Nepal : नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने कुछ दिन पहले कहा था, “प्रजातंत्र एक हाईवे की तरह है, जिसमें ‘रिवर्स गियर‘ नहीं होता है। कभी-कभी तेज मोड़ के कारण अस्थायी रूप से पीछे जाना पड़ता है, लेकिन हमें आगे बढ़ने पर ध्यान देना चाहिए।“
करीब 16 साल पहले मई 2008 में नेपाल में 240 साल से चली आ रही राजशाही का अंत हुआ और लोकतंत्र की बहाली हुई। माओवादी नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड‘ पहले गणतांत्रिक प्रधानमंत्री बने। जब प्रचंड ने बागडोर अपने हाथ में ली तो गरीबी, बेरोजगारी और गंभीर स्वास्थ्य संकट से जूझता नेपाल उनको मिला था।
माओवादियों ने भी राजशाही के दौरान बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया। सबसे बड़ा माओवादी हमला राजशाही के अंत से पहले 16 अगस्त 2002 को हुआ था, जब माओवादी विद्रोहियों ने खारपांडी (खारपानी) और खारबारी में सेना की चौकियों पर हमला कर दिया था। इस घटना में 100 से अधिक सुरक्षाकर्मी मारे गए थे।
राजशाही काल, विशेषकर राणा शासन (1846-1951) के दौरान नेपाल में बेरोजगारी और भुखमरी गंभीर समस्याएं थीं। औद्योगिक विकास न के बराबर था और सरकारी नौकरियां केवल उच्च वर्गों तक सीमित थीं। जाति, वर्ग और क्षेत्रीय असमानता के कारण रोजगार और भोजन तक पहुंच सीमित थी।
2008 के बाद से नेपाल में गणतांत्रिक राज्य की स्थापना को 17 साल ही हुए हैं। संविधान को लागू हुए 10 साल भी पूरे नहीं हुए, इस दौरान नेपाल में 14 सरकारें बदल गईं।अब फिर नेपाल में हाल के दिनों में राजशाही और हिंदू राष्ट्र के समर्थन में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं।
राजशाही के अंत, लोकतंत्र बहाली, हिंदू राष्ट्र के भंवर और राजनीतिक अस्थिरिता के बीच नेपाल ने बीते एक दशक में अर्थ, शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या हासिल किया। सवाल यह भी है कि लोकतंत्र आने के बाद नेपाल ने जो कुछ हासिल किया है, कहीं उस पर फिर से संकट तो नहीं है। इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश इस रिपोर्ट में :-
Nepal की अर्थव्यवस्था
2008 से 2023 तक नेपाल की अर्थव्यवस्था में औसतन 4-5% की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई। सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में वृद्धि हुई और प्रति व्यक्ति आय लगभग 200 डॉलर से बढ़कर 1,300 डॉलर के आसपास पहुंच गई। यह वृद्धि मुख्य रूप से रेमिटेंस, कृषि और कुछ हद तक पर्यटन के कारण हुई है।
किसी दूसरे देश में रह रहे व्यक्ति द्वारा अपने देश में पैसे भेजने को रेमिटेंस कहते हैं। नेपाल की अर्थव्यवस्था में रेमिटेंस का बड़ा योगदान रहा, जो जीडीपी का लगभग 25-30% हिस्सा है। विदेशों में काम करने वाले नेपाली श्रमिकों द्वारा भेजा गया धन ग्रामीण परिवारों की आय का प्रमुख स्रोत है।
Nepal में बेरोजगारी और आर्थिक स्थिति
कोविड-19 महामारी (2020-2021) ने नेपाल की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई, विशेष रूप से पर्यटन और छोटे व्यवसायों को। इसका असर वहां के रोजी रोजगार पर पड़ा है। नेपाल से प्रकाशित अखबार “द हिमालयन टाइम्स” की वेबसाइट पर 28 जनवरी 2025 को प्रकाशित लेख में बताया गया है देश वर्तमान में भी गंभीर बेरोजगारी संकट से जूझ रहा है, जिसने कई युवा श्रमिकों को विदेशों में अवसरों की तलाश करने के लिए मजबूर किया है।
नेपाल में युवा बेरोजगारी दर चिंताजनक रूप से बनी हुई है। 2022 में यह दर 20.52 प्रतिशत थी। 2021 में 22.75 प्रतिशत, 2020 में 23.80 प्रतिशत और 2019 में 19.88 प्रतिशत बेरोजगारी दर रही। नौकरी के लिए नेपाल से पलायन करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
