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Home » चार ट्रिलियन डॉलर जीडीपी की गुत्थी

सरोकार

चार ट्रिलियन डॉलर जीडीपी की गुत्थी

Narayan Krishnamurthy
Last updated: July 12, 2025 1:01 pm
Narayan Krishnamurthy
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नारायण कृष्णमूर्ति, वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक मामलों के जानकार

भारत ने पश्चिमी दुनिया के सामने एक जटिल पहेली पेश कर दी है। दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ ही सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में भारत खास है। हम महत्वाकांक्षी विकासशील देश हैं और खुद को दुनिया के शीर्ष देशों के बीच देखना चाहते हैं। इसलिए जब 2018 में लक्ष्य रखा गया कि 2024-25 तक हमारा देश पांच ट्रिलियन की अर्थव्यव्था बन जाएगा, तो यह कोई हवा-हवाई लक्ष्य नहीं था। कुछ दिनों पहले आईएमएफ के वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के जारी होने के बाद हमने दावा कर दिया कि 4.19 ट्रिलियन आकार वाले जापान को पीछे छोडकर भारत दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।

निःसंदेह, 2018 से मौजूदा दौर के बीच, कोविड वाले वर्षों ने हर तरह के अनुमानों को ध्वस्त कर दिया, इसके बावजूद हड़बड़ी में देश के चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का एलान एक चूक है। आईएमएफ के डाटा के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि भारत 2025 के अंत तक जापान की जीडीपी को पार कर जाएगा और अभी इसमें छह महीने बाकी हैं। फिर भी, 2015 में 2.1 टिलियन डॉलर के साथ दुनिया की दसवीं अर्थव्यवस्था से यहां तक पहुंचने की यात्रा अहम है। इसका यह मतलब भी है कि भारत ने पिछले दशक में 7.2 फीसदी की औसत विकास दर के साथ अपनी जीडीपी को दोगुना कर लिया है।

हालांकि, भारत की जीडीपी की इस रफ्तार का करीबी से मूल्यांकन करने पर कई ऐसे छिपे तथ्य सामने आते हैं, जिनसे पता चलता है कि यह सब कुछ इतना प्रभावशाली नहीं है, जैसा कि अनेक लोग प्रदर्शित कर रहे हैं। उदाहऱण के लिए, बीते एक दशक के दौरान शीर्ष दस में शामिल अनेक देशों ने जीडीपी में स्थिरता या गिरावट देखी, जिससे भारत ने आसानी से उनकी जगह ले ली। यानी कुछ अर्थों में जीडीपी तालिका में हमारे उभार के पीछे अन्य देशों की रफ्तार में गिरावट या स्थिरता कहीं अधिक बड़े कारण हैं।

एक और कारक जो उत्साह को कम करता है, वह यह कि जीडीपी तालिका में हम जिन देशों को पीछे छोड़ रहे हैं, वहां के लोगों के जीवन की गुणवत्ता से अपनी तुलना। जापान, ब्रिटेन, या फ्रांस, और अन्य देशों के लोगों को मिलने वाली स्वास्थ्य सेवा, बुनियादी ढांचे, शिक्षा और जीवन की गुणवत्ता की तुलना में हमारे देश के लोग बहुत दूर हैं।

इतने थोड़े समय में भारत ने जीडीपी की दौड़ में जो मुकाम हासिल किया है, वह स्वागतयोग्य है। इस तरक्की के पीछे ढांचागत सुधार, रणनीतिक निवेश और अनुकूल वैश्विक समीकरण हैं। भारत की जीडीपी के पटरी पर लौटने के पीछे सर्विस सेक्टर और टेक इंडस्ट्री के विस्तार के साथ ही घरेलू मांग में तेजी भी है। सरकार का राजस्व बढ़ाने में जीएसटी का बड़ा योगदान है। खुदरा और डिफेंस जैसे संवेदनशील सेक्टर में एफडीआई को मंजूरी ने भी वैश्विक कारोबार को आकर्षित किया है।

