
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी के मशहूर व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने कहा था, ‘दिवस कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस। कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता।’ तो आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। और बिना किसी किंतु-परंतु के बेझिझक कहा जा सकता है कि देश और दुनिया में मीडिया आज उतनी ही स्वतंत्र है, जितना जनतंत्र — दुनिया की जानी-मानी पत्रिका इकोनोमिस्ट (Economist) के ताजा डेमोक्रेसी इंडेक्स के अनुसार लोकतांत्रिक संस्थाओं, नागरिक स्वतंत्रता और दूसरे मानकों के आधार पर दुनिया भर में प्रजातांत्रिक मूल्यों में अब तक की सबसे बड़ी गिरावट (5.17%) दर्ज की गई है, तानाशाही शासनों की तादाद बढ़ी है, और विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र का डंका बजाने वाला अमेरिका ‘Flawed Democracy’ है, यानी वहां का लोकतंत्र दोषपूर्ण है।
भारत के लेकर क्या आईना दिखाया जाना चाहिए (?) क्योंकि जो अक्स उभरता है, वो बेहद डरावना है।
चुनावों में वोटों की तादाद में हो रही बड़ी हेर-फेर का इलजाम, ईडी जैसी संस्थाओं का बेजा इस्तेमाल, बनी-बनाई सरकारों का गिराया जाना, राज्यपालों का सूबों की विपक्षी सरकारों के कामों में बाधा बनना, अल्पसंख्यक विरोधी कानून, मन के मुताबिक न हो तो देश की सबसे बड़ी अदालत के खिलाफ भी गैर-कानूनी बयान …
गर्ज की एक लंबी लिस्ट है और जब लोकतंत्र पर ही इतने तरह के बादल छाए हैं, तो प्रेस, मीडिया या फिर अभिव्यक्ति का कोई भी माध्यम किस तरह से मौजूदा वातावरण से प्रभावित हुए रह सकता है!
हिंदू-मुस्लिम में रंगी पत्रकारिता
गालिब के लफ्जों में कहें तो
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
पहलगाम हादसे के बाद इंटेलीजेंट, सुरक्षा की कमी और दूसरी बातों को लेकर सवाल उठाने वाली तीन महिलाओं, नेहा राठौर, मादरी काकोती और शमिता यादव के खिलाफ पुलिस केस दर्ज कर दिया गया है।
इस तरह के भारत-विरोध का आरोप लगाने वाले पुलिस केस ज्यादातर खुद प्रशासन की शह पर होते हैं, मगर उससे अधिक खतरनाक है खुद मीडिया के एक हिस्से के जरिये इस तरह के दबाव बनाना या फिर उस भीड़ का हिस्सा बन जाना और भारतीय मीडिया का ऐसा करना वर्तमान दौर में अपवाद नहीं रह गया है।
पहलगाम हमले के बाद टीवी चैनलों ने जिस तरह से पूरे हमले को सिर्फ हिंदू-मुस्लिम का रंग दिया जिसके परिणाम स्वरूप कश्मीरियों को मुल्क के कई हिस्सों में ‘हेट-क्राईम’ का सामना करना पड़ा।
खबर है कि मध्य प्रदेश में चंद जाने-माने अखबार अपराध की घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके खिलाफ कुछ प्रबुद्ध नागरिकों ने संबंधित संस्थाओं में शिकायतें दर्ज करवाई हैं।
आखिर कैसे पहुँच गए यहाँ तक हम कि जब एक नामी एंकर पहलगाम हमले के बाद श्रीनगर पहुंची तो स्थानीय लोग उनके सामने कहने लगे कि वो पॉजिटिव बातों पर अपना कैमरा बंद करवाने का इशारा कर रही हैं और सिर्फ खास किस्म के एंगल को बढ़ावा देना चाहती है?!
टूटता भरोसा
ये एक बड़ा ही खतरनाक पहलू है: लोकतांत्रिक संस्थाओं से आम जन के भरोसे का टूट जाना, प्रेस या मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताया गया है। क्या मीडिया का ये औंधे गिरना फटाफट पत्रकारिता की नतीजा है, क्योंकि उसमें परवाह इस बात की नहीं होती कि हम कितना सही हैं बल्कि जोर होता है ‘सबसे तेज़’ पर।
या ये कमी है प्रशिक्षण की, क्योंकि कई बार देखा गया है कि सालों से पुलिस या अपराध से संबंधित ख़बरें करने वाले रिपोर्टरों को भी गिरफ्तारी, पुलिस द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया जाना जैसी बातों का फर्क नहीं मालूम होता।
ये बात उनकी समझ से परे होती है कि कथित पुलिस एंकाउंटर न्यायिक तौर पर extra judicial killing, न्याय की परिधि से बाहर की गई हत्या, मानी गई है।
क्या इस बात को समझाए जाने की जरूरत है कि जिस व्यक्ति के खिलाफ रिपोर्ट में किसी तरह का आरोप लगाया जा रहा है उसे इस बात का मौका दिया जाना चाहिए कि वो अपना पक्ष रख सके।
मानहानि क्या है, और किन-किन मामलों में दर्ज हो सकता है?
