- सुदीप ठाकुर
अभी सोशल मीडिया में एक टीवी चैनल के पत्रकारों की राहुल गांधी पर चल रही चर्चा से जुड़ी एक रील वायरल है। चर्चा के दौरान एक पत्रकार ने कहा, राहुल गांधी कभी भी अपने साथ पेन नहीं रखते। आज मोबाइल फोन के जमाने में लोगों की कमीज के सामने वाली जेबों में लगी रहने वाली पेन यूं ही गायब है, ऐसे में यह कोई बड़ी बात तो नहीं लगती कि राहुल गांधी अपने साथ पेन नहीं रखते। फिर वह पत्रकार यह कहते हुए नजर आता है कि आपने गौर किया होगा कि राहुल यहां तक कि संसद के भीतर भी पेन नहीं रखते, जबकि वहां उन्हें हाजिरी लगाने वाले रजिस्टर पर दस्तखत भी करने होते हैं।
उस पत्रकार का कहना है कि राहुल गांधी से जब पत्रकारों ने इस बारे में एक बार पूछा था, तो उनका कहना था, “मेरे लिए पेन सिंबल ऑफ अथारिटी है। जीवन भर मैंने देखा है, मेरे घर में या जो अन्य प्रधानमंत्री हुए हैं, वे दिल्ली में बैठे-बैठे चिकमंगलूर, पुरुलिया या लद्दाख में बैठे व्यक्ति के जीवन का फैसला कर देते हैं।“
राहुल का संसदीय जीवन अब 21 साल से अधिक का हो गया है। 2004 में वह पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए थे और उस चुनाव के बाद कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सत्ता में आया था। राहुल 11 साल से विपक्ष में हैं और 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद से तो वह लोकसभा में विपक्ष के नेता भी हैं।
इस बीच, साल-डेढ़ साल से राहुल का एक नया रूप देश के सामने आया है, जब वह सार्वजनिक सभाओं और प्रेस कॉन्फ्रेंस तक में संविधान की एक प्रति लिए नजर आते हैं। यहां तक कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद संसद के पहले दिन 24 जून, 2024 को भी वह कांग्रेस के अन्य सांसदों के साथ ईस्टर्न बुक कंपनी की लाल कवर वाली संविधान की किताब लिए नजर आए। इसके अगले दिन 25 जून को जब उन्होंने लोकसभा के सदस्य के रूप में शपथ ली, तब भी उनके एक हाथ में लाल कवर वाली संविधान की किताब थी।
पेन को ताकत का प्रतीक मानकर अपने पास न रखना और संविधान को अपनी ताकत बताना, यह राहुल गांधी की सियासत है, लेकिन इसमें विरोधाभास भी देखा जा सकता है। इस विरोधाभास को संविधान निर्माता बी आर आंबेडकर के बरक्स रख कर देखा जा सकता है। आंबेडकर ने पेन या कलम को दलितों और वंचितों के लिए ताकतवरों से लड़ने का प्रतीक बनाया था।
दलित (महार) जाति में पैदा हुए आंबेडकर ने बचपन में उत्पीड़न झेला था। बाद में लंदन और अमेरिका में उच्च शिक्षा हासिल कर भारत लौटने पर उन्होंने एक वकील के रूप में अपना करिअर शुरू किया था। थ्री पीस सूट, टाई और बूट उनकी पहचान बन गई। तस्वीरें देखी जा सकती हैं, जिनमें उनकी कोट की जेब में कलम नजर आती है। यहां तक कि देश के विभिन्न शहरों, कस्बों, गांवों में जहां भी आंबेडकर की मूर्तियां लगी हुई हैं, उनमें वे थ्री पीस सूट बूट टाई में नजर आते हैं और उनकी कोट की जेब में कलम टंगी होती है। अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़ाई के दौर में आंबेडकर भारत की सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों के खिलाफ भी लड़ रहे थे, जिसकी वजह से खासतौर से दलितों के साथ अश्पृश्यता का व्यवहार किया जाता था।
