नेपाल में सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं के प्रदर्शन और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे पर भारत की क्रान्तिकारी मजदूर पार्टी ने निरंकुश सत्ता के खिलाफ बड़ी जीत बताया है। पार्टी की ओर से जारी बयान को द लेंस हूबहू यहां दे रहा है…आप भी पढि़ए सत्यम वर्मा ने जो पोस्ट किया है...
नेपाल में केपी शर्मा ओली का प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा वहाँ की पूँजीवादी निरंकुश सत्ता के खिलाफ युवाओं के विद्रोह की एक बड़ी जीत है। भारत की क्रान्तिकारी मजदूर पार्टी (आरडब्ल्यूपीआई) नेपाल के युवाओं और मेहनतकश जनता को इस ऐतिहासिक उपलब्धि के लिए क्रान्तिकारी सलाम पेश करती है।
ओली की निरंकुश सरकार का इस्तीफा गत 8 सितम्बर को शुरू हुए जेन जेड (Gen Z) (1997 और 2012 के बीच पैदा हुए) युवाओं के आन्दोलन के बर्बर पुलिसिया दमन के अगले दिन सामने आया जिसमें 22 लोगों की मौत हो गई थी और 500 से ज्यादा लोग घायल हो गये थे।
इस देशव्यापी आन्दोलन का तात्कालिक कारण ओली सरकार द्वारा फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, यूट्यूब, व्हाट्सऐप सहित 26 सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर लगाया गया प्रतिबन्ध था। ओली सरकार ने इस प्रतिबन्ध की वजह यह बतायी थी कि इन सोशल मीडिया कंपनियों ने सरकारी पंजीकरण नहीं कराया था।
परन्तु नेपाल के लोगों और खासकर युवाओं को यह समझने में देर नहीं लगी कि इस प्रतिबन्ध का असली मकसद ओली सरकार के भ्रष्टाचार तथा नेताओं-मंत्रियों व उनके परिजनों की विलासिता के खिलाफ उठ रही आवाजों को खामोश करना था।
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से नेपाल में जारी राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक तंगी, लगातार बढ़ती बेरोजगारी, महँगाई, आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार एवं नेताओं की अश्लील विलासिता के खिलाफ वहाँ के आम लोगों और खासकर युवाओं में जबर्दस्त आक्रोश पनप रहा था जो सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय था।
मौजूदा आन्दोलन के कुछ दिनों पहले से ही वहाँ सोशल मीडिया पर #nepokids और #Nepobaby जैसे टैग वाले पोस्ट बहुत वायरल हो रहे थे जिनमें नेपाल के युवा वहाँ के नेताओं व अमीरजादों के भ्रष्टाचार और उनके परिजनों की अय्याशी और विलासिता का पर्दाफाश कर रहे थे।
नेपाल के युवाओं के विद्रोह को इस व्यापक आर्थिक व राजनीतिक परिदृश्य में अवस्थित करके ही समझा जा सकता है। ओली सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर लगाये गये प्रतिबन्ध ने पहले से ही सुलग रही जनाक्रोश की आग में घी डालने का काम किया। नेपाल में जारी युवाओं का विद्रोह सिर्फ सत्तारूढ़ संशोधनवादी पार्टी या उसके नेताओं के खिलाफ ही नहीं बल्कि उन सभी पार्टियों व नेताओं एवं धननायकों के खिलाफ है जिन्होंने पिछले 2 दशकों के दौरान सत्ता में भागीदारी की या जो सत्ता के निकट रहे हैं।
यही वजह है कि प्रदर्शनकारियों के निशाने पर संसद, प्रधानमंत्री निवास, राष्ट्रपति निवास, प्रशासनिक मुख्यालय, उच्चतम न्यायालय के अलावा तमाम बड़ी पार्टियों के कार्यालय और उनके नेताओं के आवास भी थे जिनमें पाँच बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके शेर बहादुर देउबा और माओवादी नेता व पूर्व प्रधानमंत्री प्रचण्ड के आवास भी शामिल थे।
इसके अलावा प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू की कई बहुमंजिला व्यावसायिक इमारतों और आलीशान होटलों में भी आग लगा दी जो धनाढ्यता का प्रतीक थीं। इस प्रकार यह बगावत वस्तुतः समूचे पूँजीवादी निजाम के खिलाफ है, भले ही इसमें भाग लेने वाले प्रदर्शनकारी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण इसे इन शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर रहे हैं और इसे महज भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद के खिलाफ आन्दोलन कह रहे हैं।