नेपाल के विदेशी रोजगार बोर्ड के अनुसार, कोविड-19 महामारी के बाद के साल में 600,000 से अधिक नेपालियों ने विदेश में नौकरी की तलाश की। हाल के वित्तीय वर्ष में यह संख्या बढ़कर 750,000 से अधिक हो गई। मौजूदा समय में 70 लाख से अधिक नेपाली जो कि देश की कुल आबादी का लगभग 23 फीसदी है विदेश में रह रहे हैं।
नेपाल ने गरीबी में कमी लाने में सफलता हासिल की है, लेकिन क्षेत्रीय असमानता, खाद्य असुरक्षा, और रोजगार की कमी इसे और कम करने में बाधा हैं।
नेपाल में बहुआयामी गरीबी सूचकांक के आधार पर गरीबी को मापा जाता है। उसके आंकड़ों के अनुसार 2014 में 30.1% आबादी गरीबी में थी, जो 2019 तक घटकर 17.4% हो गई। इसका मतलब है कि लगभग 50 लाख लोग गरीबी से बाहर निकले। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी लगभग 15-20% आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है।
हालांकि “द काठमांडू पोस्ट” की वेबसाइट पर प्रकाशित एक लेख नेपाल में गरीबी की दूसरी तस्वीर बयां कर रहा है। लेख के अनुसार नेपाल की गरीबी दर कागज पर तेजी से घट रही है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या गरीबी को सुविधाजनक रूप से उन मापदंडों पर मापा जा रहा है, जो आर्थिक प्रगति का भ्रम पैदा करते हैं।
मालदीव, नेपाल और श्रीलंका के लिए विश्व बैंक के कंट्री डिवीजन निदेशक डेविड सिस्लेन मानते हैं कि नेपाल को जिन नौकरियों की जरूरत है, उनके सृजन के लिए निजी क्षेत्र के नेतृत्व वाली आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है। इसे हासिल करने के लिए नेपाल सुधारों को लागू कर लचीले विकास का लाभ उठा सकता है।
बुनियादी ढांचे की कमी शिक्षा में बाधा
शिक्षा के क्षेत्र में नेपाल में पिछले 15 वर्षों में सुधार तो हुए हैं, लेकिन गुणवत्ता, बुनियादी ढांचे के मामले में अभी भी कई चुनौतियां हैं। साल 2008 में साक्षरता दर में लगभग 54% थी, जो 2023 तक बढ़कर 71% के आसपास पहुंच गई।प्राथमिक शिक्षा में नामांकन दर लगभग 95% तक है। लड़कियों का स्कूल नामांकन बढ़ा है।
सरकार ने मुफ्त शिक्षा नीतियों को लागू किया। तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर जोर दिया गया, जिससे युवाओं को कौशल विकास के अवसर मिले। उच्च शिक्षा में नामांकन अभी भी कम है और निजी स्कूलों पर निर्भरता बढ़ी है, जो गरीब परिवारों के लिए महंगा है। कई स्कूलों में शिक्षकों की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और पुरानी शिक्षण पद्धतियां हैं।
ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में स्कूलों तक पहुंच सीमित है, जिसके कारण खासकर माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर अधिक है। बेवसाइट “द अन्नपूर्णा एक्सप्रेस” पर प्रकाशित लेखमें बताया गया गया है कि अपर्याप्त बुनियादी ढांचे और आधुनिक सुविधाओं, प्रयोगशालाओं और शोध कार्यों में निवेश की कमी नेपाली शैक्षणिक संस्थानों को परेशान करती है।
कुपोषण संकट और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी
राजनीतिक अस्थिरता के बीच नेपाल कुपोषण की भारी समस्या से जूझ रहा है। 2022 में किए गए एक सर्वे के अनुसार 15 से 49 साल के 41% पुरुष बहुत दुबले-पतले हैं। इसी उम्र वर्ग की 34% महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित हैं। इनमें से कुछ को हल्का, कुछ को मध्यम और कुछ को गंभीर एनीमिया है।
5 साल से छोटे बच्चों में कुपोषण बहुत आम है। 2024 के एक अध्ययन के मुताबिक 36% बच्चे बौनेपन से, 27% कम वजन से और 10% कमजोरी से जूझ रहे हैं। यह बताता है कि बच्चों को सही पोषण और इलाज नहीं मिल पा रहा है। “द राइजिंग नेपाल” ने अपने एक लेख में लिखा है कि खाद्य सुरक्षा और पोषण केवल किसी व्यक्ति की सेहत का सवाल नहीं है, यह देश की तरक्की, उत्पादकता और विकास से भी जुड़ा है।
