रशीद किदवई
आज 27 जुलाई को ‘मिसाइलमैन’ डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को इस दुनिया से विदा हुए 10 साल पूरे हो रहे हैं। एक दशक बाद आज भी लोगों के मानस में ‘जनता का राष्ट्रपति’ वाली उनकी छवि ताजी है।

साल 2002 में सियासी समीकरण इतने उलझे हुए थे कि न तो सत्तारूढ़ भाजपानीत एनडीए और न ही कांग्रेसनीत विपक्षी गठबंधन के पास राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने के लिए पर्याप्त वोट थे। इस वजह से किसी एेसे चेहरे की तलाश थी, जिस पर दोनों पक्षों की सर्वसम्मति बन जाए। बताया जाता है कि इसी दौरान समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रपति भवन के लिए ‘सर्वसम्मत’ व्यक्ति के तौर पर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सुझाया। कुछ माह पहले ही गुजरात में भयावह दंगे हुए थे, जिसके घाव देश के मानस पर अब तक हरे थे और साम्प्रदायिक सद्भाव के मोर्चे पर वाजपेयी सरकार की प्रतिष्ठा सवालों के घेरे मंे थी। लिहाजा, जैसे ही कलाम का नाम सामने आया, अपनी उदार छवि मजबूत बनाने के इच्छुक वाजपेयी ने तुरंत ही यह मौका लपक लिया।
इस तरह जुलाई 2002 में देश को मिले एक ऐसे राष्ट्रपति, जो सच्चे मायनों में ‘जनता का राष्ट्रपति’ कहलाने के पात्र थे। एक प्रतिष्ठित रॉकेट वैज्ञानिक के तौर पर पहले से ही लोकप्रियता हासिल करने वाले कलाम राष्ट्रपति भवन में जाने के बाद आम जनमानस के बीच और भी मशहूर हो गए। उन्होंने राष्ट्रपति भवन में जाते ही स्पष्ट कर दिया था कि वे यहां केवल समय व्यतीत करने भर नहीं आए हैं।
दंगों के बाद किया था गुजरात का दौरा
राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बमुश्किल एक महीने बाद ही उन्होंने तत्कालीन एनडीए सरकार की सलाह को दरकिनार करके दंगाग्रस्त गुजरात का दौरा किया। राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद कलाम ने इस प्रसंग का उल्लेख अपनी किताब ‘टर्निंग पॉइंट्स: अ जर्नी थ्रू चैलेंजेज’ में किया था। कलाम के मुताबिक, वाजपेयी ने उनसे पूछा, ‘क्या आप इस समय गुजरात जाना जरूरी मानते हैं?’ इस पर कलाम ने प्रधानमंत्री से कहा, ‘मैं इसे एक प्रमुख कर्तव्य मानता हूं, ताकि लोगों का दुख-दर्द बांट सकूं। राहत कार्यों को कुछ गति दे सकूं और लोगों को मानसिक स्तर पर जोड़ सकूं, जो मेरा मिशन है और जिस पर मैंने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान अपने भाषण में जोर दिया था।’ कलाम ने गुजरात के 12 क्षेत्रों का दौरा किया। इनमें तीन राहत कैंप और नौ दंगाग्रस्त क्षेत्र थे, जहां काफी ज्यादा नुकसान हुआ था। उन्होंने अपनी किताब में लिखा कि एक राहत कैंप में एक छह साल का लड़का उनके पास आया और उनका हाथ पकड़कर बोला, ‘राष्ट्रपति जी, मुझे मेरे माता-पिता चाहिए। मैं नि:शब्द हो गया। उसी समय मैंने जिलाधिकारी के साथ बैठक की। मुख्यमंत्री ने भी मुझे आश्वस्त किया कि उस बच्चे की शिक्षा और देखभाल की पूरी जिम्मेदारी सरकार उठाएगी।’
संसद को लौटा दिया था सोनिया से संबंधित बिल