गौरतलब है कि 2008 में राजशाही के खत्म होने के बाद से वहाँ बहुदलीय बुर्जुआ लोकतान्त्रिक व्यवस्था अस्तित्व में है और इस जनविरोधी व्यवस्था के खिलाफ लोगों का असन्तोष लम्बे समय से पक रहा था। नेपाल की अर्थव्यवस्था में नये रोजगार पैदा न होने की वजह से हर साल 7-8 लाख युवाओं को काम की तलाश में खाड़ी के देशों, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और यूरोप के देशों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
विश्व बैंक के अनुसार नेपाल में बेरोजगारी दर 20 प्रतिशत है। कहने की जरूरत नहीं कि वास्तविक बेरोजगारी इन आधिकारिक आँकड़ों से कहीं अधिक होगी। नेपाल की कुल आबादी 3 करोड़ है और उसमें से करीब 60 लाख लोग देश के बाहर काम करते हैं। देश के बाहर काम करने वाली आबादी वहाँ की कुल कार्यशील आबादी की करीब एक-तिहाई है।
गौरतलब है कि यह महज आधिकारिक डेटा है, दूसरे देशों में काम कर रहे नेपालियों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। नेपाल की अर्थव्यवस्था की लचर हालत का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहाँ के जीडीपी का लगभग एक-तिहाई देश के बाहर काम कर रहे प्रवासी नेपालियों द्वारा अपने परिजनों को भेजे जा रहे पैसे (रेमिटेंस) से आता है। इसके अलावा आयात पर अति-निर्भरता की वजह से वहाँ महँगाई की दर लगातार बहुत अधिक रहती है।
ये तंग आर्थिक हालात लोगों के असन्तोष को लगातार बढ़ाते आये हैं। 8 और 9 सितम्बर को नेपाल में हुआ नाटकीय घटनाक्रम इस असन्तोष की ही तार्किक अभिव्यक्ति है। परन्तु इस आन्दोलन की स्वतःस्फूर्तता और इससे जुड़े युवाओं का अराजनीतिक और गैर-विचारधारात्मक चरित्र इसकी कमजोरी है।
हालाँकि इस आन्दोलन ने दो दिन के भीतर ही ओली सरकार को ध्वस्त कर दिया, परन्तु इसके पास मौजूदा व्यवस्था का कोई विकल्प और भविष्य की कोई दिशा नहीं है। आज नेपाल की बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतों के सम्मुख इस दिशाहीन विद्रोह को क्रान्तिकारी दिशा देकर व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की चुनौती आन खड़ी हुई है।
अगर वे ऐसा नहीं कर पाती हैं तो दक्षिणपंथी एवं राजशाहीवादी पार्टियाँ युवाओं के इस स्वतःस्फूर्त विद्रोह को मौजूदा व्यवस्था के दायरे में ही सीमित रखने और इस क्रान्तिकारी परिस्थिति को प्रतिक्रिया की दिशा में मोड़ने में सफल साबित होंगी। इस बात के संकेत अभी से मिल रहे हैं कि दक्षिणपंथी लोकतन्त्रवादी राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी और राजशाहीवादी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी इस स्वतःस्फूर्त आन्दोलन में घुसपैठ कर रही हैं।
काठमांडू के मेयर बालेन शाह जैसे घोर जनविरोधी और लोकतन्त्रवादी नेता की बढ़ती लोकप्रियता भी इसी ओर इशारा कर रही है। गौरतलब है कि कुछ हफ्तों पहले ही नेपाल के कई शहरों में राजशाही को वापस लाने के लिए आन्दोलन भी हुए थे।
ओली सरकार द्वारा इस प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का दमन करने के बाद वह आन्दोलन उस समय तो खत्म हो गया था परन्तु नेपाली समाज में ऐसी प्रतिक्रियावादी ताकतें अभी भी मौजूद हैं और उन्हें भारत के हिन्दुत्ववादी फांसीवादियों का समर्थन भी मिल रहा है।
स्पष्ट है कि 2008 में राजशाही के खत्मे के बाद नेपाल के माओवादियों ने क्रान्ति के मार्ग से विश्वासघात करके जो संसदीय मार्ग अपनाया उसका खामियाजा आज नेपाल की मेहनतकश जनता को भुगतना पड़ रहा है। आज नेपाल में जो बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतें इस संशोधनवादी विश्वासघात को समझती हैं उनके सामने युवाओं की बगावत ने वहाँ के क्रान्तिकारी आन्दोलन को पुनर्जीवित करने का एक ऐतिहासिक अवसर भी पेश किया है।
हम उम्मीद करते हैं कि नेपाल की क्रान्तिकारी ताकतें अपने इस ऐतिहासिक दायित्व को समझते हुए जनता की परिवर्तनकामी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम के तहत मौजूदा क्रान्तिकारी परिस्थिति को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में मोड़ने के लिए जी-जान से जुटेंगी।
अन्यथा हमें डर है कि जैसा श्रीलंका व बांग्लादेश में हुआ, माओवादी ताकतों की गैरमौजूदगी या कमजोरी की वजह से सत्ता परिवर्तन व्यवस्था परिवर्तन का रूप नहीं ले सकेगा और समाज में प्रतिक्रियावादी ताकतें हावी हो जाएँगी।