हिंदी की प्रसिद्ध कहावत है- ‘करे कोई, भरे कोई।’ मतलब, अपराध या गड़बड़ी कोई और करे, लेकिन सजा या परिणाम, किसी और को भुगतना पड़े। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के साथ यही हो रहा है।

पीडब्ल्यूडी ने पहले भोपाल में 90 डिग्री का पुल बनाकर राज्य की बदनामी कराई और अब इंदौर में ‘जेड’ (Z) आकार का पुल बनाने का मामला सामने आ गया है। इस पुल में तो 90 डिग्री (समकोण) के दो मोड़ बना दिए गए हैं। जाहिर है, पुल कोई दो दिन में तो बन नहीं जाते। यादव के पूर्ववर्ती शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में पुलों की डिजाइन बनी और निर्माण शुरू हुआ, लेकिन ‘समकोण’ वाले इन पुलों का ‘अपयश’ मोहन यादव के खाते में जा रहा है। दिक्कत यह है कि इसे किसी से कह भी नहीं सकते, घर की बात जो ठहरी। और फिर, अभी तो शुरुआत है। यादव को कुल जमा डेढ़ साल हुआ है। शिवराज तो 17 साल सीएम रहे। न जाने कितने ‘कोणों’ में पुल-पुलिया बने होंगे। कहां-कहां, क्या-क्या हुआ होगा। मीर तकी मीर का शेर है- ‘इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या।’
ये रिश्ता क्या कहलाता है…
लेकिन, इस मामले में ‘करे कोई, भरे कोई’ कहावत लागू नहीं होती। यह तो सीधे-सीधे मोहन सरकार से जुड़ा गंभीर मामला है और यह दिखाता है कि जमीन पर चल क्या रहा है? क्या शिवराज सिंह चौहान की विदाई के बाद प्रशासन के रवैये में कोई बदलाव आया है, सुधार हुआ है या चीजें बद से बदतर हो गई हैं? दरअसल, उज्जैन, जो मुख्यमंत्री का गृह नगर है, में महाकाल बाबा के मंदिर के पास निर्माणाधीन एक भवन को दो दिन पहले बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया।

नगर निगम, जिसका कहना है कि यह अवैध निर्माण था, ने प्रशासन और पुलिस की उपस्थिति में यह कार्रवाई की। यह भवन किसी होटल के लिए बनाया जा रहा था और इसकी दो मंजिलें खड़ी हो चुकी थीं। सवाल है कि जब यह अवैध निर्माण शुरू हुआ था, इसकी नींव खोदी जा रही थी या पिलर के लिए सरिया बांधा जा रहा था, या जब पहली छत पड़ रही थी, तब नगर निगम अथवा सरकार की संबंधित एजेंसियां क्या कर रही थीं? उन्होंने रोका क्यों नहीं? क्यों होने दिया निर्माण? आखिर, रातोरात तो बिल्डिंग तनकर खड़ी हुई नहीं होगी। और फिर, किसी गली-कूचे में नहीं, महाकालेश्वर मंदिर जाने वाले मार्ग पर बन रही थी। पन्ना-छतरपुर का मामला होता तो भी एक मर्तबा समझ आता, लेकिन 13 दिसंबर 2024 के बाद उज्जैन में भला कोई अवैध काम कैसे जारी रह सकता है? क्या इतनी सी बात भूल गए अफसर या मशीनरी? क्या उन्हें नहीं मालूम कि उज्जैन में अगर कोई गड़बड़ होगी तो वो किसके खाते में जाएगी? या फिर, उनको पता चल गया है कि इंदौर के मामले में कैलाश विजयवर्गीय कुछ नहीं बोलेंगे और नगर निगम के मामले में मोहन यादव?
टोना टोटका और ‘सीएमओ’



