पिछले कई दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई चुनावी रैली बिहार में हुई है। इसमें अधिकांश रैली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी मंच साझा और रोड शो किए हैं। वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र सोशल मीडिया पर लिखते हैं कि अब बिहार में पीएम नरेंद्र मोदी की रैलियों में भीड़ नीतीश कुमार की वजह से जुट रही है। जिस रैली में नीतीश कुमार का सिस्टम एक्टिव नहीं होता, वहां भीड़ नहीं जुट पाती।
हिंदी पट्टी के लगभग सभी राज्यों में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी है या बनाई हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी लहर और हिंदुत्व के चरम उभार के दौर में भी हिंदी पट्टी राज्य बिहार में भाजपा को गठबंधन का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है? क्या इस चुनाव में अपने दम पर बिहार में भाजपा सरकार बना सकेगी?

मीडिया की भाषा में बिहार को धर्मनिरपेक्षता का गढ़ माना जाता है। इसके बावजूद धर्म की राजनीति करने वाली पार्टी बीजेपी का गठबंधन एनडीए पिछले 25 वर्षों से बिहार में लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव जीतते आ रहा है। इसके बावजूद हिंदी पट्टी का यह इकलौता राज्य है, जहां भाजपा न कभी अकेले सरकार बना पाई, न ही उसका मुख्यमंत्री बन सका।
2025 के विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा के कई नेता के अलावा जनसुराज्य पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर कई बार इस बात को कह चुके हैं कि इस पर भाजपा का मुख्यमंत्री बनेगा। लेकिन, अब 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही भाजपा और जदयू दोनों अलग-अलग चुनाव की तैयारी कर रही हैं। दोनों के पोस्टर भी अलग-अलग रहे हैं। दोनों के पोस्टर में एक ही चीज कॉमन है, और वो है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तस्वीरें। मतलब साफ है कि बीजेपी बिहार में अपना मुख्यमंत्री चाहती जरूर है, लेकिन नीतीश कुमार के मुकाबले अब तक किसी को खड़ा नहीं कर सकी है।

बिहार के पत्रकार रोशन शर्मा कहते हैं कि, ‘बिहार चुनाव से पहले जदयू के प्रदेश कार्यालय में सीएम नीतीश और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो एक साथ लगी हुई है। इससे पहले नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री की तस्वीर एक साथ 2013 में लगी थी, जिसके बाद नीतीश कुमार नाराज हो गए थे और बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ था। लेकिन, इस बार ये तस्वीर नीतीश कुमार के साथ प्रधानमंत्री की लगाई गई है। इससे यह साबित होता है कि बिहार में किसी एक चेहरे पर एनडीए अब चुनाव नहीं जीत सकती। लिहाजा सभी तस्वीरों में और पोस्टरों में नीतीश कुमार के साथ प्रधानमंत्री की तस्वीर भी लगाई गई है।’
अन्य राज्यों की तुलना में संघ कमजोर
हिंदुत्व के राष्ट्रीय उभार के बीते एक दशक में भाजपा के लिए अन्य राज्यों के मॉडल की तरह बिहार का कोई मॉडल क्यों नहीं बन सका? इस सवाल के जवाब पर वरिष्ठ पत्रकार राजेश ठाकुर कहते हैं कि, ‘देश में कम्युनिस्ट आंदोलन के दौर में बिहार में कई जातीय हिंसा हुई है। समाजवाद इसी राज्य से पनपा है। सीमांचल क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो किसी भी क्षेत्र में मुस्लिम बाहुबल देखने को कम मिलता है। 90 के बाद का पूरा राजनीति ही जातीय संघर्ष पर निर्भर रहा है। इसका असर आज भी बिहार की राजनीति में देखने को मिलता है। भाजपा का लोकसभा चुनाव में जितना असर रहता है, उतना विधानसभा चुनाव में नहीं रहता है।’

