिर बनाया गया।
आज़ादी के बाद धार्मिक और पारंपरिक त्योहारों के आयोजन की रौनक और बढ़ गई। मोतिहारी के भवानी मंडप में पहले से स्थापित चंपारण का प्राचीन बंगाली पुस्तकालय वीणापाणि लाइब्रेरी भी अपने किताबों और अलमारी में नए रंग भरने लगा।
1960 के दशक में भवानी मंडप शहर का मशहूर सांस्कृतिक केंद्र बन बैठा। मंच के निर्माण ने मोतिहारी में बंगाली समाज के भीतर एक कलाकार को जन्म दिया। संध्या आरती के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम की यह परंपरा आज भी जारी है।
पिछले एक दशक में चंपारण के प्राचीनतम दुर्गा पूजा मंडप के नवीकरण का काम तेज़ी से आगे बढ़ा है। मगर जो घट रहा है वह है यहां के बंगाली परिवारों की संख्या। बेहतर शिक्षा और रोज़गार हेतु पलायन की परंपरा से मोतिहारी का बंगाली समाज भी अछूता नहीं रहा। आज गिनती के चंद बंगाली परिवार अपने बच्चों के साथ गैर बांग्ला भाषी कलाकारों को रबिंद्र संगीत में अपनी प्रस्तुति देते देखकर एक संतुष्टि की अनुभूति करते हैं।
आज सष्ठी का दिन है। शाम को देवी दुर्गा की प्रतिमा बंगाली समाज के लोग अपने हाथों से उठाकर बेदी पर स्थापित करेंगे। मां का श्रृंगार होगा और फिर प्राण प्रतिष्ठा।
मोतिहारी के भवानी मंडप में एक सदी से भी ज़्यादा पुरानी यह परंपरा समूचे इलाके में सुप्रसिद्ध है। यह चंपारण की एकमात्र ऐसी दुर्गा पूजा है जहां प्रतिमा का श्रृंगार स्वर्ण आभूषण से होता है। पूजा के दौरान प्रतिदिन श्रद्धालुओं को भोग परोसा जाता है।
मोतिहारी का इकलौता पूजा पंडाल जहां बांग्ला संस्कृति और धरोहर की अनोखी छाप देखने को मिलती है, फिर चाहे वह संध्या आरती के समय धूनुची नाच हो या ढाक के ताल पर थिरकते कलाकार। सष्ठी के दिन देवी बोधन से लेकर अष्टमी के संधी पूजा तक और फिर दसमी के सिंदूर खेला की तस्वीर, भवानी मंडप के प्रांगण में यह सांस्कृतिक सिलसिला पिछले 113 वर्षों से चला आ रहा है।
बंगाली लोगों का मानना है कि नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा अपने मायके आती है और दसवे दिन विसर्जन के साथ विदा लेती हैं। देवी दुर्गा की शोभा यात्रा में समस्त बंगाली समाज एक साथ शंख ध्वनि और ढाक के धुन पर भासान करने जाता है।
आज भवानी मंडप में 114वें वर्ष की दुर्गा पूजा का आरंभ देवी बोधन के साथ हो रहा है।