Women, crime and media sensationalism: बीते महीने आठ से नौ जून के दौरान एक बड़े खबरिया चैनल ने 24 घंटे में से 13 घंटे सिर्फ एक खबर पर खर्च कर दिए और यह खबर थी, इंदौर के चर्चित हनीमून से जुड़े मामले की जिसमें सोनम रघुवंशी ने कथित रूप से अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति राजा रघुवंशी की हत्या कर दी! दरअसल यह पहला मामला नहीं है, जब टीवी चैनलों ने इस तरह के किसी महिला की संलिप्तता वाले अपराध को सनसनीखेज बनाकर पेश किया हो।
चौबीस घंटे खबर देने वाले टीवी चैनलों का यह कोई नया रुझान नहीं है। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गौर करने वाली बात यह है कि प्रेम, बेवफाई, विवाहेतर संबंध और इसी तरह के मामलों से जुड़े अपराध में यदि आरोपी महिला हो तो खबरिया चैनल उसमें हर तरह का मसाला डालने से नहीं चूकते। सनसनीखेज हेडिंग से लेकर फंतासियों तक।
नीले ड्रम में खो गई पत्रकारिता
सोनम और राजा रघुवंशी के मामले को ही देखें तो, टीवी ने इसे सास-बहू ड्रामे की तरह पेश किया और आज भी इसी खबर को अपडेट के साथ पेश किया जा रहा है। हेडलाइंस में हर रोज ये खबर आपको देखने मिल जायेगी। ऐसा ही एक और मामला फ़रवरी में सामने आया था जिसमें मेरठ में एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या की और शव को नीले ड्रम में रखकर उसमें सीमेंट से ढंक दिया, इस खबर ने नीले ड्रम को इतना बदनाम किया कि लोग कहने लगे, नीला ड्रम मत खरीदो, कहीं हत्या का इल्ज़ाम न लग जाए, फिर क्या इसके बाद नीले ड्रम का बिज़नेस ठप्प, लेकिन टीवी चैनलों की टीआरपी चरम पर।
टीवी चैनल्स अक्सर महिलाओं द्वारा किए गए अपराधों को सनसनीखेज तरीके से दिखाते हैं। उदाहरण के तौर पर 2022 में बिजनौर, उत्तर प्रदेश में शिवानी नाम की महिला ने अपने पति दीपक की गला दबाकर हत्या कर दी और इसे दिल का दौरा बताया। चैनल्स ने इसे ‘प्यार में धोखा’ और ‘बेवफा पत्नी’ जैसे मसालेदार टाइटल्स के साथ पेश किया। ड्रामेटिक सीन, सस्पेंस म्यूजिक और परिवार के इंटरव्यू के साथ खबर को थ्रिलर जैसा बनाया गया। अगर यही अपराध पुरुष ने किया होता, तो इसे सिर्फ ‘पति ने पत्नी की हत्या’ जैसी साधारण हेडलाइन मिलती, बिना किसी ड्रामे के।
इसी तरह, 2022 में भिवानी, हरियाणा में यूट्यूबर रविना ने अपने दोस्त के साथ मिलकर पति की हत्या कर दी, क्योंकि पति को उनकी दोस्ती और सोशल मीडिया गतिविधियों से आपत्ति थी। टीवी चैनल्स ने इसे ‘सोशल मीडिया स्टार बनी हत्यारी’ और ‘प्यार, धोखा और खून’ जैसे टाइटल्स के साथ दिखाया। रविना के वीडियोज और ग्लैमरस जिंदगी पर फोकस कर कहानी को और सनसनीखेज बनाया गया। लेकिन अगर पुरुष ने ऐसा किया होता, तो खबर को ‘पति ने की हत्या’ जैसे साधारण शब्दों में दिखाया जाता, बिना ग्लैमर या साजिश के तड़के के।
ऐसे ही और भी कई मामलों को टीवी चैनल्स ने ऐसे पेश किया जैसे कोई क्राइम थ्रिलर वेब सीरीज हो, हर घंटे नया ट्विस्ट, नया किरदार और नया डायलॉग जैसे ‘क्या प्यार ने बनाया हत्यारा?’ ‘ सोनम बेवफा निकली’ लेकिन सवाल ये है की अगर यही खबर पुरुष अपराधी की होती तो क्या इतना ड्रामा होता? शायद नहीं, क्योंकि ‘पत्नी ने पति को मारा’ में मसाला ज़्यादा है।
हर घंटे 51 महिलायें शिकार लेकिन टीवी को चाहिए सनसनी
