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लेंस संपादकीय

एक रुकी हुई संसद

Editorial Board
Last updated: July 25, 2025 7:53 pm
Editorial Board
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Parliament session
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संसद के मानसून सत्र का पहला हफ्ता जिस तरह हंगामे में धुल गया, न तो वह अप्रत्याशित है और न ही अनोखा। संसद के मौजूदा गतिरोध को देख कर भाजपा के दो दिवंगत नेताओं सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की टिप्पणियों को याद किया जा सकता है। यूपीए के कार्यकाल के दौरान 2012 में लोकसभा में विपक्ष की नेता स्वराज ने कहा था, संसद को नहीं चलने देना भी लोकतंत्र का एक रूप है। इसी तरह तब राज्यसभा में विपक्ष के नेता जेटली ने कहा था, संसदीय अवरोध अलोकतांत्रिक नहीं है। लेकिन वास्तव में लोकतंत्र की खूबसूरती तो इसी में है कि संसद में स्वस्थ और जिंदादिल बहसें हों। ऐसी बहस, जिसकी गूंज से संसद से सड़क तक सुनाई दे। लोहिया तो कहते थे कि जब सड़कें सूनी हो जाती हैं, तो संसद आवारा हो जाती है! चाहे तो विपक्ष लोहिया की इस सीख पर अमल में ला सकता है, बशर्ते की वह अपनी लड़ाई संसद से सड़क तक ले जाने के लिए तैयार हो? वैसे बुनियादी तौर पर देखा जाए, तो संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सरकार और विपक्ष दोनों की होती है, लेकिन इसमें सरकार के प्रबंधकों की अहम भूमिका होती है, जो इस सरकार में कहीं नजर नहीं आते। इसके उलट गतिरोध के लिए सरकार के मंत्री विपक्ष पर दोषारोपण कर रहे हैं। अच्छा तो यह होता कि मानसून सत्र की शुरुआत में ही सरकार साफ कर देती कि वह ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के लिए तैयार है। हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि इस चर्चा में प्रधानमंत्री मोदी खुद भी हिस्सा लेंगे। यह अंदेशा इसलिए हो रहा है, क्योंकि संसदीय कार्यमंत्री किरण रिजिजू ने कहा है कि सरकार यह तय नहीं कर सकती कि विपक्ष से कौन बोलेगा। इसी तरह विपक्ष तय नहीं कर सकता कि सरकार की ओर से कौन बोलेगे।
दरअसल मौजूदा गतिरोध की एक वजह ही यही है कि विपक्ष चाहता है कि प्रधानमंत्री ऑपरेशन सिंदूर और खासतौर से अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाने के दावे पर स्थिति स्पष्ट करें। वास्तविकता यह है कि पहलगाम के आतंकी हमले और उसके बाद किए गए ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के बाद सरकार और विपक्ष में बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण का मुद्दा गरमा सकता है। सरकार ने अब तक साफ नहीं किया है कि वह इस पर चर्चा के लिए तैयार है। इस पर बहस तब और जरूरी हो जाती है, जब एनडीए के अहम घटक तेलुगू देशम ने भी एसआईआर पर अपनी आशंकाएं जताई हैं। लाख टके का सवाल तो यही है कि देश की नागरिकता तय करने जैसे अहम मुद्दे पर संसद में बहस नहीं होगी तो और कहां होगी?

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