ध्यान रहे, अंबेडकर के पिता कैशियर थे और जाहिर है कि वह आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध न सही, लेकिन विपन्न नहीं थे। उन्हें जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ा, वह उनकी आर्थिक हैसियत के कारण नहीं, बल्कि महार जाति का होने के कारण थीं। इसे समझने के लिए आंबेडकर की किताब वेटिंग फॉर ए वीज़ा में दर्ज 1901 के एक वाकये का जिक्र किया जा सकता है। आंबेडकर की मां का निधन हो चुका था। पिता कोरेगांव में कैशियर थे। भीम राव अपने एक भाई और अपनी एक दिवंगत बहन के दो बेटों के साथ एक रिश्तेदार की देखरेख में सतारा में रहते थे। छुट्टियों में जब पिता ने इन बच्चों को अपने पास बुलवाया तो उन्हें वहां भेजने के लिए उत्साह से तैयारियां की गईं।
आंबेडकर लिखते हैं, “उन्हें अंग्रेजों जैसी नई शर्ट, चमकीले बैज वाली टोपियां, नए जूते और सिल्क की किनारी वाली धोतियां दिलाई गईं। वह लिखते हैं, हमें बताया गया था कि हमें मसूर स्टेशन पर उतरना है और वहां से खुद पिता या उनका कोई साथी कोई लेने आएगा। स्टेशन से कोरेगांव दस मील दूर था। ट्रेन शाम पांच बजे पहुंची, लेकिन उन्हें कोई लेने नहीं आया। सारे यात्री जा चुके थे। वह लिखते हैं कि हम चारों अच्छे कपड़े पहने हुए थे। हमारे कपड़ों या हमारी बातों से कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था कि हम अस्पृश्य बच्चे हैं।“
इसके बाद आंबेडकर ने जो दर्ज किया वह वह यह समझने के लिए काफी है कि दलितों की उस समय क्या स्थिति थी। काफी देर बाद स्टेशन मास्टर की नजर उन पर पड़ी, उसे भरोसा था कि हम ब्राह्मण बच्चे हैं और उसे हमारी तकलीफ से दुख हुआ। लेकिन जैसे ही उसे पता चला कि हम महार हैं, तो वह पहले तो हिचका लेकिन बाद में उसने बैलगाड़ी का इंतजाम करवाया। इसमें भी मुश्किल आई, क्योंकि कोई बैलगाड़ी वाला भी उन्हें ले जाने को तैयार नहीं था। आखिरकार एक बैलगाड़ी वाला तैयार हुआ भी तो इस शर्त पर कि बैलगाड़ी को इन बच्चों को हांकना था और वह साथ–साथ पैदल चलता, ताकि उसका धर्म भ्रष्ट न हो!
जाहिर है, बचपन की इस घटना का आंबेडकर पर सारी जिंदगी प्रभाव पड़ा। लिहाजा आंबेडकर का परिधान वर्ण व्यवस्था के खिलाफ दलित चेतना का भी प्रतीक था। इसका खासा प्रभाव उनके करोड़ों अनुयायियों भी देखा जा सकता है। खासतौर से विदर्भ या उन जगहों में जहां दलित स्कॉलर हैं, वे सूट-बूट और टाई में नजर आते हैं। कलम उनके लिए सबलीकरण का प्रतीक है।
यदि राहुल पर चर्चा करने वाले पत्रकारों की बातों को थोड़ा विस्तार में समझें, तो लगता है कि वह कलम को सामंतशाही का प्रतीक मानते हैं। सामंतीशाही शायद ज्यादा कठोर शब्द लगे, लेकिन सत्ता या अफसरशाही का प्रतीक तो मानते ही हैं।
1990 के दशक में उभरे बहुजन चिंतक कांशीराम ने कलम को लेकर अपना एक अलग नजरिया पेश किया था और उसे भारतीय व्यवस्था में विभिन्न वर्गों की हिस्सेदारी के रूप में परिभाषित किया था। कांशीराम खुद अक्सर नीले रंग की बुशशर्ट में नजर आते थे और उनकी जेब में एक कलम लगी होती थी। यह कलम उनकी सियासत का प्रतीक थी।
कांशीराम अक्सर कहते थे कि कलम की असली ताकत उसकी स्याही में होती है। कलम का कवर न हो तो भी वह लिखती रहेगी। वह कहते थे कि कलम का 85 फीसदी हिस्सा काम करता है, लेकिन ताकत 15 फीसदी के पास होती है। यह 15 फीसदी कलम का कवर है। राहुल गांधी को कलम की ताकत के बारे में अभी आंबेडकर और कांशीराम से काफी कुछ सीखने की जरूरत है और वह जानते ही होंगे कि बदलाव कलम से ही आता है।