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Home » रफ्तार से होड़ लेते गिग वर्कर, 15 घंटे काम पर

लेंस रिपोर्ट

रफ्तार से होड़ लेते गिग वर्कर, 15 घंटे काम पर

Amandeep Singh
Last updated: May 6, 2025 2:59 pm
Amandeep Singh
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रायपुर। रात के 12 बजे रायपुर की सड़कों पर ब्लिंकिट की डिलीवरी वर्कर सीमा थकान से चूर घर लौट रही हैं। 15 घंटे की कड़ी मेहनत, पति और सास की मदद से बेटे की देखभाल, और फिर अगले दिन फिर वही रुटीन। लेकिन इस मेहनत का कोई ठोस इनाम नहीं न जॉब सिक्योरिटी, न फिक्स सैलरी, न ही बीमा की सुविधा। सीमा का डर वाजिब है अगर डिलीवरी के दौरान कोई हादसा हो जाए, तो इलाज का खर्च कहां से आएगा। सीमा जैसे लाखों गिग वर्कर्स भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। आंकलन है कि पांच सालों में इनकी संख्या 2.35 करोड़ हो जाएगी।  

खबर में खास
गिग इकॉनमी क्या है?गिग वर्कर्स कौन हैं?नीति आयोग क्या कहता है?कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020राज्यों ने क्या किया ?क्या हैं मुश्किलें?गिग वर्कर्स की आपबीतीक्या कहते हैं समाजिक कार्यकर्ताआगे का रास्ता

महानगरों से छोटे शहरों तक फैल चुकी गिग इकॉनमी भारत को रफ्तार दे रही है। लेकिन सवाल उठता हैक्या ई-कॉमर्स कंपनियां, जो गिग वर्कर्रों को ‘पार्टनर’ कहती हैं, क्या वाकई पार्टनर जैसी सुविधाएं देती हैं ?

गिग इकॉनमी क्या है?

गिग इकॉनमी एक ऐसा सिस्टम है, जिसमें लोग छोटे-मोटे या अस्थायी काम करते हैं। जैसे, किसी कंपनी के लिए कुछ घंटे काम करना या प्रोजेक्ट के आधार पर नौकरी मिलना। यह सिस्टम अब दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों से निकलकर छोटे शहरों तक पहुंच गया है। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक 2030 तक गिग इकॉनमी भारत की अर्थव्यवस्था में 1.25 प्रतिशत हिस्सा देगी। यह नौकरियां पैदा कर रहा है और देश को तेजी से आगे बढ़ा रहा है। लेकिन इसके साथ ही गिग वर्कर्स की मुश्किलें भी बढ़ रही हैं।

गिग वर्कर्स कौन हैं?

गिग वर्कर्स वो लोग हैं जो किसी कंपनी के साथ अस्थायी तौर पर काम करते हैं। इन्हें ‘काम करो, पैसे लो’ के आधार पर नौकरी मिलती है। इनमें फ्रीलांसर, ऑनलाइन सर्विस देने वाले, जोमेटो, स्वीगी, ब्लिंकिट में डिलीवरी करने वाले, कैब ड्राइवर और कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले लोग शामिल हैं। ये लोग सालों तक किसी कंपनी के साथ काम कर सकते हैं, लेकिन इन्हें ना तो पेंशन मिलती है, ना स्वास्थ्य बीमा, और ना ही कोई दूसरी सुविधा

नीति आयोग क्या कहता है?

नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में अभी 1 करोड़ गिग वर्कर्स हैं। 2029-30 तक इनकी संख्या 2.35 करोड़ हो सकती है। यानी, ये लोग गैर-कृषि नौकरियों का 6.7 प्रतिशत और कुल नौकरियों का 4.1 प्रतिशत हिस्सा होंगे। 2011-12 में भारत में 25 लाख गिग वर्कर्स थे, जो 2019-20 में 67 लाख हो गए। इस दौरान उनकी हिस्सेदारी 0.54% से बढ़कर 1.33% हो गई। नीति आयोग ने सात चीजों—जैसे जगह, उम्र, पढ़ाई, कमाई, नौकरी का प्रकार, मोबाइल फोन और बैंक खाते के आधार पर गिग वर्कर्स को पहचाना है। यह दिखाता है कि गिग इकॉनमी तेजी से बढ़ रही है, लेकिन इसके साथ मुश्किलें भी आ रही हैं

कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020

2020 में ‘कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी’ नाम का कानून आया। इसमें पहली बार ‘गिग वर्कर’ और ‘प्लेटफॉर्म वर्कर’ को परिभाषित किया गया। यह कानून कहता है कि गिग वर्कर्स को जीवन बीमा, हादसे का बीमा, स्वास्थ्य सुविधाएं, मातृत्व लाभ और बुढ़ापे की सुरक्षा मिलनी चाहिए। इसके लिए एक सामाजिक सुरक्षा फंड बनाने की बात भी है, जिसमें कंपनियों को अपने सालाना कारोबार का एक से दो प्रतिशत देना होगा। लेकिन यह कानून अभी पूरी तरह लागू नहीं हुआ, जिसके कारण गिग वर्कर्स को ये सुविधाएं नहीं मिल रही हैं।

राज्यों ने क्या किया ?

