बीते एक दशक से देश की सियासत में नए किस्म की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। खासकर, भ्रष्टाचार के मामलों में। याद है कि 2014 के आम चुनाव के पहले किस तरह टू-जी, कोलगेट और कॉमनवेल्थ गेम्स के कथित घोटालों का शोर किया गया था। हजारों करोड़ के घोटालों के आरोप इस अंदाज़ में चस्पा किए गए थे कि “निज़ाम” बदलते ही सब बदल जाएगा और जनता का पैसा हड़पने वाले सींखचों के पीछे सड़ेंगे। लेकिन हुआ क्या? ‘भाषणों’ में जिन पर आरोप लगाए गए थे, उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। एक-एक करके सबको मुक्ति मिलती गई।

ताज़ा उदाहरण मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के भांजे रतुल पुरी का है, जिन्हें 354 करोड़ रुपये के बैंक धोखाधड़ी मामले में पिछले दिनों बरी कर दिया गया। यह खबर मीडिया में वैसी सुर्खियां नहीं बन सकी, जैसी छह वर्ष पहले बनी थी। कारण, अगस्त 2019 में रतुल की जब इस मामले में गिरफ्तारी की गई, तब कमलनाथ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। जाहिर है, बीजेपी ने जमकर शोर मचाया। और, मुख्यधारा का मीडिया, जो विपक्ष से सवाल पूछने या उसे कटघरे में खड़ा करने के मामले में सदैव संवेदनशील रहता है, ने इस खबर को हाथोंहाथ लिया जमकर फ़्लैश किया। कहा जाता है कि अपने नजदीकी लोगों के यहां आयकर के छापों और रिश्तेदारों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बाद कमलनाथ इतने दबाव में आ गए कि पंद्रह साल बाद पार्टी के हाथ आई सरकार संभाल नहीं सके और फिर 2023 का चुनाव भी उन्होंने टूटे मनोबल से लड़ा।
इस मामले में अदालत ने जो कहा है, वो गौर करने लायक है। उसने कहा कि “रतुल पुरी और अन्य आरोपियों के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि बैंकों ने अपने 40 अधिकारियों के खिलाफ जांच और अभियोजन की मंजूरी देने से इनकार कर दिया।” अदालत ने कहा, “यह मामला आपराधिक प्रकृति का नहीं था और इसमें धोखाधड़ी, छल या प्रलोभन के आपराधिक तत्व नहीं थे। अदालत ने यह भी कहा कि “किसी भी समय ऋण का कोई दुरुपयोग या हेराफेरी नहीं हुई और ऋणों का उपयोग आरबीआई के दिशानिर्देशों और बैंकिंग मानदंडों के अनुसार उसी उद्देश्य के लिए किया गया, जिसके लिए उन्हें दिया गया था।” कुलमिलाकर, सीबीआई सुबूत और तथ्य नहीं जुटा सकी। जाहिर है, घोटाला नहीं, “बल्कि घोटाले का शोर” हुआ था। लेकिन, ‘शोर’ करने वाले फिलहाल चुप हैं। शायद, किसी नए शोर की तैयारी में।

कांग्रेस में थे तो बजता था डंका, अब मुई एक ट्रेन ने बताई हकीकत
जब तक ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में थे, ग्वालियर-चंबल में ‘महल’ का डंका बजता था। माने, पार्टी के ज्यादातर मामलों में उनकी पसंद को तरजीह दी जाती थी। लेकिन, जब से वह बीजेपी की शरण में आए हैं, उन्हें हर मामले में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ताज़ा किस्सा पिछले सप्ताह ग्वालियर-बेंगलुरु के बीच शुरू हुई एक ट्रेन का है।