जब बात महिलाओं के खिलाफ अपराध की आती है तो टीवी चैनल्स की चमक थोड़ी फीकी पड़ जाती है। NCRB 2022 की रिपोर्ट कहती है कि 2022 में महिलाओं के खिलाफ 4 लाख 45 हजार 256 मामले दर्ज हुए, जो 2021 (4,28,278) की तुलना में 4% ज्यादा है। यानी हर घंटे 51 महिलाएं अपराध की शिकार हुईं।
बलात्कार: 31,516 मामले, जिनमें 96% से ज्यादा मामलों में आरोपी पीड़िता का जानकार था।
पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता: 1,39,815 मामले (31.4%)।
अपहरण: 85,323 मामले (19.2%)।
लज्जा भंग करने की मंशा से हिंसा: 18.7%
दहेज हत्या: उत्तर प्रदेश में 2,138 और बिहार में 1,057 मामले।
दिल्ली की स्थिति में अपराध दर 144.4 प्रति लाख, जो राष्ट्रीय औसत 66.4 से दोगुना से ज्यादा है। 2022 में दिल्ली में प्रतिदिन औसतन 3 बलात्कार के मामले दर्ज हुए।
गौर करने वाले आंकड़े तो ये हैं कि 96% से ज्यादा बलात्कार के मामलों में आरोपी पीड़िता का परिचित होता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के अनुसार, 15-49 वर्ष की एक-तिहाई महिलाओं ने किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना किया। घरेलू हिंसा के केवल 0.1% मामले (507 मामले) 2022 में दर्ज हुए, जो वास्तविकता से बहुत कम है।
अब बात कुछ हालिया मामलो के जिसमें महिलाओं के साथ क्रूरता हुई
कोलकाता लॉ कॉलेज केस : एक छात्रा के साथ गैंगरेप की घटना ने देश को हिलाया। इस मामले पर कुछ टीवी चैनल ने चर्चा जरूर की लेकिन इसमें भी राजनीतिक रंग लाने पर कोई कसर नहीं छोड़ी।
बदलापुर केस (2024): स्कूल में यौन शोषण की घटना ने महाराष्ट्र में हंगामा मचाया, लेकिन मीडिया ने इसे कुछ दिनों बाद भुला दिया। क्या आरोपी गिरफ्तार हुए क्या उन्हें सज़ा मिली या नहीं इस पर किसी ने बात नहीं की।
आदिवासी नाबालिग का बलात्कार (2023): छत्तीसगढ़ के कांकेर के एक आदिवासी गांव में 15 वर्षीय लड़की के साथ खेत में बलात्कार हुआ। आरोपी ने धमकाकर चुप रहने को कहा, लेकिन परिवार की शिकायत पर पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया। मामला स्थानीय अखबारों तक सीमित रहा।
मध्य प्रदेश (2025): खंडवा में 27 मई 2025 को 45 वर्षीय आदिवासी महिला के साथ गैंग रेप हुआ, जिसमें क्रूरता से उसकी आंतें बाहर निकलीं और मौत हो गई। दो आरोपी गिरफ्तार हुए, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया ने इसे ज्यादा कवर नहीं किया।
उत्तर प्रदेश(2022): ललितपुर में 13 वर्षीय लड़की शिकायत दर्ज कराने थाने गई, जहां थानेदार ने उसका बलात्कार किया। आरोपी गिरफ्तार हुआ, लेकिन मामला सुर्खियों से गायब हो गया।
पंजाब (2024): तरन तारन में एक महिला को पड़ोसियों ने पीटा, अर्धनग्न किया और वीडियो वायरल किया। चार आरोपी गिरफ्तार हुए, लेकिन वो आरोपी कौन थे महिला का फिर क्या हुआ, समाज में उसे जीने में क्या दिक्क्तें हुई किसने मदद की ये बातें गायब हो गई।
ओडिशा, मयूरभंज में नाबालिग का गैंग रेप (2025): मयूरभंज में एक नाबालिग के साथ गैंग रेप हुआ, जिसे स्थानीय पुलिस ने जांच शुरू की। आदिवासी क्षेत्र होने के कारण राष्ट्रीय मीडिया में इसे ज्यादा ध्यान नहीं मिला।
बिहार,नालंदा(2025) : नालंदा में एक महिला की हत्या कर उसके पैरों में 9 कीलें ठोंकी गईं और शव खेत में फेंका गया।
मीडिया को चाहिए सिर्फ ‘मसाला‘
