केंद्र सरकार का हालिया सुझाव कि एमबीबीएस और बीएएमएस के पाठ्यक्रम को समाहित कर एक नया पाठ्यक्रम बनाया जाए, यह पूरी तरह अवैज्ञानिक, यथार्थ से दूर और गलत उद्देश्य से प्रेरित है। ये दोनों पाठ्यक्रम पूरी तरह अलग दर्शन, मान्यताएं और प्रक्रियाओं पर आधारित हैं। दोनों के शरीर और रोगों को देखने का तरीका ही अलग है। जहां एक ओर एमबीबीएस आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं पर आधारित है और प्रत्यक्ष प्रमाणों के आधार पर सभी निष्कर्ष निकालती है, वहीं आयुर्वेद परंपराओं और मान्यताओं पर आधारित है। ऐसे में किसी भी छात्र के लिए मौलिक ज्ञान मीमांसा का संकट पैदा हो सकता है। तब वह किसी भी पद्धति का अनुपालन ईमानदारी से नहीं कर पाएगा। यहां जनविश्वास का भी संकट पैदा हो सकता है। क्योंकि दोनों पद्धतियों पर विश्वास करने वाले लोग अपने विश्वास अनुसार चिकित्सकों के पास जाते हैं, ऐसे में वो यह तय ही नहीं कर पाएंगे की उन्हें कैसा इलाज चाहिए। इस क़दम में भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार की विचारधारा को विज्ञान व लोगों के हित से अधिक महत्व दिया गया है। हिंदू ग्रंथों व तत्वमीमांसा को सार्वभौमिक बनाने और उसके ज़रिए ब्राम्हणवादी वर्चस्व को वैधता प्रदान करने की यह एक कोशिश प्रतीत होती है। यह कहना है कि इससे ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना आसान होगा एक छलावा मात्र है। यदि सरकार ग्रामीण अंचलों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना चाहती है तो उसे अपने स्वास्थ्य केंद्रों के आधारभूत संरचना चिकित्सकों की भर्ती और दवाओं की उपलब्धता पर ध्यान देना चाहिए न कि वर्षों से स्थापित पद्धतियाें और पाठ्यक्रमों से छेड़-छाड़ करना चाहिए।

