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Home » तो मालेगांव के गुनहगार कौन

लेंस संपादकीय

तो मालेगांव के गुनहगार कौन

Editorial Board
Last updated: July 31, 2025 9:17 pm
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Malegaon Blast Case
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सत्रह साल पहले 29 सितंबर, 2008 को महाराष्ट्र में मस्जिद के नजदीक हुए बम धमाके के मामले में पूर्व भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल (रिटायर्ड) श्रीकांत पुरोहित सहित सभी सात आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया है और जैसी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे लगता नहीं कि फैसले को महाराष्ट्र और केंद्र की भाजपा की अगुआई वाली सरकारें हाई कोर्ट में चुनौती देंगी। इसके उलट महज आठ दिन पहले महाराष्ट्र सरकार ने 2006 में मुंबई में ट्रेन में हुए बम धमाके के मामले में सारे आरोपियों को बरी करने वाले हाई कोर्ट के फैसले को चौबीस घंटे के भीतर ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी थी। मालेगांव में हुए धमाके में छह लोगों की जान चली गई थी और करीब सौ लोग घायल हुए थे। आतंकी घटनाएं मानवता के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों में से एक हैं, लिहाजा इन्हें अंजाम देने वालों में किसी तरह का फर्क नहीं किया जा सकता और उन्हें किसी भी तरह बख्शा नहीं जाना चाहिए। जैसा कि मालेगांव धमाके के मामले में फैसला सुनाते हुए विशेष जज एक के लाहोटी ने कहा भी है, “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, क्योंकि कोई भी धर्म हिंसा की वकालत नहीं करता…फैसले नैतिकता और जन धारणाओं के आधार पर नहीं किए जा सकते।“ मगर जैसा कि आठ दिनों के भीतर आतंकी धमाकों पर आए दो फैसले दिखा रहे हैं, किस तरह फर्क किया जा रहा है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी हई और संविधान पर चलने वाली सरकारों की जितनी जिम्मेदारी अपने नागरिकों की हिफाजत को लेकर है, उतनी ही यह सुनिश्चित करने की भी है कि किसी निर्दोष को सजा न हो, और मानवता के खिलाफ अपराध करने वाले अभियोजन की तंग गलियों से बच न निकलें। जाहिर है, ऐसे मामलों में सरकारी अभियोजन की जिम्मेदारी सबसे अहम हो जाती है कि वह अदालत में मजबूत सबूतों के साथ निर्णायक परिणति तक पहुंचाएं। लेकिन जिस तरह से महाराष्ट्र और केंद्र में सरकारों के बदलने से मालेगांव के मामले में अभियोजन का रुख बदलता गया है, उससे यह मामला अदालत में जाकर कमजोर पड़ गया। एनआईए यह साबित ही नहीं कर सकी कि धमाके में इस्तेमाल की गई मोटर साइकिल प्रज्ञा सिंह की थी। इसी तरह से साजिश रचने के सबूतों से लैस सीडी भी अदालत में पेश किए जाने से पहले टूट गई थी। सवाल है कि सबूतों को किसने कमजोर किया? यह विडंबना ही है कि भाजपा के मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को यह फिक्र नहीं है कि इतने साल बाद आए फैसले से भी बम धमाके के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका है। इसके उलट वे इसे हिन्दुत्व की अपनी राजनीतिक जीत की तरह देख रहे हैं। मालेगांव के पीड़ितों की लड़ाई अभी बहुत लंबी है, जैसा कि उनके परिजनों ने कहा है कि वे इसे उच्च न्यायालय में चुनौती देंगे, जबकि यह काम तो चुनी हुई सरकारों का है और जैसा कि मुंबई के ट्रेन धमाकों के मामले में किया भी गया है।

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