सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न राज्यों के धर्मांतरण पर रोक लगाने से संबंधित कानूनों की वैधता को चुनौती देने से संबंधित मामलों को संबंधित उच्च न्यायालयों से अपने पास बुलवा लिया है, और संबंधित राज्यों से चार हफ्ते में जवाब मांगा है।
पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से धर्मांतरण को भाजपा और आरएसएस के अन्य संगठनों ने एक बड़ा मुददा बनाया है और जिस तरह से उसकी आड़ में ईसाई और मुस्लिम समुदायों पर हमले बढ़े हैं, उसे देखते हुए सर्वोच्च अदालत का यह कदम बेहद महत्त्वपूर्ण है।
दस राज्यों- उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक और झारखंड ने या तो धर्मांतरण पर रोक लगाने वाले कानून बना रखे हैं या उस प्रक्रिया में हैं, जिनके कई प्रावधान तो इतने सख्त हैं कि सिर्फ संदेह के आधार पर किसी व्यक्ति को बरसों जेल में डाला जा सकता है।
मसलन, उत्तर प्रदेश के कानून को हो देखें, तो उसके मुताबिक जबरिया धर्मांतरण के मामले में न्यूनतम 20 साल सजा का प्रावधान है और इसमें जमानत की शर्तें पीएमएलए (धन शोधन रोक अधिनियम) की तरह कड़ी हैं और आरोपी को खुद ही साबित करना होगा कि वह निर्दोष है!
तो राजस्थान के कानून के मुताबिक धर्मांतरण के आधार पर किसी शादी को शून्य घोषित किया जा सकता है। यही नहीं, कोई भी व्यक्ति सिर्फ संदेह के आधार पर इस कानून के तहत शिकायत दर्ज कर सकता है, ऐसे में इनके दुरुपयोग की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।
इनकी वैधता का फैसला तो सुप्रीम कोर्ट करेगा, लेकिन यहां याद दिलाया जा सकता है कि सर्वोच्च अदालत ने 2021 में ही जमियत उलेमा ए हिन्द की याचिका का भी संज्ञान लिया था, जिसमें शिकायत की गई थी कि पूरे देश में धर्मांतरण निरोधक कानूनों की आड़ में बड़ी संख्या में मुस्लिमों पर हमले हुए हैं।
वहीं, छत्तीसगढ़ का तो मामला सबसे ताजा है, जहां केरल की दो ननों को हिन्दू संगठन के उकसावे पर सिर्फ इस संदेह में प्रताड़ित किया गया और गिरफ्तार कर लिया गया था कि वे तीन आदिवासी लड़कियों का धर्मांतरण कराने की कोशिश कर रही हैं, जबकि ये लड़कियां स्वेच्छा से उनके साथ काम करने जा रही थीं। अभी यह मामला महिला आयोग में लंबित है।
यही नहीं, छत्तीसगढ़ में ईसाइयों के प्रार्थना स्थलों के साथ ही सौ साल पुराने एक मिशनरी अस्पताल पर भी हमले किए गए हैं! निस्संदेह जबरिया या प्रलोभन के आधार पर किए जाने वाले या करवाए जाने वाले धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन धर्मांतरण पर रोक से संबंधित कानूनों की आड़ में खासतौर से हिन्दू संगठनों की अतिसक्रियता संदेह पैदा करती है।
दरअसल धर्मांतरण का मुद्दा उसी राजनीतिक नरैटिव का हिस्सा लगता है, जिसके जरिये डेमोग्राफी बदल जाने के दावे किए जाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट का ताजा कदम संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।