अपनी किताब में कलाम ने 2006 के ऑफिस ऑफ प्रॉफिट बिल को लेकर भी बात की। यह बिल कथित तौर पर सोनिया गांधी को रायबरेली की सांसद के रूप में अयोग्य ठहराने से बचाने के लिए लाया गया था। कलाम कहते हैं कि उन्हें ये विधेयक ‘निष्पक्ष और जरूरी’ नहीं लगा और उन्होंने इसे पुनर्विचार के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की जगह संसद को लौटा दिया। ये पहली बार था, जब किसी राष्ट्रपति ने लोकसभा और राज्यसभा के महासचिवों को कोई विधेयक लौटाया था। बाद में संयुक्त संसदीय समिति की समीक्षा से गुजरने के बाद उन्होंने इस पर हस्ताक्षर किए थे।
त्यागपत्र देने का कर लिया था फैसला
अक्टूबर 2005 में कलाम ने राष्ट्रपति के पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था। उन्होंने यह फैसला बिहार विधानसभा भंग होने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के विपरीत फैसले को ध्यान में रखते हुए लिया था। उस साल 23 मई को बिहार विधानसभा भंग करने के लिए राष्ट्रपति की अनुशंसा को शीर्ष अदालत ने असंवैधानिक और ‘दुर्भावनापूर्ण’ बताया था। अपनी किताब में कलाम ने लिखा, ‘जैसे ही मुझे फैसले की जानकारी मिली, मैंने इस्तीफा लिखकर और उस पर हस्ताक्षर करके उसे उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत को भेजने की तैयारी कर ली थी। इस बीच प्रधानमंत्री मुझसे किसी और मसले पर चर्चा करने के लिए आए। मैंने उन्हें इस्तीफा देने के अपने फैसले के बारे में बताया और वो पत्र भी दिखाया। उसके बाद जो हुआ, वह काफी मर्मस्पर्शी था और मैं उसकी व्याख्या नहीं करना चाहता। प्रधानमंत्री ने गुजारिश की कि मुझे इस मुश्किल वक्त में ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे जो आक्रोश पैदा होगा, उससे सरकार भी गिर सकती है।’
कलाम के मुताबिक, ‘बाद के 24 घंटे मेरे लिए बेहद मुश्किल भरे रहे। उस रात मैं सो नहीं पाया। खुद से पूछता रहा कि मेरी अंतरात्मा ज्यादा जरूरी है या देश। अगले दिन हमेशा की तरह मैंने सुबह की नमाज पढ़ी। फिर सरकार को मुश्किल में न डालने की मंशा से इस्तीफे देने का फैसला वापस ले लिया।’
हकीकत में बदल गई थी उनकी वो इच्छा!
डॉ. कलाम राष्ट्रपति बनने से काफी पहले एक दिन बतौर मेहमान राष्ट्रपति भवन पहुंचे थे। उनके मेजबान थे तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन। उनके साथ बातचीत करने के दौरान ही कलाम की नजर खिड़की से बाहर के नजारे पर पड़ी तो वो मंत्रमुग्ध रह गए। उनकी आंखों के सामने मुगल गार्डन का मनोरम दृश्य था। वो बुदबुदाए, ‘काश! मैं पूर्णिमा की रात इस मुगल गार्डन में टहल पाता।’ जब मेजबान नारायणन के कानों मंे वे शब्द पड़े तो थोड़े अचंभित हुए। फिर थोड़ा रुककर बोले, ‘जरूर, आप किसी पूर्णिमा की रात को यहां आ सकते हैं। आपका स्वागत रहेगा।’ उस समय न नारायणन को अंदाजा था और न ही स्वयं कलाम को कि वे इसी भवन में लौटेंगे, लेकिन सिर्फ पूर्णिमा की एक रात के लिए नहीं, बल्कि पूरे पांच साल के लिए।
अंतिम समय में भी अपने पसंदीदा मिशन पर थे …
27 जुलाई 2015 की शाम को जिस समय डॉ. कलाम का देहांत हुआ, उस समय भी वे अपने सबसे पसंदीदा मिशन यानी युवाओं को प्रेरित और प्रोत्साहित करने के काम में लगे हुए थे। वे भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) शिलॉन्ग में लेक्चर दे रहे थे। इस समय करीब डेढ़ सौ छात्र उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे थे। लेक्चर के दौरान ही हृदय गति रुक जाने से वे गिर पड़े और उनका निधन हो गया।
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