लोकप्रिय और झूमती हुई पुस्तक, ‘गालिब छुटी शराब’ के लेखक की शराब कहां छूट पाई थी! हिंदी साहित्य भी शराब में उतना ही डूबा है, जितना समाज का दूसरा हिस्सा।

साहित्यकार मधुशाला रचता है, इसका यह मतलब नहीं कि वह शराबी है। बच्चनजी शराब नहीं दूध पीते थे। कभी यदा-कदा पी थी, पर एक बार बाल अमिताभ की तबीयत खराब हुई, तो उन्होंने वह भी छोड़ने की प्रतिज्ञा की और अमिताभ के ठीक होने के बाद पूरी जिंदगी छुई नहीं। दरअसल, वह इस तरह की मान्यता में विश्वास रखते थे। पर मधुशाला की अपार लोकप्रियता के कारण लोग उन्हें हमेशा शराबी समझते ही रहे।
रूस की ठंड और ऊपर से दिसंबर के दिनों में शराब तो वहां राशन में ही शामिल रहती थी। राहुल सांकृत्यायन जब दूसरी बार रूस पहुंचे, तो वहां के विख्यात बुद्धिजीवी आचार्य इस्चेरवात्स्की के घर भोज पर शराब पेश की गई। राहुल जी ने ली नहीं। आचार्य जी ने कहा यह शराब नहीं है, लाल रंग का पेय है इसमें नशा नहीं है। राहुल जी ने कहा – “यह गुनाह बेलज्जत है। नशा का लोभ होता तो शायद कड़वाहट को बर्दाश्त कर लेता, इस कड़वे पानी को पीना मुझे फिजूल मालूम होता है” और रूस में लंबे प्रवासों-नौकरी के बावजूद उन्होंने कभी नहीं पी फिर अपने देश में क्या पीते!
महफिल और कहकहों में अपने प्रेमचंद जी की जान बसती। वैसे वह शराब कभी न पीते पर “मुंशी जी उन लोगों में न थे जो चार दोस्तों के बीच भी कट्टर मौलाना की तरह शराब को गुनाह समझते हुए, मुहर्रमी सूरत बनाए लबों को सिए बैठे रहते हैं… गाहे-बगाहे मुंह जुठार लेते…”
पीने के प्रेमचंद जी के कुछ ही वाकये हैं। शादी के बाद तो दो बार पी और उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने उनका नशा ही काफूर कर दिया था। महफिल से एक बार जब पीकर देर से घर लौटे तो उन्हें दरवाजा खुलवाने में काफी मुश्किल हुई। दरवाजा खुलते ही बच्चों पर बरस पड़े। नशा चढ़ा हुआ था।
उनकी पत्नी ने वहीं से बेटी से पूछा, “बेटी, घर में कोई कुत्ता घुस आया है क्या? बेटी ने कहा, कुत्ता नहीं है अम्मा, बाबूजी हैं। हमको धुन्नू पर बिगड़ रहे हैं। शराब पीकर आए हैं। मुंह से बदबू आ रही है। अगले दिन मुंशी जी को खूब खरी-खोटी सुनाई गई, लानत-मलामत हुई। मुंशी जी ने कान पकड़े अब फिर कभी ऐसी गलती नहीं करूंगा।” पर एक पखवाड़ा भी नहीं बीता कि दोस्तों की महफिल में फिर वह यह गलती कर बैठे। घर लौटने पर वह दरवाजा पीटते रहे पर शिवरानी जी ने दरवाजा न खोला।
“सिद्धांत-गरिष्ठ पत्नी ने उन्हें सबक देने का फैसला कर लिया था – जाएं वहीं मरदूदों के यहां जिनकी संगत में बैठकर… बहुत कहा-सुनी के बाद दरवाजा खुला। अगले रोज उन्हें कसकर फटकार लगी। मुंशीजी कान दबाए सुनते रहे और इस बार उन्होंने जो कसम खाई तो, फिर शायद कभी लाल परी को मुंह न लगाया।
इस तरह इन दो किस्सों के साथ ही प्रेमचंद जी की छूटी शराब।
भीष्म साहनी जी जब अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के दौरे पर बुल्गारिया की राजधानी सोफिया गए तो प्रथानुसार बाहर से आए लेखकों को नगर भ्रमण कराया गया।
यह सुनकर कि हल्की शराब की फैक्ट्री भी दिखाई जाएगी, सभी लेखकों की बांछें खिल गईं।
शराब की फैक्ट्री दिखाएंगे तो पिलाएंगे भी।
फैक्ट्री दिखाई गई और मेहमानबाजी शुरू हुई। शराब की तारीफ में भाषण हुआ।
“… फिर उन बोतलों से थोड़ी-थोड़ी शराब हमारे गिलासों में उंडेल दी। हमने उसे चखा, चटखारा लिया, शराब की तारीफ में आंख मटकाते हुए सिर हिलाया। मेज के बीचोबीच एक बड़ा सा कांच का पात्र रखा था। वह इसलिए कि जो दो-एक घूंट गिलास में बचे रह गए हों, उन्हें इस पात्र में उंडेल दिया जाए… शराब की किस्मों का अंत नहीं था।
हम दो-दो तीन-तीन घूंट भरने के बाद, बची हुई शराब उस पात्र में उंडेल देते। लगभग आधे पौन घंटे तक यह खेल चलता रहा, यहां तक कि कांच का पात्र जूठी शराब से करीब-करीब भर गया…” आगे भीष्म साहनी जी बताते हैं शराब की बोतलें अभी भी लाई जा रही थीं… सिर घूमने लगे… लोग भावुक होकर फैक्ट्री के तोंद वाले मैनेजर के बगलगीर होकर चूमने लगे।
इसके बाद उस तोंदवाले मैनेजर ने बड़े आग्रह से लेखकों से कहा “अब हम मानवीय एकता की भावना को सुदृढ़ बनाने के लिए इस पात्र में से बारी-बारी से घूंट भरेंगे” मतलब सबकी जूठी शराब जो पात्र में थी वह सबको पीनी है ‘मानवीय एकता’ के खातिर। यानी एक बार फिर उस पात्र को सबको जूठा करना है- पीना है।
भीष्म जी आगे बताते हैं “मैं क्या करूं? पात्र धीरे-धीरे मेरी दिशा में बढ़ता आ रहा था। बाहर निकल जाऊं? खड़े-खड़े गिर पड़ूं, बेहोश हो जाऊं?… गुसलखाने की ओर जाने का बहाना कर भाग जाऊं… जब पात्र मेरे हाथ में थमाया गया तो एक वयोवृद्ध सज्जन ने मेरी दुविधा भांप कर फुसफुसाकर मेरा मनोबल बढ़ाते हुए कहा – देशभक्त लोग तो हंसते-हंसते सूली पर चढ़ जाते हैं और तू जूठी शराब के दो घूंट नहीं भर सकता? गटक जा।”
आगे यह कि आंख बंद कर भीष्म जी दो की जगह तीन घूंट गटक गए फिर पेट पर हाथ रखकर बाहर भागे तो बाहर देखा लोग जगह-जगह कोई दीवार पर, कोई सीढ़ियों पर, पेट थामे उकड़ूं से बैठे हैं।