ताड़मेटला से दानिश अनवर, ओरछा से बप्पी राय और गंगालूर से नितिन मिश्रा की रिपोर्ट
“ स्कूल बहुत दूर है सर… पढ़ाई करके क्या करेंगे… । नल लगा है, लेकिन पानी नहीं आता है सर…। दूर से राशन लेकर आ रहा हूं सर…। नदी में पुल नहीं है… बारिश के महीनों में स्कूल नहीं जा पाते। ” बस्तर के नक्सल बहुल इलाकों में नौजवानों और बच्चों की बातें आपको चौंका सकती हैं। यह मध्य भारत के केंद्र में जंगलों से घिरा बस्तर का वह इलाका है, जहां इन दिनों सुरक्षा बल आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर एक बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री कह रहे हैं कि यह माओवादियों से आखिरी लड़ाई है। सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच जारी संघर्ष के बीच ऐसी कई तस्वीरें हैं… बस्तर में द लेंस की टीम जिससे रू-ब-रू हुई।
ताड़मेटला में हालात अब भी नहीं बदले
मध्य अप्रैल में सूरज चढ़ने लगा है। अमूमन जंगलों से घिरे इस इलाके में गर्मियां भी खासी पड़ती हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब चार सौ किलोमीटर दूर स्थित सुकमा से हम 62 किलोमीटर दूर चिंतागुफा की ओर बढ़े और फिर ताड़मेटला की ओर जो पहली बार 2010 में तब चर्चा में आया था, जब सीआरपीएफ के 76 जवान नक्सली हमले में शहीद हो गए थे। मार्च, 2011 में ताड़मेटला में आगजनी कांड ने भी खासा ध्यान खींचा था। 2012 में नए बने जिले सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को इसी इलाके से नक्सलियों ने अगवा कर लिया था।

ताड़मेटला से चिंतागुफा होते हुए चिंतलनार है। इस इलाके में अमूमन आवाजाही कम ही होती है, लेकिन सीआरपीएफ के कैंप के कारण जवानों की हलचल है। आगे का रास्ता एक जवान ने ही बताया। कुछ दूरी पर ही गदगदमेट्टा कैंप के एक और जवान से जब हमने आगे का रास्ता पूछा, तो वह जानना चाहता था कि हम कौन हैं और ताड़मेटला क्यों जाना चाहते हैं। औपचारिक परिचय के बाद उनके बताए रास्ते पर हम आगे बढ़े और हमारा सामना मिनपा में एक और कैंप से हुआ। यहां पहुंचकर पता चला कि ताड़मेटला का रास्ता पीछे छूट चुका है। बाइक से आ रहे एक युवक ने हमें रास्ता बताया।

बस्तर तक विकास की सड़क अभी ठीक से नहीं पहुंची है। हमें ताड़मेटला के लिए आगे पैदल जाना पड़ा। बाइक सवार उस जवान के बताए रास्ते पर हम निकल पड़े।

ताड़मेटला जाने वाले रास्ते पर चिलचिलाती धूप में जंगल से होते हुए हम आगे जा रहे थे कि रास्ते पर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति चावल की बोरी कंधे में लाद कर जाते दिखा। उसके साथ उसका बेटा भी था, जो साइकिल में बोरी लादे जा रहा था। पूछने पर उसने अपना नाम माड़वी हेमू बताया। इस तरह बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। उसने बताया कि चावल खरीदने के लिए बुरकापाल सोसायटी जाना पड़ता है। गांव में कोई राशन की दुकान नहीं है, इसलिए कुछ भी सामान खरीदने के लिए गांव से बुरकापाल या फिर दोरनापाल जाना पड़ता है।

इस रास्ते में चार किलोमीटर चलने के बाद ट्रैक्टर दिखा। ट्रैक्टर की ट्रॉली में कई महिलाएं थीं, जो चावल लेकर बुरकापाल से आ रही थीं। हमने ट्रैक्टर चला रहे सुशील से कहा कि हमें भी वो अपने साथ ताड़मेटला ले चले, उसने हमें अपने साथ बैठा लिया।
ट्रैक्टर में बैठी 17 वर्ष की एक लड़की से जब हमने जानना चाहा कि क्या वह पढ़ाई करती है। उसका जवाब सुनिए, “स्कूल बहुत दूर है, क्या करेंगे जाकर? कभी-कभी काम पर जाते हैं। महुआ बीन कर बेचते हैं।“

थोड़ी देर में है ताड़मेटला पहुंचे। ताड़ के पेड़ों से घिरे ताड़मेटला के कच्चे घरों की छतों पर इन दिनों इमली और महुआ सूख रही है। गांव के प्रायः सभी घरों में ताले लटक रहे हैं। इतने में एक घर पर नजर पड़ी, जहां एक बुजुर्ग खाट पर लेटे हुए थे। उन्हें हिन्दी नहीं आती थी। हम उनसे कुछ बात करना चाहते थे, हमारे बीच भाषा आड़े आई।
इसी बीच, एक बाइक से दो युवक आए। हमने उन्हें रोका। एक युवक कवासी ने गांव के बारे बताया कि दो साल पहले गांव में नल कनेक्शन लगाया गया था। लेकिन, अब तक इसमें पानी नहीं आया है। एक टंकी भी लगाई गई है, जो टूट गई है। एक हैंडपंप है आंगनबाड़ी के पास वहीं से पानी लाते हैं। गांव में कोई भी अस्पताल नहीं है। इलाज के लिए दोरनापाल जाते हैं।

