आखिरकार केंद्रीय गृह मंत्रालय ने देश में जनगणना कराने का ऐलान कर दिया है, जिसकी प्रक्रिया एक मार्च, 2027 को पूरी हो जाएगी। वैसे तो यह जनगणना 2021 में हो जानी थी, लेकिन सरकार ने इसे पहले तो कोरोना की वजह से टाल दिया था, और फिर राजनीतिक कारणों से यह टलती रही। पहला कारण तो यही कि, 2026 में परिसीमन प्रस्तावित है और दूसरा यह कि सरकार जाति जनगणना को लेकर अनमनी थी, जिसे उसने अंततः कांग्रेस सहित विपक्ष के भारी दबाव में स्वीकार कर लिया है। पहले जाति जनगणना की बात करें, तो आजादी के बाद जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान शामिल थी, क्योंकि उसी के आधार पर उन्हें आरक्षण दिए जाने की संवैधानिक जरूरतें पूरी होती हैं। लेकिन अन्य जातियों को लेकर सही स्थिति पता नहीं होने के कारण कल्याणकारी नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर सवाल उठते रहे हैं कि क्या वे उन लोगों तक पहुंच पा रहे हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है। दरअसल जाति जनगणना भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति से मेल नहीं खाती है, बावजूद इसके कि उसने हाल के वर्षों में खासतौर से पिछड़ी जातियों के एक बड़े वर्ग को अपने पक्ष में गोलबंद किया है। इसके बावजूद पिछड़ी जातियां अपने आपमें एक बड़ी पहेली हैं, जिसकी गुत्थी जनगणना से सामने आएगी। दूसरा मुद्दा परिसीमन का है, जिसे लेकर खासतौर से दक्षिणी राज्यों में संशय है, जिन्हें लगता है कि जनगणना नियंत्रित करने और विभिन्न मानदंडों में बेहतर प्रदर्शन की उन्हें सजा लोकसभा में उनकी आनुपातिक सीटें कम होने के रूप में मिल सकती है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन इसे लेकर मुखर हैं। वास्तव में विकास के पैमाने पर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे अधिक आबादी और लोकसभा में अधिक सीटों वाले राज्य फिसड्डी हैं। जनगणना ऐसा पिटारा है, जिसके खुलने से देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को लेकर मंथन का नया दौर शुरू हो सकता है।