सिंधिया का दावा है कि यह ट्रेन उनके प्रयासों की देन है और उन्होंने वर्ष 2024 व 2025 में इसके लिए रेल मंत्री को पत्र लिखे थे। जबकि, ग्वालियर के भाजपा सांसद भरत सिंह कुशवाह इसे अपनी उपलब्धि बता रहे हैं और कह रहे हैं कि ट्रेन के लिए मैंने अप्रैल माह में ही रेल मंत्री को पत्र दिया था, प्रार्थना की थी। रेल मंत्री ने मेरे ही पत्र पर ट्रेन की स्वीकृति दी। अब दोनों में से जो भी सच बोल रहा हो, पर सिंधिया की पुरानी पार्टी, भाजपा में उनके हाल पर मौज लेने का कोई अवसर नहीं चूकती।
लिहाजा, राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता उमंग सिंघार ने तुरंत कहा, “इन दोनों सांसदों को इस नई ट्रेन के एक ही कोच में बैठकर कुश्ती करना चाहिए। जो कोच से बाहर आएगा वो जीतेगा और उसे श्रेय मिल जाएगा।” बहरहाल, ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर जब ट्रेन को हरी झंडी दिखाई गई तो सिंधिया-कुशवाह, दोनों के अलग –अलग नारे लग रहे थे।
शिवराज ने कंठ के नीचे उतार लिया पूरा गुस्सा

सार्वजनिक जीवन में कई बार अपना गुस्सा पीना पड़ता है, चोटें सहन करना पड़ती हैं। खासकर, जब चोट घर में ही मिल रही हो तो अक्सर बुद्धिमान व्यक्ति उस बात को जुबान पर नहीं लाता, जो दरअसल वह कहना चाहता है। सीधे न कहकर, अपनी बात घुमाकर रखता है। पिछले दिनों शिवराज सिंह चौहान ने भी एक मामले में ऐसा ही किया। भले ही वे मौसम विज्ञानी न हों, पर स्वयं किसान हैं और अब तो देश के कृषि मंत्री भी हैं। और, सबसे बड़ी बात 17 साल मुख्यमंत्री रहे हैं।
कहने का मतलब, “मौसम” को अच्छी तरह से समझते-बूझते हैं। चाहे फिर मौसम प्रकृति को हो या राजनीति का। सफल किसान और राजनेता की पहचान भी यही होती है कि वह “मौसम” देखकर कदम उठाता है, फैसले लेता है। लेकिन, किसानी हो या सियासत, परेशानियां-आपदाएं आती ही हैं। सो, आपदा आ गई। मध्यप्रदेश के वन विभाग ने खिवनी अभयारण्य के आदिवासी परिवारों को उजाड़ दिया। नाराज़ आदिवासी इकट्ठा होकर चौहान के पास पहुंचे। पीड़ा बताई।
चौहान ने उनसे कहा, “ये अधिकारी सब गड़बड़-सड़बड़ करते हैं। सरकार की छवि बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। मैं वन विभाग के अफसरों से कहना चाहता हूं, गलती न करें। ये किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं की जाएगी।” अगले दिन वे पीड़ित आदिवासियों को अपने साथ लेकर सीएम हाउस पहुंच गए। मुख्यमंत्री मोहन यादव को सारी बात बताई। मुख्यमंत्री ने डीएफओ का तबादला कर दिया और आदिवासियों के पुनर्स्थापन की व्यवस्था करवाई। असल में, खिवनी अभयारण्य दो विधानसभा क्षेत्रों बुधनी और खातेगांव में आता है। और, ये दोनों शिवराज के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र विदिशा के अंतर्गत हैं।
इनमें बुधनी तो उनका गृह क्षेत्र है। जाहिर है, उनको क्या किसी को भी पीड़ा होती। किसी के निर्वाचन क्षेत्र में 50 से ज्यादा मकान तोड़ दिए जाएं और कार्रवाई से पहले बात तक नहीं की जाए, विश्वास में न लिया जाए तो गुस्सा फूटेगा ही। और, शिवराज तो 17 बरस सीएम रहे हैं। गनीमत है, वे अधिकारियों पर ही फटे, सरकार या सीएम को टारगेट नहीं किया। पूरा गुस्सा कंठ के नीचे उतार लिया।
जो हुआ सो हुआ, विजय शाह को काम मिल गया
वैसे, इस एपिसोड से एक और काम ये हुआ कि कर्नल सोफिया कुरेशी को “आतंकियों के समाज की बहन” बताने वाले आदिम जाति कल्याण मंत्री विजय शाह को करीब 45 दिन बाद काम मिल गया। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने पीड़ित आदिवासियों की तकलीफ जानने के लिए उनकी ड्यूटी लगा दी और उन्हें खिवनी भेज दिया। अभी तक शाह सरकारी कामकाज से दूर थे।