ऐसे ही कई मामले हैं जिसमें महिलाओं के साथ क्रूरता की हदें पार की गयी लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता, जब कोई महिला अपराध करती है, तो टीवी चैनल उसे ‘खतरनाक प्रेमिका’ या ‘हत्यारी पत्नी’ जैसे सनसनीखेज टैग देकर घंटों स्क्रीन पर चलाते हैं। लेकिन जब कोई महिला पीड़िता होती है, खासकर ग्रामीण या आदिवासी क्षेत्रों से, तो खबर को दो-चार मिनट किसी बुलेटिन या सुपरफास्ट न्यूज़ में दिखाकर ‘अगली सनसनी’ की तलाश शुरू हो जाती है। शायद टीवी वालों को लगता है कि ‘रेप की खबर पुरानी, नीला ड्रम नई कहानी’ । यह दोहरा रवैया समाज में महिलाओं की सुरक्षा और न्याय की मांग को कमजोर करता है, खासकर उन मामलों में जो हाशिए पर रहने वाले समुदायों से जुड़े हैं।
मीडिया को चाहिए मसाला, और अगर मसाला नीले ड्रम में मिले, तो क्या कहने! लेकिन जब बात असल मुद्दों की हो, जैसे FIR दर्ज न होना या दोष सिद्धि की कम दर (पॉक्सो केस में सिर्फ 35%) तो चैनल्स को अचानक ‘खबरों की कमी’ हो जाती है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
इस विषय पर हमने गुरु घासीदास युनिवर्सिटी की प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना से बात की उन्होंने द लेंस से कहा – ‘मीडिया से हम समाज में बदलाव लाने की उम्मीद करते हैं, लेकिन हाल फिलहाल में दुर्भाग्य की बात रही है कि मीडिया खुद पूर्वाग्रह से प्रभावित होकर इस तरीके की रिपोर्टिंग या खबरें परोस रहा है जिसमें जाति धर्म और ज्योग्राफिकल कंडीशन उस रिपोर्ट को इनफ्लुएंस करते हैं और हालिया मामले जिसमें पुरुष महिला के विरुद्ध अपराध करता है उसे सामान्य खबर की तरह दिखाया जाता है लेकिन जब महिला अपराध करती है तो मीडिया खुद भी उसे असामान्य मानते हुए सनसनी की तरह खबरें परोसता है।’

प्रोफेसर सक्सेना ने आगे कहा “मीडिया इस बाजारवाद की दुनिया में न्यूज़ और टीआरपी का प्रोडक्ट बन चुका है NFHS की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय मीडिया में पुरुषों का एक्सपोजर ज्यादा है महिलाओं के मुकाबले, इसके अतिरिक्त मैनेजमेंट से लेकर उच्च पदों तक पुरुषों की मौजूदगी ज्यादा है यानी किसी भी मीडिया हाउस में न्यूज़ रूम ओनरशिप और रिपोर्टिंग में जेंडर सेंसिटिव रिपोर्टिंग की कमी है, मीडिया खुद भी भूल जाता है कि उसे समाज के उस पूर्वाग्रहों को तोड़ना है जो समाज खुद बना रहा है यानी जेंडर इन्फ्लुएंस्ड खबरों की भरमार अभी भी मीडिया हाउस में दिखाई देती है, दुर्भाग्य से महिलाओं के विरुद्ध जो भी अपराध हो रहे हैं मीडिया में जैसा स्थान मिलना चाहिए उन खबरों को वैसा ट्रीटमेंट नहीं मिल पाता, इसके लिए तात्कालिक रूप से महिलाओं को मीडिया में अपनी मौजूदगी प्रभावी रूप से दर्ज करानी होगी तब जाकर दीर्घकालिक प्रयास संभव हो पाएंगे। “

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी कहते हैं मीडिया ने भी पितृसत्तात्मक रवैया अपना लिया है। द लेंस से उन्होंने कहा, “महिलाओं को अक्सर पीड़ित नरम और निर्दोष की तरह देखा और दिखाया जाता है, इसलिए अगर किसी महिला का नाम अपराध में जुड़ता है, तो मीडिया उसे सनसनीखेज बनाकर पेश करता है और मीडिया के लिए टीआरपी का हिस्सा होता है, जरा याद कीजिए शीना बोरा हत्याकांड, इंद्राणी मुखर्जी और राधे मां जैसे मामलों में उनकी निजी जिंदगी पृष्ठभूमि पर कितना ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जबकि उनका आधार इससे अलग हटकर था, मीडिया का दृष्टिकोण भी पितृसत्तात्मक है और महिलाओं के प्रति वह दोहरा नजरिया रखता है।
