ओडिशा के गंजाम जिले में कथित पशु तस्करी की आड़ में दो दलितों के साथ की गई बर्बरता की ताजा घटना से समझा जा सकता है कि करीब नौ बरस पहले गुजरात के ऊना में गोवंश के फर्जी आरोप पर दलितों के साथ की गई बर्बरता के बाद से कुछ भी नहीं बदला है। अपने गृह राज्य गुजरात की उस घटना के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने यहां तक कह दिया था कि “गोली मारनी है, तो मुझे मार दो, मेरे दलित भाइयों पर हमले मत करो!” लेकिन इन बरसों में जमीन पर कुछ भी नहीं बदला है, बल्कि गोरक्षा के नाम पर देश के कई राज्यों में दलितों और मुस्लिमों के साथ उत्पीड़न, यहां तक कि उन्हें मार डालने की घटनाएं सामने आई हैं। यह नफरत किस तरह फैल गई है, इसे गंजाम की ताजा घटना में देखा जा सकता है, जब अपनी बेटी की शादी के लिए एक गाय और दो बछड़े खरीदकर घर लौट रहे दो चचेरे भाइयों को बुरी तरह पीटा गया, उन्हें घुटनों के बल चलने को, घास खाने को और यहां तक कि नाले का पानी पीने को मजबूर किया गया! यही नहीं, उनके सिर भी मुंडवा दिए गए। इसमें तो कोई हैरत है नहीं कि पुलिस ने इस मामले में देर से रिपोर्ट दर्ज की, दरअसल दलितों के लिए अब भी थाने और कचहरियां बहुत दूर हैं। गंजाम की घटना जिस समय हुई है, ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश के इटावा में दो कथावाचकों को सिर्फ इसलिए अपमानित किया गया, क्योंकि वे जाति से ब्राह्मण नहीं यादव थे! हालांकि इस मामले में तब मोड़ आ गया है, जब कहा जा रहा है कि एक महिला ने इन कथावाचकों के खिलाफ कथित रूप से उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करवाई है। निस्संदेह महिला की शिकायत पर कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन जिस तरह इन कथावाचकों का सिर मुंडवा कर अपमानित किया गया, उसकी इजाजत तो कोई कानून नहीं देता। दरअसल गंजाम की घटना हो या इटावा की, बात सिर्फ कानून व्यवस्था से जुड़ी नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और समरसता का भी मामला है।