भारत में 2019 के बाद से कारोबार में सुगमता बेहतर हुई है और कॉरपोरेट टैक्स में कटौती की गई है, जिससे भारत में निवेश आकर्षित हुआ है और इससे मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर को मदद मिली है। सरकार की मेक इन इंडिया पहल ने औद्योगिक विकास और ढांचागत विकास को तेज किया है, जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिली है।

हाल के वर्षों में, अमेरिका-चीन व्यापार तनाव ने भारत को वैश्विक व्यापार के लिए पारंपरिक आपूर्ति-शृंखला मार्ग के आकर्षक विकल्प के रूप में उभारा है। यह अभी अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुंचा है, लेकिन अगले दशक में, यह बदलाव भारत की जीडीपी वृद्धि के लिए अनुकूल रूप से नतीजे दे सकता है।

भारत को अपनी जीडीपी वृद्धि के इस दौर में सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि उसने जनसांख्यिकी प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया तो जीडीपी के उभार के दौर में उसमें असंतुलन आ सकता है। अभी हमारी अर्थव्यवस्था सस्ते श्रम को आकर्षित कर रही है, और ऐसा तब तक चल सकता है, जब तक कि कोई और देश अच्छा सस्ता श्रम न उपलब्ध करा दे। कई अन्य देशों ने इस चुनौती का सामना किया है, जिससे भारत उनसे सीख सकता है। इसके साथ ही हमें हमारी स्वास्थ्य सेवा, आधारभूत ढांचा और रोजगार की व्यवस्था में सुधार

करने की जरूरत है। भारतीयों की बड़ी आबादी आज ऐसी नौकरी में है, जो उनकी योग्यता के लिहाज से कमतर है।
जैसे-जैसे भारतीयों का संपर्क बढ़ रहा है, उनकी अपेक्षाएं और आकांक्षाएं भी बढ़ेंगी औऱ ये मौजूदा बुनियादी ढांचे और उपलब्ध जीवन की गुणवत्ता से पूरी नहीं हो सकतीं। कई भारतीयों का भारत से बाहर जाना इस वास्तविकता का संकेत है, जिसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए संबोधित करने की जरूरत है। हमें भारत की युवा आबादी की उभरती जरूरतों को पूरा करते हुए, अपने संसाधनों में पुनर्निवेश करना होगा और जो हमारे पास है, उस पर निर्माण करना होगा।

काम के सिलसिले में या घूमने के लिए भी कोई भारतीय जब यूरोप यहां तक कि सिंगापुर और थाईलैंड जैसे दक्षिण पूर्वी एशियाई देश जाता है, तो उसे हैरत होती है कि वहां जैसी सड़कें, हवाई अड्डे और रोजमर्रा की जिंदगी की उन जैसी सुविधाएं हमारे यहां क्यों नहीं हैं। तेज रफ्तार ट्रेनों और उनके साफ-सुथरे शहरों ने इन देशों को आकर्षक बनाया है। यही बात वहां की स्कूली और कॉलेज की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के बारे में कही जा सकती है। इन देशों में जिंदगी की गुणवत्ता कहीं बेहतर है, जबकि उनकी अर्थव्यवस्था आकार में भारत जैसी नहीं हैं। इसके बावजूद वहां आधारभूत संरचना और जीवन स्तर संबंधी पैमाने ऊंचे हैं।

भारत से उठने वाली अनेक तरह की आवाजों से पूरी दुनिया में मिश्रित संदेश गया है। तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था के बावजूद भारत को अभी जीवन स्तर और कामकाज से संबंधित बुनियादी मानक हासिल करने हैं। हम जीडीपी के आंकड़ों से बनी सुर्खियों को देख कर खुश नहीं हो सकते। हमें डाटा के भीतर गोते लगाने की जरूरत है, ताकि हम वह कहानी देख सकें जो उतनी आकर्षक और खूबसूरत नहीं है।

हमें एक और इंडोनेशिया या मलेशिया नहीं बनना चाहिए। इन दोनों देशों ने कभी गौरव की उम्मीद जगाई थी, लेकिन अंततः रास्ते से भटक गए। नारेबाजी और आत्ममुग्धता से परे, हमें गरीबी को संबोधित करना होगा, जिसकी वजह से देश में असमानता है, और यहीं पर सरकार को ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, न कि चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की शेखी बघारने पर।

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