एनसीआरबी 2022 के आंकड़ों के अनुसार गिरफ्तार आरोपियों में से 5.2 फ़ीसदी महिलाएं थी कम आंकड़ों की वजह से भी मीडिया उन पर ध्यान केंद्रित करता है मीडिया के सामने चुनौती टीआरपी और विज्ञापन का है और दर्शकों के लिए मनोरंजक तरीके से पेश करने का है। हाल ही में शेफाली जरीवाला की मृत्यु के बाद भी जिस तरीके से शेफाली के जिंदगी के बारे में बताया गया उसके परिवार वालों को पेश किया गया, इसका मतलब यह है कि मीडिया किसी के दुख या शोक की घड़ी को भी कोई इवेंट बदलने में चूकता नहीं है| मीडिया अपने पाठकों या दर्शकों के लिए नहीं, बल्कि अपने ग्राहकों और यूज़र्स के लिए कार्य करता है! अब पाठक ग्राहक में तब्दील हो गए हैं !.यही ग्राहक मीडिया के लिए विज्ञापन और प्रायोजक उपलब्ध कराता है ! यही वो ग्राहक हैं जिनके लिए हर साल हालात गरबों का आयोजन करवाया जाता है और तरह तरह के इवेंट करवाये है ! ऐसे में मीडिया की मजबूरी हो गई है कि चीज़ों को इस तरह पेश कर रहे कि ग्राहकों का मनोरंजन हो! आप कल्पना कीजिए कि सोनम रघुवंशी की जगह अगर किसी धापू बाई या भूरी बाई पर पति मंगरू की हत्या का आरोप लगता तो? ये तो नाम ही डाउन मार्केट के लगते हैं ! कोई कवरेज देता? “
क्या कहते हैं आंकड़े?
महिलाओं के खिलाफ अपराध और महिलाओं द्वारा किए गए अपराधों के बीच की खाई इतनी चौड़ी है कि इसे नापने के लिए शायद नासा का टेप चाहिए, NCRB 2022 के मुताबिक, हर घंटे 51 महिलाएं हिंसा की शिकार होती हैं, जैसे बलात्कार (31,516 मामले, 96% परिचितों द्वारा) और घरेलू क्रूरता (1,39,815 मामले) जबकि महिलाओं द्वारा अपराध कुल गिरफ्तारियों में महिलाओं का हिस्सा 7-8% है, जिसमें ज्यादातर चोरी, धोखाधड़ी या आत्मरक्षा में मारपीट शामिल है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा लैंगिक असमानता और दहेज जैसे सामाजिक रोगों से उपजती है, NFHS-5 बताता है कि 30 फीसदी महिलाएं हिंसा झेलती हैं, कानूनी हाल तो और ज्यादा बेहाल है, बलात्कार केस में दोषसिद्धि दर 27-35% है, लेकिन महिलाओं के अपराधों में आत्मरक्षा का हवाला देकर सजा कम हो जाती है। बिहार-यूपी में महिलाओं के खिलाफ हिंसा चरम पर है पर महिलाओं द्वारा साइबर अपराध दिल्ली जैसे शहरों में बढ़ रहे हैं , WHO के अनुसार, हर तीसरी महिला हिंसा का शिकार है, UNODC और NCW के आंकड़े चीख-चीखकर कहते हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों की बाढ़ है जबकि महिलाओं द्वारा अपराध बूंद-बूंद हैं ।
समाज में चुप्पी
किसी महिला के विरुद्ध खौफनाक अपराध पर पूरा देश दहल गया हो,आंदोलित हुआ हो यह हमने निर्भया कांड में देखा था लेकिन इसी कांड में देश को आंदोलन के आगे पीछे की राजनीतिक अवसरवादिता को भी देखने को मिला था। स्त्रियां सदियों से ऐसी खौफनाक प्रताड़नाओं का शिकार होती रहीं हैं लेकिन उनकी आवाज तभी सुनी जाती है जब किसी के लिए यह अवसर हो या जब किसी को उपभोक्ता चाहिए,रेटिंग चाहिए, धंधा चाहिए।
दरअसल यह कहना गलत नहीं होगा कि इस देश की संवेदनाओं पर एक किस्म का क्रूर सामंती पुरुष बैठा हुआ है जिसके लिए स्त्री विचार से लेकर भौतिक रूप तक बस कुचले और मसले जाने का सामान है।क्या कोई इसे निकृष्ट पत्रकारिता पुकारना चाहेगा ?
आंकड़े साफ है अपराध को अपराध के नजर से पेश किया जाना चाहिए लेकिन फिर भी मीडिया पीड़िता की बजाय ‘हत्यारी प्रेमिका’ को ज्यादा स्क्रीन टाइम देता है, क्या ये मीडिया का दोहरापन नहीं है?