अपमानजनक टिप्पणी के बाद उन्हें केबिनेट की बैठक में भी नहीं बुलाया जा रहा था। पर अब उनकी एंट्री हो गई है। वह सरकारी मंचों पर मुख्यमंत्री के साथ दिखाई पड़ने लगे हैं। कहा जा रहा है कि पार्टी ने अपनी तरफ से जितनी सजा सोच रखी थी, वो शायद, उनको मिल गई है। एसआईटी की जांच होती रहेगी। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आता रहेगा। प्रतीक्षा में “जनकल्याण” का नुकसान क्यों करो? यही भाजपा का “न्यू नॉर्मल” है।
विभाग ने अपने मंत्री के खिलाफ ही बैठा दी जांच
किसी मंत्री पर कमीशन में 1 हजार करोड़ रुपये लेने का आरोप लगे और उसका अपना विभाग ही जांच बैठा दे, कैसे मुमकिन है। लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा हो गया। मामला पीएचई विभाग का है। मंत्री हैं संपतिया उईके। उनके खिलाफ बालाघाट के पूर्व विधायक किशोर समरीते ने पीएमओ को शिकायत की थी। कहा था कि जल जीवन मिशन के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा आवंटित 30 हजार करोड़ की राशि में घोटाला किया गया है।
2 हजार करोड़ का कमीशन लिया गया, जिसमें एक हजार करोड़ मंत्री के पास गया। बहरहाल, पीएमओ से शिकायत भोपाल राज्य मंत्रालय होती हुई विभाग में पहुंच गई और उस पर जांच भी शुरू कर दी गई। जब यह खबर सार्वजनिक हुई तो हल्ला मच गया। मंत्रिमंडल में तो सब हैरान रह गए। किसी को कुछ पता ही नहीं था। न मुख्यमंत्री को, न ही मंत्री उईके को। 24 घंटे में जांच पूरी करवाई गई और बताया गया कि शिकायतकर्ता प्रमाण नहीं दे पाए। सच्चाई जो हो, पर इस मामले ने सरकार की जमकर किरकिरी करवा दी है।
दो मुलाकातें : शुष्क दरख्तों पर फूटने लगे पीके
मानसून आ चुका है, लिहाजा शुष्क दरख्तों-शाखों पर भी पीके फूटने लगे हैं। पिछले दिनों दो सियासी मुलाकातों ने सबका ध्यान खींचा। एक- पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और विधानसभा में विपक्ष के नेता उमंग सिंघार। और, दूसरी-शिवराज सिंह चौहान और कैलाश विजयवर्गीय के बीच। कुलमिलाकर, दोनों दलों में नए समीकरण बन रहे हैं। वर्ना, सिंघार ने दिग्विजय के लिए क्या-क्या नहीं कहा था और दो दोस्तों के रिश्ते कितने ठंडे पड़ गए थे। मगर हालात सब करवा रहे हैं। किसी ने कहा है- *“मेरे हालात को बस यूं समझ लो, परिंदे पर शज़र रखा हुआ है।”
सीएम के बाद भाजपा अध्यक्ष भी ‘सुरेशजी’ का
प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष पद पर हेमंत खण्डेलवाल के निर्वाचन से स्पष्ट हो गया कि मध्यप्रदेश के मामले में भाजपा हाईकमान, आरएसएस के वरिष्ठ नेता सुरेश सोनी को पूरी तरजीह दे रहा है। मुख्यमंत्री मोहन यादव की ताजपोशी के पीछे भी सोनी की ही भूमिका मानी गई थी। दरअसल, मध्यप्रदेश सोनी का गृह राज्य है। इस नाते यहां उनका विशाल संपर्क संसार है। बहरहाल, पार्टी ने सोनी के जरिए दोनों महत्वपूर्ण पद एक तरह से संघ को सौंप दिए हैं। हालांकि, शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्रित्वकाल में खण्डेलवाल चूंकि प्रदेश भाजपा के कोषाध्यक्ष रहे हैं, इसलिए चौहान से भी उनकी ठीकठाक है। देखना होगा कि दिल्ली उनको क्या कहती है?