सवाल यह नहीं है कि सरकार ने जाति जनगणना के ऐलान के लिए ऐसा समय क्यों चुना, जब देश पहलगाम में हुए बर्बर आतंकी हमले से आहत है, यह सवाल भी नहीं है कि क्या यह कदम बिहार के आसन्न चुनाव को देखकर लिया गया है। दरअसल मोदी सरकार एक दशक से भी लंबे समय से जाति जनगणना को न केवल टालती आई है, बल्कि 2021 में तो बकायदा लोकसभा में सरकार ने कहा था कि उसने नीतिगत निर्णय लिया है कि अभी एससी और एसटी को छोड़कर जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी। यही नहीं, 2021 में प्रस्तावित जनगणना को कोविड-19 की महामारी के कारण टाल दिया गया और सरकार ने यूपीए के समय कराए गए सामाजिक आर्थिक जनगणना के आंकड़ों को भी खारिज कर दिया था। सचाई यह है कि पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस, राजद, डीएमके, एआईडीएमके से लेकर भाजपा का सहयोगी जनता दल (यू) तक जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। इस मुद्दे पर हाल के दिनों में लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने जिस तरह दबाव बनाया, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता और उनकी इस मांग को भी, कि पचास फीसदी आरक्षण की दीवार टूटनी चाहिए। यहां यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि राहुल ने कहा था कि हमारी सरकार आई तो जाति जनगणना ही नहीं, बल्कि आर्थिक सर्वे भी करवाया जाएगा। दरअसल जातिगत आंकड़ों के बिना सही मायने में समावेशी और समतामूलक समाज बनना असंभव है। असल में यह शुरुआत है, रास्ता अभी बहुत लंबा है।