नजदीक खड़े एक और युवक माड़वी सुशील ने इस बातचीत में यह कहते हुए हस्तक्षेप किया, गांव में हजार लोग हैं, लेकिन 235 लोगों ने ही वोट डाला! वह बताता है कि बहुत पहले यहां एक कैंप लगा था, जिसमें आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड बना था। कई सालों से कोई कैंप नहीं लगा, जिसकी वजह से वोटर आईडी कार्ड और कई लोगों के पास आधार कार्ड तक नहीं है।

द लेंस टीम ने वहां कई और लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन कोई भी बात करने को तैयार न हुआ। गांव में आंगनबाड़ी और स्कूल तो है। लेकिन आंधी में आंगनबाड़ी का छप्पर उड़ गया है। एक छोटे हॉल के बराबर कमरे के आधे हिस्से में छत थी। यहां भी कोई बात करने को तैयार नहीं हुआ।


करीब दो घंटे बाद वापस लौटते वक्त जंगल के रास्ते पर एक बच्ची साइकल पर चावल लेकर जाती दिखी। उससे पूछा कि कहां से आ रही हो, तो उसे हमारी बात समझ नहीं आई। हमें समझ आया कि वह अनाज लेने गई हुई थी। आगे बढ़े तो सर पर बोरी रखीं दो महिलाएं और एक बुजुर्ग मिले। पसीने से तरबतर बुजुर्ग ने अपना नाम माड़वी हेमू बताया।
उन्होंने बताया कि वह बुरकापाल से चावल लेने गए थे। सोसायटी से चावल लेकर गांव जा रहे हैं। एक सप्ताह में पांच से छह बार बाजार जाना पड़ता है। सड़क नहीं है, तो परेशानी होती है, पैदल ही चलना पड़ता है। इतना पैसा नहीं होता कि ट्रैक्टर से वहां तक पहुंच पाए। कई बार खाने के लिए कुछ नहीं रहता, तो भूखे पेट ही सोना पड़ता है।

ओरछा के हांदावाड़ा में नहीं मिल रहा साफ पानी
दंतेवाड़ा – नारायणपुर बॉर्डर में मौजूद ओरछा ब्लॉक है। यह नारायणपुर जिले में आता है। हांदावाड़ा गांव की तरफ रवाना हुए तो चारों ओर से पहाड़ों से घिरे और प्रकृति के गोद में बसे इस गांव को देखकर मन मोहित हो गया। यहां प्राकृतिक संसाधनों और वनोपज का भंडार है। यहां पानी के स्रोत की कोई कमी नहीं है।

पहाड़ों से नीचे आने वाले झरने इस गांव को और खूबसूरत बनाते हैं। लेकिन, जब इन्हीं पानी को पीने के इस्तेमाल की बात आती है तो यह बीमारी का कारण बनती है। इस पानी को पीने के बाद यहां के ग्रामीणों को मलेरिया, टाइफाइड, डेंगू जैसी बीमारियां होती हैं। आजादी के 8 दशक के बाद भी आज तक यहां के ग्रामीण नाले के किनारे गड्ढा खोदकर (चुवा) का पानी पीने को मजबूर हैं।

हांदावाड़ा गांव और उसके आसपास के दर्जन भर गांव में पेयजल के लिए कोई बोरिंग नहीं है। अगर कहीं एक दो जगह बोरिंग भी है तो वो भी महीनों से खराब पड़ी है। उसकी भी कोई सुध लेने वाला नहीं है। इन गांव के लोगों की आजीविका का मुख्य स्त्रोत वनोपज ही है। वनोपज पर ही इनकी जिंदगी निर्भर है। जंगल, नदी- नाले, पहाड़, पशु-पक्षी… यहां के लोगों की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है।
हांदावाड़ा गांव के बाद दूसरी तरफ अबूझमाड़ क्षेत्र में पहुंचे। अबूझमाड़ के बारे में एक समय में कहा जाता था कि यह दुनिया से कटा हुआ इलाका है। यहां सड़क भी नहीं थी। हवाई रास्ते से हेलीकॉप्टर से यहां पहुंचा जाता था।
सरकारों के लाख दावे के बावजूद यह एक कड़वी सच्चाई है कि बस्तर का विकास केवल कागजों में ही हुआ है। आजादी के आठ दशक के बाद भी सरकार बस्तर के कई दर्जनों गांव में मुलभुत सुविधाएं भी नहीं पहुंचा सकी है।

