
देववंद के दारूल उलूम मदरसे से फतवा जारी करना जायज है। इस मदरसे ने फतवा जारी किया था कि इस्लाम में लड़कियों के बाल काटने और भौहें बनाने की मनाही है। मौलाना सादिक काशमी का कहना है कि लड़कियों का ब्यूटी पार्लर में जाना भी निषिद्ध है। एक समय लड़कियों के नौकरी करके पैसे कमाने के विरुद्ध भी देवबंद से फतवा जारी हुआ था।
मदरसे का कहना था कि इस्लाम लड़कियों के घर से बाहर निकलने, उनके ऑफिस जाने और उन्हें पुरुषों के साथ बैठकर काम करने की इजाजत नहीं देता। देववंद के मौलानाओं के पास क्या और कोई काम नहीं है कि वे लड़कियों के पीछे पड़े हैं? लड़कियां क्या पहनेंगी, क्या नहीं, क्या करेंगी, क्या नहीं, इस बारे में दिशानिर्देश न जाने कब से जारी किए जा रहे हैं।
लड़कियों और औरतों के शरीर के बारे में मौलानाओं की चिंता का कोई ओर-छोर नहीं है। हैरान करने वाली बात यह है कि इस 21वीं शताब्दी में भी बताया जा रहा है कि लड़कियों का बाल काटना, भौहें तराशना और ब्यूटी पार्लर जाना हराम है। ये लोग चाहते हैं कि लड़कियां घर-गृहस्थी निभाएं, बच्चों का पालन-पोषण करें, पतियों को यौन सुख दें और उनके निर्देशों का आंख मूंदकर पालन करें। मानना मुश्किल है कि देवबंद के मौलाना इससे इतर महिलाओं की भूमिका के बारे में कभी सोचते होंगे।
लड़कियों पर बंदिशें क्यों?
मैं प्राय: सुनती हूं कि इस्लाम शांति का धर्म है और इसने महिलाओं को मर्यादा दी है। लेकिन, इस्लाम के इन गुणों के साथ फतवों का तो कोई मेल ही नहीं है। लड़कियां कॉलेजों में नहीं पढ़ सकतीं, नौकरी नहीं कर सकतीं, व्यापार नहीं कर सकतीं, मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं, घर से बाहर नहीं निकल सकतीं, वे किसी मुद्दे पर अपना अलग फैसला नहीं दे सकतीं, आजादी से चल-फिर नहीं सकतीं, प्रेम नहीं कर सकतीं, अपनी पसंद से शादी नहीं कर सकतीं, दूसरे पुरुषों से मेल-मुलाकात नहीं कर सकतीं, हिजाब-बुर्के के बिना सड़क पर कदम नहीं रख सकतीं, पतियों का हुक्म बजाने से इनकार नहीं कर सकतीं, बच्चों के पालन-पोषण में कोई कमी नहीं कर सकतीं, जोर से बात नहीं कर सकतीं, जोर-जोर से हंस नहीं सकतीं-जैसे सामाजिक निर्देशों का अंत नहीं है।
क्या इस तरह स्त्रियों को सर्वोच्च मर्यादा दी जाती है? पुरुष की बेटी, पुरुष की स्त्री, पुरुष की मां और पुरुष की बहन के अलावा जिसका समाज में कोई परिचय ही नहीं है, असल में उसे कोई मर्यादा दी ही नहीं जाती। पुरुष वर्चस्ववादी धार्मिक और समाज व्यवस्था में स्त्रियों का सिर्फ एक ही परिचय है : वह दासी है।
वह खरीदी गई दासी है, सेवा करने वाली दासी है और यौन दासी है। देवबंद के फतवेबाज इससे इतर स्त्रियों का कोई परिचय देखना-सुनना ही नहीं चाहते। अपने सिर के बाल या अपने भौहों का लड़कियां क्या करें, इसका फैसला उन पर ही छोड़ देना चाहिए। पुरुष अपने शरीर का क्या करें, शरीर के किस हिस्से के बाल उन्हें कितना काटना चाहिए या शरीर का कौन-सा हिस्सा वे ढककर रखें, मैंने कभी स्त्रियों को इस बारे में बोलते या पुरुषों को ज्ञान देते हुए नहीं सुना।
पुरुष अपने हिसाब से चलते हैं। उनके स्वच्छंद चलने-फिरने में कोई बाधक नहीं है, यह अच्छी बात है। लेकिन, मुश्किल यह है कि पुरुष स्त्रियों को भी अपने हिसाब से चलने-फिरने, रहने-बोलने के लिए बाध्य और विवश करते हैं। वे आज तक स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्व और पृथक ईयत्ता को स्वीकार ही नहीं कर पाए हैं।
लेकिन, अब जब सभ्य होने की नानाविध कोशिश हो रही है, तब अगर स्त्रियों को उनके जायज अधिकार देकर उन्हें अपना जीवन खुद जीने की स्वतंत्रता नहीं दी जाए, तो हम सभ्य होने की मंजिल तक कभी पहुंच नहीं सकेंगे।
कट्टरता से मुक्ति की राह
जिस तरह धर्म को राष्ट्र से अलग किए बिना राष्ट्र के लिए धर्मनिरपेक्ष होना संभव नहीं, ठीक उसी तरह समाज से धर्म को बाहर किए बिना समान अधिकार पर आधारित एक स्वस्थ और सभ्य समाज बनाना संभव नहीं है। दुनिया को सभ्य बनाने के लिए इसके सिवा कोई रास्ता भी नहीं है। धर्म को राष्ट्र और समाज से बाहर कर उसे व्यक्तिगत विश्वास-अविश्वास के दायरे में आज नहीं, तो कल लाना ही पड़ेगा। धार्मिक संस्थाओं का एक समय दुनिया पर शासन था।
तब धर्म के नाम पर इतनी अराजकता फैलाई जाती थी, मानवाधिकारों का इतना उल्लंघन किया जाता था, स्त्रियों का इतना शोषण होता था कि शासन की जिम्मेदारी धार्मिक प्रतिष्ठानों से ले ली गई। स्त्रियों के अधिकारों को गरिमा प्रदान करने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए, लोकतंत्र को वाकई जमीन पर उतारने के लिए सरकारी और निजी संस्थाओं को कट्टरता से मुक्त करना होगा। देवबंद में धर्म की चर्चा हो, इस पर किसी को आपत्ति नहीं है, लेकिन वहां से कट्टरवाद को मजबूती देने वाले काम हों, तो मुश्किल है।
कट्टरवाद से ही फतवों की दुष्प्रवृत्ति को बल मिलता है। जबकि एक लोकतंत्र में फतवे की कोई जगह नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के पैरों को बेड़ियों से जकड़ देने पर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का क्या होगा? भारत में क्या सिर्फ गैर मुस्लिम महिलाएं ही अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करेंगी, मुस्लिम महिलाएं नहीं? देखा जाए, तो मुस्लिम महिलाओं को न्यूनतम अधिकार देने, उनकी न्यूनतम स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के रास्ते में मुस्लिम पुरुष ही सबसे बड़ी बाधा हैं।
कोई समाज कितना सभ्य और आधुनिक है, इसका पता इससे चलता है कि उस समाज की स्त्रियां कितनी स्वतंत्र हैं। जब मुस्लिम सोच ही मुस्लिमों का शत्रु हो जाए, तो मुस्लिम समाज का आगे बढ़ना बहुत कठिन है। महिलाओं की स्वतंत्रता के खिलाफ फतवे जारी करने, प्रगतिशील लेखकों को फांसी देने के लिए माहौल बनाने, धर्म के नाम पर गैर मुस्लिमों से घृणा करने और उदार चिंतकों को मौत के घाट उतार देने का सिलसिला लगातार जारी है।
अतीत से आगे बढ़ें
बहुतेरे लोगों का कहना है कि केवल मिस्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय के पास ही फतवा जारी करने का अधिकार है, और किसी के पास नहीं। कुछ वर्ष पहले उस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय से एक फतवा जारी हुआ था, ‘महिलाओं का एक ऑफिस में बैठकर पुरुषों के साथ काम करना गैर इस्लामी है।
इस गैर इस्लामी कार्य को इस्लामी करने के लिए ऑफिस में कार्यरत महिलाओं को अपने पुरुष सहकर्मियों को अपना स्तनपान कराना होगा। इससे वे पुरुष सहकर्मी उन महिलाओं की संतानों की तरह हो जाएंगे। संतान के सामने बैठने और काम करने में चूंकि कोई बाधा नहीं है, इसलिए उन स्त्रियों को भी पुरुषों के सामने जाने और उनके साथ बैठकर काम करने में कोई धार्मिक बाधा नहीं रहेगी।’
इस तरह के अतार्किक, अस्वाभाविक, अद्भुत, असभ्य, अमानवीय फतवों के बारे में जानकर लोग हंसते हैं, क्षुब्ध होते हैं। एक समय मुस्लिम लोग वैज्ञानिक थे, उन्होंने बहुत सारी चीजों का आविष्कार किया-यह कहकर उनकी आज की गलतियों पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। सवाल यह है कि मुस्लिम समाज अब क्या कर रहा है, आज उसकी सोच वैज्ञानिक है या नहीं, इन दिनों उसने कौन-सा वैज्ञानिक आविष्कार किया?
क्या पत्थर फेंककर लड़कियों को मार डालने का सिलसिला बंद हुआ है, क्या महिलाओं को दासता की बेड़ियों से मुक्त किया गया है, क्या महिलाओं के शरीर पर से अपनी गुस्सैल आंखें और दखल हटाने का काम हुआ है? सभ्य होने के लिए सबसे पहले यही सब कदम उठाने होंगे। इसके बगैर तो सभ्य समाज गढ़ने का पहला कदम ही गलत हो जाएगा।
देवबंद के महिला-विरोधी फतवों पर अंकुश लगना चाहिए। अगर प्रस्तावों और सुझावों से काम नहीं चलता, तो फतवे के विरुद्ध कानूनी रास्ता अख्तियार करना चाहिए। देश में कानून का राज है, ऐसे में फतवों की तो कोई जरूरत भी नहीं है। औरतों के जीवन को विषैला बना देने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता। लोकतंत्र सबके लिए है। जिस देश में स्त्री-पुरुष, हिंदू-मुस्लिम, छोटे-बड़े-सबके लिए लोकतांत्रिक अधिकार समान नहीं हैं, उस देश में सचमुच का लोकतंत्र है भी या नहीं, इस पर संदेह होता है।
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