मालूम नहीं कोई टोना टोटका करके गया है या कुछ और कारण है, पर मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) में अफसर टिक नहीं पा रहे। जबकि, आमतौर पर माना यह जाता है कि नतीजे हासिल करने के लिए अफसर को थोड़ा वक्त मिलना चाहिए। लेकिन, पिछले डेढ़ साल में मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने अपने खुद के दफ्तर (सीएमओ) में इतने अधिकारी बदल दिए हैं कि राज्य मंत्रालय के भीतर और बाहर, मामला समझ से बाहर होता जा रहा है। अतिरिक्त मुख्य सचिव राजेश राजौरा को हटाकर नीरज मंडलोई को लाने के बाद से इस मुद्दे पर चर्चा और तेज हो गई है। कहा जा रहा है कि सीएमओ में राजौरा की मौजूदगी से मुख्य सचिव अनुराग जैन असहज महसूस कर रहे थे। कुछ लोग इस परिवर्तन को पीएचई मंत्री संपतिया उईके के मामले से जोड़कर भी देख रहे हैं, जिनके खिलाफ कथित तौर पर 1000 करोड़ रुपये का कमीशन लेने की शिकायत की जांच शुरू कर दी गई थी। हालांकि एसीएस राजौरा तो फिर भी डेढ़ साल टिक गए, मगर प्रमुख सचिव और सचिव स्तर के ज्यादातर अधिकारी ‘सीएमओ’ में ज्यादा वक्त नहीं बिता सके। इस सूची में राघवेंद्र सिंह, संजय शुक्ला, विवेक पोरवाल, भरत यादव, अवनीश लवानिया, अंशुल गुप्ता, अदिति गर्ग सहित आईएएस और आईपीएस के कई और नाम भी हैं। कुलमिलाकर, ‘सीएमओ’ की वैसी धमक नहीं बन पा रही है, जैसी पूर्व मुख्यमंत्रियों के जमाने में देखने-सुनने को मिलती थी।
एसीएस की नई परंपरा
मुख्यमंत्री मोहन यादव के कार्यकाल में एक नई परंपरा शुरू हुई है, और वो है ‘सीएमओ’ में अतिरिक्त मुख्य सचिव (एसीएस) की पोस्टिंग। वर्ष 2000 के पहले संयुक्त मध्यप्रदेश के वक्त भी सीएमओ में सचिव स्तर का अधिकारी पदस्थ किया जाता था। शुरू से यही परंपरा चली आ रही थी, लेकिन फिर इसे अपग्रेड कर प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को पोस्ट किया जाने लगा। यादव के आने के बाद अब एसीएस की पोस्टिंग होने लगी है। नीरज मंडलोई भी एसीएस हैं, जिन्हें राजौरा के स्थान पर पदस्थ किया गया है। व्यवहार-बोलचाल में एक और जो नया काम हो रहा है, वो है- ‘मुख्यमंत्री कार्यालय’ की बजाय ‘मुख्यमंत्री सचिवालय’ का इस्तेमाल। जबकि, नियमों में इसका कहीं प्रावधान नहीं है।
आप हमसे कहो, हम आपसे कहेंगे

स्कूल शिक्षा विभाग के सचिव डॉ. संजय गोयल कई बार अपने ऊपर काबू नहीं रख पाते। भावावेश में वो भी बोल जाते हैं, जो उनके लिए परेशानी का कारण बन जाता है। पिछले दिनों उन्होंने विभाग की एक बैठक में अधिकारियों के समक्ष मंत्री राव उदय प्रताप सिंह को लेकर एक टिप्पणी कर दी। जाहिर है, खबर मंत्री जी तक पहुंची, तो उन्होंने गोयल से बात की और समझाया कि मुझसे कोई दिक्कत है तो मुझे ही कहिए, सार्वजनिक रूप से कहना शोभा नहीं देता। और, अगर मुझे कोई परेशानी होगी तो मैं आपसे ही कहूंगा, पब्लिक में नहीं। वैसे साफ सुथरी छवि के संजय गोयल अपनी खास कार्यशैली के लिए जाने जाते हैं। नीमच में कलेक्टर रहते उन्होंने एक मंत्री जी के नियम विरुद्ध फैसले पर कड़ा रुख अपनाया था और दबाव में नहीं आए थे।
जीतू ने कर दिया मोहन का काम

यों देखा जाए तो दूसरे नेताओं को शिवराज सिंह चौहान से यह सीखने की जरूरत है कि ‘अपना निर्वाचन क्षेत्र’ किस तरह नर्चर किया जाता है। लेकिन, शिवराज एक हफ्ते में दूसरी बार खिवनी वन्य अभयारण्य में बसे आदिवासियों के बीच क्या पहुंचे, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी ने कह दिया कि चौहान मध्यप्रदेश की सियासत में खुद को जिंदा रखकर मोहन यादव को अस्थिर करना चाहते हैं। वह किसानों के बीच जाकर बयान दे रहे हैं और अपने कार्यकर्ताओं, नेताओं को समझाना चाहते हैं कि मैं हूं, और यहां वापस भी आ सकता हूं। हालांकि, जीतू पटवारी की बात पर चौहान या बीजेपी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया तो नहीं आई है, लेकिन जीतू ने मोहन का काम कर दिया। राजनीति में कई बार ऐसा होता है और कई बार रणनीतिक तौर पर ऐसा करवाया भी जाता है। माने, जो आप खुद नहीं कह सकते, वो सामने वाले से कहलवा दो। सत्ता-विपक्ष में इतना दोस्ताना तो चलता है। नहीं क्या?