हांदावाड़ा, मोरोनार, कुशमेली, परळणार, कावर जैसे दर्जनों गांव आज भी सरकारी सुविधाओं से दूर हैं। यहां के लोग आज भी बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं।

गंगालूर के पुसनार में अब भी नदी पार कर होती है आवाजाही
बीजापुर से 25 किलोमीटर दूर गंगालूर में सुबह के 10 बज रहें हैं, गंगालूर का बाजार सजा हुआ है, महुआ, सल्फी के साथ रोजमर्रा के सामान बाजार में लाए गए हैं। हमें गंगालूर से पुसनार गांव के बंटीपारा जाना है। हम लोग बंटीपारा के लिए रवाना हुए। चारों ओर महुआ के पेड़ से महुआ झड़ रहा है, इसकी सुगंध ने वातावरण को अपने आगोश में ले रखा है। यहां से बैलाडीला पहाड़ का सीधा दीदार हो रहा है।
बंटीपारा गंगालूर से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर है। यहां अभी सड़क का काम चल रहा है। कुछ महिलाएं हाथ में राशन कार्ड लिए आगे बढ़ रही हैं। पूछने पर उनमें से एक महिला ने मुस्कुराकर कहा कि चावल और राशन का सामान खरीदने गंगालूर जा रहें हैं सर।

लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद बंटी पारा से पहले रास्ते में एक नदी है। नदी में घुटने तक पानी है। एक नौजवान समीर कुंजाम नदी पार कर रहा है। उसने बताया कि यही एक रास्ता है, जहां से गांव के लोग आना–जाना करते हैं। बरसात के दिनों में बहुत ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जब इमरजेंसी होती है, तो नदी के दोनों ओर पेड़ों पर रस्सी बांधकर नदी पार करते हैं। गांव तक पहुंचने के लिए कोई सड़क नहीं है। अभी कम पानी है, तो बाइक पार हो जाती है। स्कूल और अस्पताल है लेकिन कोई आता नहीं है।

नदी पार करते ही बाइक सवार लच्छिंदर हेमला से मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि किसी काम से गांव तक आया हूं। अक्सर यहां आता रहता हूं। गंगालूर प्राथमिक स्कूल में शिक्षक हूं। उन्होंने कहा कि गांव तक पहुंचने का रास्ता नहीं है, बरसात के समय चुनौती और बढ़ जाती है। यहां के स्कूल में भी पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं पहुंच पाते हैं। अस्पताल में कई दिनों से ताला लगा है।

गांव के मुहाने पर एक बुजुर्ग साइकिल पर कुछ सामान लेकर जाते दिखे। उन्होंने अपना नाम समरू बताया। वह सल्फी और महुआ लेकर बेचने के लिए गंगालूर जा रहे थे। वहां से वह जरूरी सामान लेकर वापस घर लौट जाएंगे। पगडंडी के सहारे हम गांव के अस्पताल तक पहुंचे। अस्पताल तक पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं है। यहां ताला लगा हुआ है। अस्पताल की दीवारों पर भी किसी डॉक्टर या अन्य सहयोगी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। अस्पताल में बिजली की सप्लाई भी नहीं है।

गांव के दूसरे कोने पर स्कूल बनाया गया है। इस स्कूल में एक कमरा है। एक छोटी जगह और है। यहां मिट्टी के चूल्हों पर बच्चों के लिए खाना बनाया जाता है।
गांव में मिले एक युवक गंगाराम ने बताया कि गांव में स्कूल तीसरी तक है। आगे की पढ़ाई के लिए गंगालूर जाना पड़ता है। रास्ते में पड़ने वाली नदी बरसात में भरी रहती है। जरूरत पड़ती है, तो अच्छे तैराकों के साथ नदी पार करना पड़ता है। अस्पताल बना दिया गया है लेकिन कोई सुविधाएं नहीं हैं, डॉक्टर और नर्स भी नहीं रहते। किसी की तबीयत खराब होने पर गंगालूर जाना पड़ता है। एंबुलेंस गांव तक नहीं आती।
गांव से वापस लौटते वक्त तीन नाबालिग साइकल पर अनाज की बोरी लेकर आते दिखे। दस से 15 साल के इन किशोरों में से एक ने बताया कि घर में चार सदस्य हैं- भाई और मां-पिता। उसने बताया कि वह पुलिस कैंप से चावल लेकर आ रहा है।

कभी बस्तर के कमिश्रर रहे कवि सुदीप बनर्जी की एक कविता है, इस वक़्त स्कूल जा रहे हैं बच्चे/ अपनी जैसी भी जाहिल दिनचर्या है/ उसमें कुछ हौसले-से ही दाख़िल हो रहे हैं/ वे भी बच्चे, जिनके लिए स्कूल अभी खुला नहीं है /
इन बच्चों ने बताया कि उन्हें स्कूल जाने के लिए नदी पार करनी पड़ती है। बरसात में जब नदी भरी होती है, तो गांव में ही रहना पड़ता है।
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