मुझे नहीं पता कि रूपकुंड झील के बारे में कितने लोगों ने सुना या पढ़ा होगा। रूपकुंड उत्तराखंड हिमालय में 16,500 फीट पर एक गहरे हरे रंग की सी दिखने वाली झील है। लेकिन इसका परिचय सिर्फ इतना ही नहीं है, यह रहस्यमयी झील बीसवीं सदी की शुरुआत में तब चर्चा में आई, जब यहां बड़ी संख्या में नर कंकाल दिखे। उसके बाद रूपकुंड झील अंतरराष्ट्रीय कौतूहल का केंद्र बनी और तब से इन नर कंकालों की ऐतिहासिकता पर कई शोध हुए हैं और विदेशी मीडिया में भी कई वृत्तचित्र प्रसारित हो चुके हैं। वो नर कंकाल बड़ी संख्या में आज भी वहीं मौजूद हैं।
हिमालयी इलाके में बढ़ रही आपदाओं के बीच रूपकुंड में सदियों पहले हुई त्रासदी का जिक्र करना जरूरी हो जाता है। उस त्रासदी का उल्लेख उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में सदियों से चले आ रहे लोकगीतों, लोकगाथाओं में है, जिनसे पता चलता है कि ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में जसधवल नाम के एक राजा को किसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए उसकी रानी के मायके में होने वाली नंदा देवी की राजजात (धार्मिक यात्रा) में शामिल होने की सलाह दी गई थी। लेकिन राजा यहां एक तीर्थयात्री के तौर पर शामिल होने के बजाय अपनी शानो-शौकत के साथ निकला। अपनी सेना और घोड़े-खच्चर समेत पूरे लाव-लश्कर और राजसी ठाठ-बाट के साथ राजा जसधवल हिमालय में होने वाली यात्रा में पहुंचा। यहां तक कि मनोरंजन के साधन भी साथ ले गया। धार्मिक यात्रा में वर्जित चीजों को भी उसने नहीं छोड़ा।
अपनी राजसी ठसक के चलते उसने हिमालयी प्रकृति को रौंदने का दुस्साहस किया था। वह पर्यावरणीय नियमों की धज्जियां उड़ाता गया। हमारी लोककथायें बताती हैं कि उस राजा को हिमालयी पर्यावरण और पारिस्थितिकी को रौंदने का बड़ा दण्ड मिला। ऐसी आपदा आई कि राजा, उसका परिवार और उसकी सेना बर्फ में दफन हो गई। लोकश्रुतियों से पता चलता है कि तब हिमालय की रूपकुंड झील में अनगिनत लोग दबकर मारे गए थे। ऐसे लोकविश्वास हैं कि रूपकुंड झील में पाए जाने वाले वो नर कंकाल उसी भीषण हादसे की गवाही देते हैं।
इस लोककथा का जिक्र यहां इसलिए आ गया, क्योंकि अब राजाओं का ज़माना तो रहा नहीं, लेकिन लोकतांत्रिक पोशाक में उतरे उनके आधुनिक अवतारों ने भी इस संवेदनशील हिमालयी इलाके की मर्यादाओं, इसके नियम-कायदों को भंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। विकास के शिलापट लगाकर जगह-जगह आपदायें रोप दी गई हैं। उत्तराखंड से लेकर हिमाचल प्रदेश तक जिन त्रासदियों को कहीं प्राकृतिक आपदा तो कहीं दैवीय आपदा बताया जा रहा है, वे दरअसल संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र की मर्यादा को रौंदने का नतीजा हैं। ये आपदायें इंसानी लालचों की पैदाइश हैं।

ऐसा नहीं होता तो 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद से लेकर अब तक हमें आपदाओं से होने वाले नुकसान का न्यूनीकरण कर देना चाहिए था। क्योंकि तब बहुत बड़ी-बड़ी बातें हुई थीं। कई बड़े फैसले हुए थे। तगड़े आपदा प्रबंधन और अर्ली वार्निंग सिस्टम की बात हुई थी। नदियों के 200 मीटर इर्द-गिर्द निर्माण कार्यों पर पाबंदी लगा दी गई थी। लेकिन फिर हम देखते हैं कि अपने ही बनाए नियमों की खुद सरकार ने ही सबसे पहले धज्जियां उड़ा दी। उसने ऐसी जगहों पर पार्किंग वगैरह दूसरे निर्माण खड़े कर दिए। उसकी देखादेखी बाकी लोगों ने भी की और पहले से खतरे वाली जगहों पर आपदायें बो दी गईं, जबकि सबको पता है कि ये जगहें टाइम बॉम के ऊपर बैठी हैं।
