द लेंस डेस्क । ‘‘दुख की बात है कि न्यायपालिका के भीतर भी भ्रष्टाचार और कदाचार के मामले सामने आए हैं। ऐसी घटनाओं से जनता के भरोसे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे पूरी प्रणाली की शुचिता में विश्वास खत्म हो सकता है।’’ यह बात मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई ने ब्रिटेन में कही।
वह ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में बोल रहे थे। सीजेआई बीआर गवई ने कहा कि न्यायपालिका को बाहरी प्रभावों से स्वतंत्र रहना चाहिए। हर लोकतंत्र में न्यायपालिका का दायित्व न केवल न्याय प्रदान करना है, बल्कि सत्ता के सामने सत्य को रखने वाली संस्था के रूप में भी स्थापित होना है। न्यायिक स्वतंत्रता अहम है।
उन्होंने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र किया, जिसमें अदालत ने माना था कि यह अधिनियम कार्यपालिका को नियुक्तियों में प्राथमिकता देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करता है। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली की कमियां हो सकती हैं, लेकिन न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं होना चाहिए।
उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि विधायिका और कार्यपालिका की वैधता मतदान से आती है, लेकिन न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति निष्ठा से वैधता हासिल करती है। भ्रष्टाचार के मामलों पर उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाएं जनता का भरोसा तोड़ती हैं, लेकिन त्वरित और पारदर्शी कार्रवाई से इस विश्वास को पुनर्जनन किया जा सकता है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में हमेशा तुरंत और उचित कदम उठाए हैं।
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के दिल्ली स्थित आवास से नकदी बरामद होने के आरोपों के संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि भ्रष्टाचार के मामलों में तत्काल कार्रवाई जरूरी है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि हर व्यवस्था में कदाचार की संभावना रहती है, लेकिन इसका समाधान पारदर्शी और निर्णायक कदमों में है।
सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की सरकारी नियुक्तियों पर उठने वाले सवालों पर उन्होंने कहा कि ऐसी नियुक्तियां जनता के भरोसे को कमजोर कर सकती हैं, क्योंकि इससे यह आशंका पैदा होती है कि निर्णय पक्षपातपूर्ण हो सकते हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने और उनके कई सहयोगियों ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा की है, ताकि न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनी रहे।
कॉलेजियम प्रणाली का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि 1993 से पहले कार्यपालिका का नियुक्तियों में दबदबा था, जिसके दौरान दो बार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को दरकिनार कर सीजेआई की नियुक्ति की गई, जो परंपरा के खिलाफ था।