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लेंस संपादकीय

जस्टिस गवई की नसीहत

Editorial Board
Last updated: June 19, 2025 8:08 pm
Editorial Board
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Justice Gavai
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देश के पहले बौद्ध और दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई पद संभालने के बाद से सामाजिक न्याय को लेकर कई बार अपनी राय जाहिर कर चुके हैं। मिलान में चैम्बर ऑफ इंटरनेशनल लॉयर्स के कार्यक्रम में उन्होंने न केवल अपनी बात दोहराई है, बल्कि नसीहत भी दी है कि समाज के बड़े हिस्से को हाशिये पर रखने वाली असमानताओं पर ध्यान दिए बिना कोई भी देश प्रगतिशील या लोकतांत्रिक होने का दावा नहीं कर सकता। ऐसे समय जब प्रगतिशील और लोकतांत्रिक शब्दों का क्षरण देखा जा रहा है, गवई के शब्दों के गहरे निहितार्थ हैं। खुद जस्टिस गवई ने सामाजिक बहिष्करण का सामना किया है और यह कहने से गुरेज नहीं किया है कि संविधान की वजह से ही वह जाति की बेड़ियां तोड़ पाए! उनके इन शब्दों में उन लाखों लोगों का दर्द छिपा हुआ है, जिन्हें उनकी जाति के कारण उत्पीड़न झेलना पड़ता है या अपमानित होना पड़ता है। याद किया जा सकता है कि जस्टिस गवई उन एस आर गवई के पुत्र हैं, जिन्होंने 1956 में संविधान निर्माता बी आर आम्बेडकर के साथ हिन्दू धर्म छोड़ कर बौद्ध धर्म अपना लिया था। जस्टिस गवई ने जाति की जिन बेड़ियों की बात की है, वह आज भी कायम है, जिसकी वजह से किसी दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार दिया जाता है, या आईआईएम (बंगलोर) जैसे देश के प्रतिष्ठित संस्थान में किसी दलित प्रोफेसर को अपमानित किया जाता है। ऐसे भी मामले हैं, जब किसी दलित नेता के किसी मंदिर में जाने के बाद भाजपा ने उसे गंगाजल से धोया। वास्तव में जाति की बेड़ियों की बात की जाती है, तो इसका संदर्भ भेदभाव वाली चार वर्णीय व्यवस्था से ही है, जिसमें दलित सबसे नीचे हैं, दुखद यह है कि इस व्यवस्था के पैरोकार आज भी हैं।

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