उत्तरकाशी ज़िले के धराली में जो कुछ हुआ, उसकी चेतावनी तो मशहूर भूविज्ञानी डॉ. नवीन जुयाल ने दो साल पहले ही दे दी थी। लेकिन इन चेतावनियों को सुनता कौन है! ग्लेशियर वाली नदी के स्वाभाविक प्रवाह वाले इलाके में और पुराने भूस्खलन के मलबे के ऊपर धराली का बाजार फलता-फूलता गया और 5 अगस्त, 2025 को पूरी दुनिया ने देखा कि उसे कस्बाई बाजार को मटियामेट होने में महज कुछ ही सेकेंड लगे। इसीलिए केदारनाथ से लेकर धराली तक की इन आपदाओं को मानवजनित त्रासदी कहने वाले भी कम नहीं है। धराली में ऐसे फ्लश फ्लड का अतीत रहा है, लेकिन उसे अनदेखा कर दिया गया या होने दिया गया।

मुमकिन है कि ऐसे संवेदनशील इलाकों में बेतरतीब ढंग से व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ने के पीछे कई तरह के आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक दबाव हों या सिस्टम का ही अपना नकारापन हो। लेकिन इस आपदा के पांच महीने पहले ही जब देश के प्रधान इसी धराली की ठीक दूसरी पहाड़ी पर बसे मुखबा गांव में आकर इस नाजुक हिमालयी इलाके में बारामासी पर्यटन की हुंकार भरते हुए कहते हैं कि कोई भी सीजन ऑफ सीजन न हो। हर सीजन में टूरिज्म ऑन रहे तो फिर वह संदेश ऊपर से लेकर नीचे तक पहुंचता है।
इसी तरह के संदेशों से ताकत पाकर भूस्खलन के बरसों पुराने मलबे में धराली जैसे कस्बाई बाज़ार उग आते हैं। दुकानें सजाने वाले भूल जाते हैं कि हिमालयी नदी के रास्ते पर अपनी दुकान लगाकर बैठना कितना खतरनाक है। 2013 केदारनाथ की केदारनाथ आपदा, उसके बाद 2021 में रैणी-तपोवन की आपदा, 2023 में जोशीमठ की त्रासदी और अब 2025 में धराली, आपदाओं का ये मिजाज एक सा है। आपदाओं का ये मॉडल एक सा है। ये सब बड़े सबक भी हैं। इंसानों को वॉर्निंग देने का ये कुदरत का यह अपना तरीका है।
और इन आपदाओं की चर्चा तो इसलिए हो रही है, क्योंकि ये बड़े स्तर पर नोटिस हुई हैं। ये कैमरे पर रेकॉर्ड हुई हैं। धराली की चर्चाओं के बीच तो उत्तराखंड में ही पौड़ी से लेकर टिहरी तक जो आपदायें आई हैं, उनकी तो कहीं बात ही नहीं हो रही है। वे तो गिनती में ही नहीं हैं। यही नहीं, हिमाचल प्रदेश में मंडी के सिराज इलाके में जुलाई महीने की भीषण त्रासदी के जख्म अब भी हरे हैं, लेकिन सिर्फ उन लोगों के, जोकि इसकी सीधी चपेट में आए थे, जिनका सब कुछ उजड़ गया।
धराली की आपदा ने डिस्कोर्स बदल दिया है। कुछ दिनों तक इसी पर बात होगी, जैसे 2013 में केदारनाथ आपदा के समय हो रही थी। फिर अगली आपदा तक सब भूल जाएंगे। हम फिर हिमालयी लोकजीवन के कवि गिरीश तिवाड़ी‘गिर्दा’को याद करेंगे, जिन्होंने बरसों पहले अपनी कविता में चेताया था-
‘सारा पानी चूस रहे हो।
नदी-समंदर लूट रहे हो।
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो।
जिस दिन डोलगी ये धरती
सर से निकलेगी सब मस्ती
महल-चौबारे बह जाएंगे
खाली रौखड़ रह जाएंगे
बूंद-बूंद को तरसोगे जब
बोल व्यापारी तब क्या होगा।