माखनलाल विश्वविद्यालय से पढ़े रजनीश पिछले कई वर्षों से बिहार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं। रजनीश बताते हैं कि, ‘मैंने मध्य प्रदेश में भी कई दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए काम किया है। वहां की तुलना में बिहार काफी पीछे है। सीमांचल और राजधानी पटना के क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो अन्य क्षेत्रों में संघ की पकड़ काफी कमजोर है।’
संघ में काम कर रहे संदीप (बदला हुआ नाम) के मुताबिक 2014 के बाद संघ ने अपनी जमीन बिहार में भी बनाई है। लेकिन, आपको ताज्जुब होगा कि भाजपा की सहयोगी पार्टी जदयू और लोजपा भी नहीं चाहती कि यहां आरएसएस मजबूत हो। भाजपा में रहने के बावजूद जदयू पार्टी मुसलमान की राजनीति काफी मजबूती से करती रही है।
गौरतलब है कि 2019 में भाजपा-जदयू गठबंधन के वक्त राज्य सरकार के गृह मंत्रालय ने आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों और उसके अधिकारियों की जानकारी इकट्ठा करने का आदेश जारी किया था। इस जानकारी का बाद में क्या हुआ, कहीं कोई खबर नहीं है।
आंकड़ों से समझिए पूरी कहानी
शुरुआत 2004 के लोकसभा चुनाव से करते हैं। इस चुनाव में एनडीए ने 9 सीटें जीती, जिसमें भाजपा को 5 सीटें मिली थीं। फिर 2009 के लोकसभा चुनाव में एनडीए 32 सीटों पर चुनाव जीती, जिसमें भाजपा सिर्फ 12 सीटों पर जीती थी। फिर 2014 मोदी लहर में एनडीए ने पिछली चुनाव से 01 सीट कम यानी 31 सीटें जीतीं, हालांकि भाजपा बढ़कर 22 पर पहुंच गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बढ़त बनाते हुए 39 सीटों पर जीत हासिल की, वहीं भाजपा सभी 17 सीटों पर चुनाव जीत गई। 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए 30 सीट जीत पाई, जिसमें भाजपा 12 सीट पर जीती।

अब बात विधानसभा चुनाव की करते हैं। भाजपा पार्टी के स्थापना के ठीक बाद भाजपा को 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में 234 में से 16 सीटें मिली थीं। 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 237 सीटों में से 39 सीटें एवं 1995 में भाजपा 315 सीटों में से 41 सीटें जीत पाई। 2000 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 168 में से 67 सीटें हासिल हुईं। वर्ष 2005 में क्रमशः हुए दो चुनाव में भाजपा 103 में से 37 सीटें और 102 में से 55 सीटें जीतीं। नीतीश कुमार के चेहरा पर लड़ा गया। 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 102 में से 91 सीटें जीती थीं। 2015 के विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटों पर लड़ने के बावजूद भाजपा को सीटें बहुत कम मिलीं थीं, क्योंकि इस चुनाव में वह जदयू से अलग होकर चुनाव लड़ी थी। भाजपा को 157 सीट में से केवल 53 सीटें मिली थीं। 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 74 सीटें जीती थीं।
बिहार में हुए पिछले लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव नतीजों के आंकड़े से स्पष्ट होता है कि भाजपा बिना किसी सहयोगी पार्टी के बिहार के असेंबली चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। वहीं विधानसभा चुनाव में लोकसभा की तुलना में खराब स्थिति रहती है।
बिहार भाजपा में गुजराती राजनीति
बिहार राजनीति में पिछले कई वर्षों में संघ की भूमिका काफी मजबूत रही है। संघ से जुड़े विजय सिन्हा को उपमुख्यमंत्री और नंदकिशोर यादव को स्पीकर बनाने में संघ का महत्वपूर्ण योगदान है। इसके बावजूद संघ और भाजपा के पास कोई सर्वस्वीकृत चेहरा बिहार में नहीं है। नामचीन ब्लॉगर और प्रोफेसर रहे रंजन ऋतुराज बताते हैं कि, ‘आम लोगों की राजनीति जाति और धर्म के आधार पर होती है। भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी में क्षेत्र के आधार पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है। बिहार और यूपी के नेताओं का कद बड़ा होना इस बात का संकेत देगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी यहीं से बनेगी। भाजपा के सबसे ताकतवर मंत्री को सम्राट चौधरी को वित्त और वाणिज्य जैसा सुस्त मंत्रालय मिलना इस बात का संकेत है। एक योगी का बढ़ता कद ही दिल्ली वालों के लिए खतरा हो चुका है।’
एक बड़ी पार्टी के लिए पीआर का काम कर चुके परमवीर सिंह कहते हैं कि, ‘बिहार में जातीय समीकरण इस तरह बना हुआ है कि भाजपा और राजद दो ध्रुव हैं, हालांकि नीतीश कुमार की पार्टी के बिना कोई भी पार्टी सत्ता तक नहीं पहुंच पा रही है। नीतीश की पार्टी का दूसरे पार्टी के साथ गठबंधन जरूरी है।’
:: लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ::
यह भी पढ़ें : मोदी की रैली में नीतीश की ताकत!