नेपाल में लगभग 25% लोग गरीबी में जी रहे हैं। इन लोगों के पास पौष्टिक भोजन खरीदने की सुविधा नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी नेपाल में डॉक्टरों और नर्सों की भी बहुत कमी है। यहां 1,000 लोगों पर सिर्फ 0.67 डॉक्टर या नर्स हैं, जबकि WHO का मानक 2.3 है। स्वास्थ्य बजट अपर्याप्त है और निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता बढ़ी है, जो गरीबों के लिए महंगी है।
नेपाल में 1990 के बाद की राजनीति

नेपाल में 1990 के बाद की राजनीति एक महत्वपूर्ण परिवर्तन का दौर रही, जब देश ने राजतंत्र के निरंकुश शासन से लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाया। 1990 में लोकतंत्र के लिए आंदोलन के परिणामस्वरूप राजा बीरेंद्र ने बहुदलीय लोकतंत्र को स्वीकार किया और एक नया संविधान लागू हुआ। इसके बाद नेपाल में राजनीतिक दलों को मान्यता मिली और संसदीय व्यवस्था शुरू हुई।
1991 में हुए पहले आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस ने जीत हासिल की और गिरिजा प्रसाद कोइराला देश के पहले लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री बने। इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता रही, क्योंकि सरकारें बार-बार बदलती रहीं। नेपाली कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के बीच सत्ता का संघर्ष प्रमुख रहा। 1996 में माओवादी विद्रोह शुरू हुआ, जिसने देश को गृहयुद्ध की ओर धकेल दिया।
2001 में शाही नरसंहार के बाद राजा ज्ञानेंद्र सत्ता में आए और 2005 में उन्होंने तख्तापलट कर सारी शक्तियां अपने हाथ में ले लीं। इससे लोकतंत्र विरोधी माहौल बना, लेकिन 2006 में दूसरा जनआंदोलन हुआ, जिसके बाद राजा को शक्तियां छोड़नी पड़ीं और अंतरिम सरकार बनी।

राजशाही की मांग के पीछे कौन ?

2008 में राजशाही के अंत के बाद भी नेपाल में स्थिर लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकी। बार-बार सरकारों का बदलना, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता ने जनता में असंतोष पैदा किया। 2020 से राजशाही की बहाली की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। बड़े शहरों में युवा मोटरसाइकिल रैलियां निकाल रहे हैं और “राजा ही देश को बचाएंगे” जैसे नारे लगा रहे हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला (1999) के सलाहकार के रूप में काम कर चुके प्रोफेसर कृष्ण खनाल का मानना है कि यह मौजूदा सरकार की नाकामी और सोशल मीडिया के प्रभाव का नतीजा है।
इस आंदोलन के पीछे मुख्य रूप से राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) जैसे दक्षिणपंथी समूह और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के समर्थक हैं। 2023 में झापा जिले के दुर्गा प्रसाद जैसे प्रभावशाली व्यक्तियों ने भी इस मांग को हवा दी।इसके अलावा कुछ छोटे समूह और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के समर्थक भी इस मांग को बढ़ावा दे रहे हैं। आरपीपी ने 2024 में काठमांडू में बड़े प्रदर्शन किए थे।
नेपाल की पांचवी बड़ी पार्टी में शुमार आरपीपी राजनीतिक लिहाज से कितनी प्रभावशाली है? 2008 के बाद आरपीपी ने 575 सीटों वाली संविधान सभा में 8 सीटें जीती थीं। 2013 के चुनाव में आरपीपी को 13 सीटें मिली, 2017 में 1 सीट और 2022 के चुनाव में 14 सीटें जीत चुकी है।
राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के अलावा कई हिंदू समर्थक और राजशाही समर्थक समूह ने 86 वर्षीय नवराज सूबेदी के नेतृत्व में एक गठबंधन बनाया है। सुबेदी को इस आंदोलन का कमांडर बनाया गया है। सूबेदी 1980 के दशक में पार्टी विहीन पंचायत प्रणाली के दौरान राष्ट्रीय पंचायत अध्यक्ष के रूप में काम कर चुके हैं।
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