मीडिया में काम करने वाले लोगों में क्या Diversity, या बहुरुपता लाने की जरूरत है, ताकि एक तरफ को झुक रही पत्रकारिता को बैलेंस किया जा सके? अधिक महिलाएँ, बहुजन, ग्रामीण क्षेत्रों से आए हुए लोग क्योंकि इन क्षेत्रों से जुड़े कामों में भारतीय प्रेस का इतिहास बहुत क़ाबिले तारीफ़ नहीं रहा है।
मशहूर पत्रकार विनोद मेहता ने एक बार कहा था कि मीडिया के सुचारू रूप से चलने के लिए बेहद जरूरी है भरोसा, ये मीडिया के बिजनेस के लिए भी ज़रूरी है।
हालात यहाँ तक आ पहंचे हैं कि मीडिया को खुद कई हिस्सों में बाँट दिया गया है, एक को जो सरकार के पक्ष में खड़ा दिखता है उसे गोदी मीडिया बुलाया जाता है। दूसरा यूट्बूर्स (सारे नहीं) कि शक्ल में देखा जा सकता है। अगर गोदी मीडिया पर आरोप है सिर्फ वही कहने का ‘जो उससे कहा जाता है कहने को’, तो यूट्यूबर्स की दुनिया में जाते ही लगता है, जैसे नरेंद्र मोदी सरकार कल ही जनता उखाड़ फेंकेगी, दोनों ही सच से बहुत दूर हैं।
जरूरत है मीडिया को स्टूडियो की बहसों से परे फिर से पुराने मानकों को ध्यान में रखकर मज़बूत किया जाए – news is sacred, comment is free; खबर में मिलावट करें, कमेंट करने को आप स्वतंत्र हैं।
झुकने कहा था, रेंगने लगे
आज के दौर में जबकि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है, जो दावा करते हैं कि वो टीवी नहीं देखते, सोशल मीडिया ने अखबारों-मैगजीन की बिक्री को तकरीबन खत्म कर दिया है, और समाचार माध्यम अपने वजूद को क़ायम रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं जरूरत है कि बिजनेस को बढ़ाने के साथ भरोसा कायम रखने या फिर से बेहतर बनाने की बात को नज़रअंदाज़ न किया जाए।
मीडिया को ये याद रखना होगा कि समाचार पहुँचाने के साथ-साथ उनकी ज़िम्मेदारी लोगों को शिक्षित करने की भी है।
बाबा रामदेव के शर्बत मामले की रिपोर्टिंग करते वक्त ध्यान रखना होगा ये बताने का भी कि आर्युवैदिक दवाओं की कंपनी चलाने वाले और खुद को योग गुरु कहने वाले रामदेव अपनी कंपनी का शर्बत बेचने की तैयारी में हैं और पूर्व में नूडल्स के मामले में जिस तरह का प्रचार किया गया था।
‘मीडिया को सुचारु रूप से चलाने में भारत सरकार की जो अनथक कोशिशें’ रही हैं उनका ज़िक्र तो क्या ही करना। रिपोर्ट्रस विदाउट बॉर्ड्स ने साल 2025 की रिपोर्ट में 180 देशों में से भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता को 151वें नंबर पर रखा है। न्यूज क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकास्थ्या और सिद्दीक कप्पन की गिरफ्तारी, और बीबीसी के दिल्ली कार्यालय पर इनकम टैक्स का छापा, ये ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने भारतीय प्रेस को यहां पहुंचाया।
बीबीसी पर पड़े छापे के तो हम खुद गवाह रहे हैं: जहां कुछ अनजान लोग अचानक से घुसते हैं कि मौजूद कर्मियों को डांट-डपट कर रहे होते हैं बिना किसी तरह का कागज दिखाए कि अगर छापा है तो क्या है, छापा मारने आए लोगों की पहचान क्या है, नाम, पहचान पत्र। सरकारी लोग अपना नाम, पहचान पत्र तब दिखाते हैं, जब हमारे जैसे इक्का-दुक्का लोग कड़े शब्दों में उन अनजान लोगों का सामना करते हैं।
मीडिया पर सरकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबावों की एक लंबी सूची तैयार हो सकती है और शायद एक समय होगी भी जैसा आपातकाल के समय को लेकर बार-बार उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है। इत्तेफाक की बात है जिनपर आज प्रेस पर दबाव बनाने का आरोप है, यहीं लोग आपातकाल में मीडिया का गला घोंटने की बात करते हैं, जो कि सच भी है।
भारत के प्रेस का पूरा इतिहास बहुत सुनहरा नहीं रहा है। बहुजन, ग्रामीण, महिला, गरीबों को लेकर। लेकिन इमरजेंसी को लेकर कुछ मीडिया संस्थानों को छोड़कर बेहद शर्मनाक। पूर्व उप प्रधानमंत्री एलके आडवाणी ने कहा था, जब उन्हें झुकने के लिए कहा गया तो वो रेंगने लगे।