कुछ राज्यों ने गिग वर्कर्स की मदद के लिए कदम उठाए हैं। राजस्थान ने जुलाई 2023 में ‘प्लेटफॉर्म आधारित गिग वर्कर्स अधिनियम, 2023’ पास किया। यह भारत का पहला ऐसा राज्य कानून है। इसमें बीमा, पेंशन, शिकायत निपटाने का सिस्टम और एक कल्याण बोर्ड बनाने की बात है। लेकिन इसे लागू करने में दिक्कतें आ रही हैं।

कर्नाटक ने भी गिग वर्कर्स के लिए कानून बनाने की कोशिश शुरू की है। अभी कोई कानून पास नहीं हुआ, लेकिन सरकार इस पर बातचीत कर रही है। तेलंगाना ने भी एक ड्राफ्ट कानून तैयार किया है, जिसमें गिग वर्कर्स के अधिकारों और सुरक्षा पर जोर है। यह कानून अभी पास नहीं हुआ, लेकिन उम्मीद है कि भविष्य में इससे फायदा होगा।

क्या हैं मुश्किलें?

गिग वर्कर्स को कानून में जगह मिली है, लेकिन उन्हें आम कर्मचारियों जैसे फायदे नहीं मिलते हैं। इसमें भविष्य निधि, ग्रेच्युटी या पेड छुट्टियां शामिल हैं। सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं अभी शुरूआती दौर में हैं, और कई राज्यों में नियम भी पक्के नहीं हुए हैं। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कहा है कि अगर कानून में सामाजिक सुरक्षा की बात है, तो गिग वर्कर्स के हक को नीतियों के बहाने नहीं रोका जा सकता।

गिग वर्कर्स की आपबीती

सीमा की तरह ही, जोमैटो के डिलीवरी वर्कर जितेंद्र कहते हैं,  मैं रोज 12 घंटे काम करता हूं, 700-800 रुपये कमा लेता हूं। लेकिन लोकेशन की दिक्कत होती है। नौकरी की कोई गारंटी नहीं। सरकार अगर कुछ करे तो अच्छा होगा।  जोमैटो के ही मनीष कहते हैं, डिलीवरी के दौरान अगर कोई हादसा हो जाए, तो बीमा नहीं है। सरकार हमारी मदद करे। इसी तरह जौमेटो में काम करने वाले मनु कहते हैं, मैं रात को काम करता हूं, दिन मेरा दूसरा काम है, पहले आर्डर में अच्छे पैसे मिलते थे, अब कम पैसे मिलते हैं। ये कहानियां गिग वर्कर्स की जिंदगी की मुश्किलों को साफ दिखाती हैं।

क्या कहते हैं समाजिक कार्यकर्ता

समाजिक कार्यकर्ता गौतम बंधोपाध्याय कहते हैं कि गिग वर्कर्स का संवैधैनिक अधिकार, समाजिक सुरक्षा, उनकी वर्किंग कंडीशन इन सभी पर चर्चा चल रही है। पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने भी इस ओर थोड़ा ध्यान दिया है। इसके अलावा कई राज्यों ने भी गिग वर्कर्स के लिए प्रयास किए हैं। लेकिन ये अबतक लागू नहीं हो पाया है। इसमें संवेदना और राजनैतिक इच्छा शक्ति की भी जरुरत है, तब ही इनके हितों का रक्षण किया जा सकता है। सरकार को जल्द से जल्द इनके बारे में सोचते हुए दमदार एक्ट बनाना चाहिए।   

आगे का रास्ता

गिग इकॉनमी भारत की अर्थव्यवस्था को तेजी से बढ़ा रही है। लेकिन सीमा, जितेंद्र, मनीष औ मनु जैसे वर्कर्स की मेहनत का सम्मान करने के लिए उन्हें सुरक्षा और सुविधाएं देना जरूरी है। कानूनों को पूरी तरह लागू करना, कंपनियों को जिम्मेदार बनाना और नीतियों में सुधार करना इस क्षेत्र को और बेहतर बना सकता है। अगर गिग वर्कर्स को सही सुविधाएं मिलें, तो उनकी जिंदगी आसान होगी और भारत की अर्थव्यवस्था को और मजबूती मिलेगी।


यह भी देखें : रायपुर में भाई का शव लेने बैगा परिवार को देनी पड़ी रिश्वत, फिर भी नहीं मिला शव

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