समुद्र के किनारे के शहरों में रहने का अलग ही आनंद है, लेकिन तटीय शहरों में बढ़ती आबादी अब वहां की जमीन के लिए संकट पैदा कर रही है। जितनी ज्यादा आबादी उनता ही अधिक भू जल दोहन। जिस कारण से तटीय इलाकों की धरती धंस रही है। साथ ही समुद्र के बढ़ते भूजल स्तर का दोहरा खतरा भी मंडरा रहा है। भारत के तटीय शहर कोलकाता, चेन्नई, सूरत और मुंबई में मिट्टी धंसने की दर प्रति वर्ष 17 से 26 मिमी तक मापी गई है। यह खुलासा एक ताजे शोध में हुआ है।

सिंगापुर की नानयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी (एनटीयू) के शोध ‘सी-लेवल राइज फ्रॉम लैंड सब्सिडेंस इन मेजर कोस्टल सिटीज’ के मुताबिक, 2014 से 2020 तक विश्व के 24 तटीय शहर हर साल न्यूनतम 1 सेंटीमीटर की दर से धंस रहे हैं। यह अध्ययन प्रकृति सस्टेनेबिलिटी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
शोध में पाया गया कि भूजल के अत्यधिक दोहन से मिट्टी की संरचना कमजोर हो रही है जिससे कोलकाता, चेन्नई और मुंबई जैसे शहरों में जमीन धंसाव की दर बढ़ गई है। यह धंसाव समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के साथ मिलकर भविष्य में बाढ़ और जलवायु परिवर्तन के जोखिम को बढ़ा सकता है।
जोखिम में 7.6 करोड़ लोग
एनटीयू ने एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका के 48 तटीय शहरों में भू-धंसाव का अध्ययन किया। इन शहरों में लगभग 7.6 करोड़ लोग रहते हैं। इन 48 में से 44 शहरों में मिट्टी धंसाव की दर वैश्विक औसत (3.7 मिमी/वर्ष) से ज्या7दा पाई गई है। एशिया के जकार्ता और मनीला सहित कई शहरों में तो यह दर 16 मिमी/वर्ष तक रिकॉर्ड की गई है। यह स्थिति बाढ़ या खारे पानी के ज़मीन में घुसने जैसी पर्यावरणीय समस्याओं को और भी गंभीर बना रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इस समस्या पर तुरंत कार्रवाई नहीं की गई, तो इन शहरों में रहने वाली आबादी और बुनियादी ढांचे को गंभीर नुकसान हो सकता है। शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि भूजल उपयोग को नियंत्रित करना और टिकाऊ विकास नीतियों को अपनाना जरूरी है। साथ ही, इस अध्ययन के डेटा का उपयोग करके तटीय क्षेत्रों में जोखिम का सटीक आकलन और भविष्य की रणनीति बनाई जा सकती है।

जमीन धंसने से प्रभावित भारतीय आबादी कितनी
भारत की लंबी समुद्री सीमा और तटवर्ती शहरों में बढ़ती आबादी जलवायु परिवर्तन के खतरों की ओर इशारा कर रही है। 2014 से 2020 के बीच के आंकड़ों के आधार पर मुंबई महानगर में जमीन हर साल औसतन 2 से 8 मिलीमीटर तक धंस रही है। इस कारण मानसून के समय और ऊंची ज्वार के दौरान शहर में जलभराव और बाढ़ जैसी समस्याएं आम हो गई हैं। इससे करीब 62 लाख लोग प्रभावित हो रहे हैं।
वहीं बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा चेन्नई तटीय कटाव और चक्रवातों की चपेट में रहता है। बढ़ते शहरीकरण और मैंग्रोव जंगलों की कटाई ने प्राकृतिक सुरक्षा को कमजोर किया है। यहां की जमीन 5 से 7 मिलीमीटर प्रति वर्ष की दर से धंस रही है, जिससे आपदाओं का खतरा बढ़ गया है। चेन्नई महानगरीय क्षेत्र की आबादी 86 से अधिक है।
तापी नदी के किनारे बसा सूरत शहर समुद्री तूफानों और ज्वार-भाटे से प्रभावित रहता है। यहां जमीन का धंसने की सालाना दर 4-6 मिमी है। यहां निचले इलाकों में जलभराव का कारण बन रहा है, जिससे लोगों के विस्थापन का खतरा बढ़ रहा है।
कोच्चि, मंगलौर, विशाखापत्तनम और तिरुवनंतपुरम में जमीन धंसने की सालाना दर 2-4 मिमी है। अगर यही हाल रहा तो 2050 तक इन शहरों के कुछ हिस्से डूब सकते हैं। सूरत की आबादी करीब 44 लाख है।
तटीय क्षेत्र न होने के बावजूद उत्तराखंड का जोशीमठ जमीन धंसने की गंभीर समस्या से जूझ रहा है। कमजोर पहाड़, भूगर्भीय संरचना और अंधाधुंध निर्माण के कारण इमारतों में दरारें पड़ रही हैं और लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं।