Moksha Bhavans in Kashi: मोक्ष प्राप्ति की कामना लेकर काशी में बसने वालों की कहानी, गैर-उत्तर भारतीयों में काशीवास को लेकर उत्साह
वाराणसी। नाम भवानी, उम्र 72 वर्ष, निवास- तेलंगाना, सम्प्रति-मृत्यु की प्रतीक्षा! भवानी, तेलंगाना के भद्राचलम की रहने वाली हैं, वहीँ पर तहसीलदार थीं। काशी के मोहल्ले अस्सी में स्थित मुमक्षु भवन के अहाते में सीढ़ियों पर बैठी भवानी देर तक आँखें बंद करके सूरज से आंखें मिलाती हैं। कम उम्र में वैधव्य को प्राप्त भवानी की दो बेटियां हैं, दोनों अमेरिका में हैं।
भवानी पिछले कई सालों से मोक्ष प्राप्ति के लिए बनारस में ठिकाना ढूंढ़ रही हैं। वह कहती हैं कि इहलोक का दायित्व हमने पूरा किया अब परलोक के दायित्वों का निर्वहन करना है। मुमक्षु भवन में भवानी जैसे तक़रीबन 60 लोग रहते हैं, जिनमे से कुछ पति-पत्नी हैं। ये सभी यहां मृत्यु का इन्तजार कर रहे हैं, जिसे बोल-चाल की भाषा में काशीवास कहते हैं।

मुमक्षु भवन के सचिव के.के काबरा कहते हैं, “हाल के दिनों में काशीवास करने के इच्छुक लोगों की तादाद बढ़ी है, ऐसा क्यों है, समझ से परे है।“ काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनाने में इन मुमक्षुओं के रहने के कई ठिकाने ध्वस्त हो गए, लेकिन इनकी संख्या बढती गई।
काशीवास की प्रतीक्षा करने वालों की भीड़ सिर्फ मुमक्षु भवन में नहीं हैं। नेपाली मंदिर, काशी मुक्ति लाभ केंद्र, भजनाश्रम जैसे केंद्रों पर भी है, जहाँ पर सैकड़ों की संख्या में वृद्ध, युवा स्त्री पुरुष मृत्यु की प्रतीक्षा में जीवनयापन रहे हैं।
अदभुत है कि ईश्वरीय आस्था में चरम को प्राप्त करने और जीवन मरण के चक्र से निकलने को आतुर इन लोगों में से ज्यादातर दक्षिण भारतीय, नेपाली, बंगाली और असमिया हैं। उत्तर भारतीय बेहद कम नजर आते हैं।
काशी जिसका एक नाम अविमुक्त क्षेत्र भी है, मोक्ष नगरी भी कही जाती है। स्कन्द पुराण में कहा गया है कि काशी में मृत्यु होने पर देवता आपका स्वागत करते हैं। एक वक्त यह आम चलन था कि लोग मृत्यु की कगार पर पहुंचे अपने परिजनों को लेकर काशी आ जाते थे।
आज भी बड़ी संख्या में ऐसी महिलाएं और पुरुष बनारस शहर के अलग अलग इलाकों में रहते हैं, जिनका उनके परिजनों ने परित्याग कर दिया है। दूसरी ओर मोक्ष प्राप्ति के लिए वाराणसी का रुख करने वाले इनसे अलग हैं।
Moksha Bhavans in Kashi: नेपाल नरेश के द्वारा संचालित होते मोक्ष भवन
सुबह के पांच बजे हैं। अमूमन बनारस के राजेन्द्र प्रसाद घाट पर गर्मियों की सुबह भीड़ ज्यादा होती है, नतीजतन गंगा में नावों की भीड़ भी बढ़ी है। राजेंद्र प्रसाद घाट से थोड़ा आगे बढ़ने पर ललिता घाट है, यहाँ से मणिकर्णिका की चिताओं से उठता धुंआ साफ नजर आता है।
ललिता घाट की सीढियों पर ऊपर चढ़कर एक गुफानुमा प्रवेश द्वार है जिसे दूर से देखकर डर लगता है कि न जाने किस अज्ञात स्थान पर ले जाएगा लेकिन घुप्प अँधेरे के बीच से होते हुए जब आप भीतर प्रवेश करते हैं तो आपके सामने ललिता देवी का मंदिर और काशीवास की इच्छुक महिलाओं का रहवास नजर आता है। इसे पूर्व नेपाल नरेश राणा बहादुर शाह ने बनवाया था।

ललिता देवी में सुबह की आरती हो रही है। सीढ़ियों पर बैठी 82 साल की प्रभावती इशारे से बैठने को कहती हैं लड़खड़ाती आवाज में कहती हैं “पति की मृत्यु के बाद मैं यहाँ आ गई, अब बेटे यहां से वापस नहीं बुलाते, मैं भी नहीं जाना चाहती। ”
मैं पूछ बैठता हूँ काशी में ही क्यों ? इस सवाल का जवाब प्रभावती मुस्कुराते हुए देती हैं “बेटा, यहाँ से मां गंगा को देखो, क्या यह देखते हुए जीवन मरण से मुक्ति पाना मुश्किल है? प्रभावती कहती है कि मृत्यु की प्रतीक्षा कहना ठीक नहीं है हम मोक्ष प्राप्ति का इन्तजार कर रहे हैं। बातचीत से पता चलता है कि यहाँ के मंदिर और धर्मशाला का संचालन नेपाल नरेश करते हैं।
शिक्षार्थी करते है मुमक्षुओं की सेवा
Moksha Bhavans in Kashi: पशुपतिनाथ धर्मशाला में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग के छात्रों का एक दल सेवाकार्य के लिए आया है जो देखने में नेपाली लगता है लेकिन है हिन्दुस्तानी। उनके विभाग प्रमुख भी साथ ही हैं। सभी मिलकर मुमक्षुओं के वस्त्र धो रहे हैं। साथ में वो कुछ कपडे भी लाये हैं। सामने नीलमणि कोइराला नजर आती है।
पिछले 20 साल से यहाँ रहकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हैं। आठ संतानें थी पांच बेटे, बेटों की मौत हो गई बेटियां ससुराल।मैं अम्मा कहकर बात शुरू करता हूँ तो रो पड़ती हैं फिर सामान्य होकर कहती हैं “अब यही घर है यही हमारा सब कुछ।“

इन महिलाओं की नियमित सेवा के लिए कुछ वैदिक ज्ञान आयर व्याकरण की शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र हर वर्ष आते हैं उन्हें अब यह काम अच्छा लगता है। मैं उनसे जान पाता हूँ कि पहले गुरुकुल और उसके बाद आश्रम में शिक्षा दी जाती है वैदिक ज्ञान के बाद व्याकरण का ज्ञान भी जरुरी है।
मुमक्षुओं के लिए 15 दिन में मृत्यु आवश्यक
काशी मुक्ति लाभ केंद्र का किस्सा अलग है। बनारस के चर्चित फोटोग्राफर जितेन्द्र मोहन बताते हैं कि यहाँ पर 15 दिन की समयसीमा निर्धारित है। अगर आप पंद्रह दिन के अन्दर नहीं मरे तो आपको केंद्र छोड़ना होगा। साथ ही यह भी नियम है कि आपको किसी संक्रामक रोग से ग्रसित नहीं होना चाहिए।
ज्यादातर मुक्ति केन्द्रों में रहने वाली महिलाओं में आपस में बहनापा है कई पति पत्नी साथ में मोक्ष -प्राप्ति का इन्तजार कर रहे। हैदराबाद के राजमणि और उनकी पत्नी 6 वर्षों से मुमक्षु भवन में रह रहे राजमणि की पत्नी अपने पति को स्वामी कहती हैं और नियमित तौर पर उनसे रामकथा सुनती हैं।
पद्मलक्ष्मी अपनी बहन के साथ पिछले चार वर्षों से मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है उनकी बहन दस सालों से। हर कोई देह त्याग की प्रतीक्षा कर रहा है,सबकी नजरों में यह चिर प्रतीक्षा नजर आती है लेकिन उदासी नहीं दिखती।
हैदराबाद के विद्यानगर की रहने वाली 75 साल की पद्मलक्ष्मी कहती हैं यह मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं है मोक्ष प्राप्ति की कोशिश है। पद्मालक्ष्मी के तीन बेटे हैं तीनो अमेरिका के अटलांटा शहर में बड़ी कंपनियों में ऊँचे ओहदे पर हैं।
पीढ़ियों से मोक्ष प्राप्त करते लोग
मध्य प्रदेश की इटारसी की रहने वाली गुलाबो देवी पिछले 30 सालों से मुमक्षु बनकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है। जब अपने पति के साथ यहाँ पर अपनी माँ को काशीवास कराने आई थी तो उस वक्त उनकी उम्र महज 52 वर्ष थी। पहले माँ ने मोक्ष को प्राप्त किया फिर एक दिन पति ने जब पति अंतिम साँसें गिन रहे थे तो उन्होंने गुलाबो देवी से कहा “सुनो ,यह जगह छोड़कर मत जाना।”
पति का कहना था बस फिर क्या था गुलाबो यही की होकर रह गई। इटारसी से वो तीन बेटों,बहुओं और नाती पोतों का भरा पूरा परिवार छोड़ कर आई थी ,अब बच्चे बुलाते हैं मगर गुलाबो नहीं जाना चाहती। हाँ, उन्होंने यहाँ एक ब्राह्मण पुत्र को अपना बेटा बना लिया।

हमसे परिचय करवाते हुए वो अपने दत्तक पुत्र विनोद से पूछती है कि बता तु मुझे अधिक प्रेम करता है कि अपनी असली माँ को?” विनोद मुस्कुराते हुए कहता है ” तुम दोनों माँ हो “। गुलाबो को मृत्यु से भय नहीं लगता कहती है,तीन दिनों पहले गिरकर अपने कमरे में तीन घंटों तक बेहोश रही ,जब होश में आई तो मन में कहा ” कुछ दिन और”। हम पूछते हैं जिंदगी जीना मुश्किल है या मृत्यु ? गुलाबो कहती है बेशक जिंदगी मुश्किल है। गुलाबो को अब घर की याद नहीं आती न वो दुःख का अनुभव करती है।हाँ ,आजकल वो इस बात को लेकर ख़ुशी है कि उन्हें चोट लगने के बाद उनकी मंझली बहु उनसे मिलने आई जिसके बारे में उन्हें लगता रहा था कि वो उन्हें कम प्यार करती है।
दान से चलते हैं मुमक्षुओं के भवन
मुमक्षु भवन के संचालन के लिए धन की व्यवस्था दान से की जाती है। भवन में रहने वालों के आवासीय परिसर के विस्तार काम भी श्रद्धालुओं द्वारा दी गई चंदे की रकम से किया जा रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि ज्यादातर दानकर्ता दक्षिण भारत से हैं। दूसरी तरफ नेपाली मंदिर में सारा आर्थिक इंतजाम नेपाल नरेश के माध्यम से होता है।फिलहाल इस मंदिर का विस्तार प्रस्तावित है ऐसे में नेपाल नरेश द्वारा भेजे गए दान से ही परिसर का विस्तारीकरण किया जाएगा।
धर्म, अर्थ काम के बाद मोक्ष के लिए बनारस
Moksha Bhavans in Kashi: 74 साल के मुरली शास्त्री हैदराबाद के न्यू साइंस कालेज में प्राध्यापक थे दस वर्षों पूर्व सपत्निक काशीवास करने चले आये। मैंने पूछा पत्नी को क्यों ले आये ? तो बोले फैसला उसका था जो बाद में मेरा बन गया। उनकी माँ यही काशीवास कर रही थी जब शास्त्री उनके बीमार करने तीमारदारी करने पहली बार बनारस आये थे।
अब सुबह तीन बजे उठ कर गंगा स्नान पूजा पाठ और किताबें यहीं उनकी दिनचर्या है।एक बेटा आईबीएम् में है दूसरा एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी में। शास्त्री साल के तीन महीने आज भी हैदराबाद चले जाते हैं जब बहुत ठण्ड पड़ती है मैं पूछता हूँ “काशीवास क्यों ” उनका जवाब तत्काल मिलता है धर्म अर्थ काम के बाद मोक्ष ही शेष बचा था ,वो करना जरुरी था”।
शास्त्री कहते हैं “यहां आकर मैं भयमुक्त हो गया ,काशी सिर्फ मोक्ष नहीं दिलाती ,भय से भी मुक्त करती है। शास्त्री के कमरे में सूरज की रोशनी सीधे पड़ रही है ,वो शून्य की तरफ देखते हुए कहते हैं “मैंने यहाँ पर ढेर सारे लोगों को मोक्ष प्राप्त करते देखा मैं खुद भी जन्म मृत्यु के बन्धनों से मुक्त हो चूका हूँ। “गजब का सम्मोहन है। शास्त्री ठीक कहते हैं मृत्यु भी सम्मोहित करती है। स्वर्गीय केदारनाथ सिंह बनारस के बारे में ठीक कहते थे –
“तुमने कभी देखा है
ख़ाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और ख़ाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ”
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