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Home » कहीं आपके खाने में माइक्रोप्लास्टिक तो नहीं !

लेंस रिपोर्ट

कहीं आपके खाने में माइक्रोप्लास्टिक तो नहीं !

Poonam Ritu Sen
Last updated: April 21, 2025 1:50 pm
Poonam Ritu Sen
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लेंस ब्‍यूरो। कल्पना करें- नीला समुद्र, लहरों का शोर और ठंडी हवा का सुकून! लेकिन इस खूबसूरती के पीछे एक डरावना सच छिपा है- माइक्रोप्लास्टिक । वो छोटे-छोटे प्लास्टिक कण जो हमारी नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते, ये हमारी दुनिया को चुपके से तबाह कर रहे हैं। आपका खाना, आपकी हर सांस और आपके बच्चों का भविष्य सब कुछ खतरे में है। माउंट एवरेस्ट की चोटी से लेकर मरियाना ट्रेंच की गहराई तक माइक्रोप्लास्टिक हर जगह है। ये एक ऐसे खामोश दुश्मन की कहानी है जिसे अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

माइक्रोप्लास्टिक क्या है?

माइक्रोप्लास्टिक, वो प्लास्टिक के टुकड़े हैं जो पांच मिलीमीटर से भी छोटे होते हैं। इतने छोटे कि दिखाई न दें लेकिन इतने खतरनाक कि पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लें। ये दो तरह से बनते हैं:
प्राइमरी माइक्रोप्लास्टिक: जानबूझकर छोटे बनाए जाते हैं, जैसे फेसवॉश, टूथपेस्ट, या मेकअप में चमक देने वाले माइक्रोबीड्स।
सेकेंडरी माइक्रोप्लास्टिक: जब बोतलें, थैले, मछली के जाल या टायर धूप, हवा और पानी में टूटकर बिखरते हैं।

गलती से बना था माइक्रोप्लास्टिक!

ये कण समुद्र में तैरते हैं, हवा में उड़ते हैं और मिट्टी में समा जाते हैं। सबसे चौंकाने वाली बात? ये अब हमारे फेफड़ों, खून और यहां तक कि दिमाग तक पहुँच चुके हैं। हर सांस के साथ आप माइक्रोप्लास्टिक अंदर ले रहे हैं। ये सब शुरू हुआ 1933 में, जब इंग्लैंड के नॉर्थविच में पॉलीथीन यानी सबसे आम प्लास्टिक गलती से बनाया गया। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना ने इसे गुप्त हथियार की तरह इस्तेमाल किया और फिर ये हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गया।

वैश्विक संकट: डरावने आंकड़ों की हकीकत

माइक्रोप्लास्टिक का संकट भयावह है। OECD की ‘ग्लोबल प्लास्टिक्स आउटलुक: पॉलिसी सिनेरियोज टू 2060’ रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में वैश्विक प्लास्टिक कचरा 35.3 करोड़ टन था जो 2060 तक तिगुना होकर 101.4 करोड़ टन हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार इस कचरे का लगभग आधा हिस्सा लैंडफिल में डंप किया जाता है, जबकि 20 फीसदी से भी कम प्लास्टिक को रिसायकल किया जाता है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक़ 1950 से अब तक 830 करोड़ टन प्लास्टिक बना है और इसका 60 फीसदी कचरे के ढेर में या खुले में पड़ा है। नतीजा? प्लास्टिक प्रदूषण तेज़ी से फैल रहा है, माउंट एवरेस्ट की चोटी से लेकर मरियाना ट्रेंच की गहराई तक।

ये भी पढ़ें : 102 साल की उम्र में धड़केगा नया दिल, डॉक्टरों का कमाल

प्लास्टिक कैसे घर-घर तक पहुंचा ?

आखिर ये प्लास्टिक कैसे चलन में आ गया और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया? UN एनवायरनमेंट प्रोग्राम के 20 Dec 2021 में जारी एक स्टोरी के मुताबिक़ 1965 में स्वीडन की कंपनी सेलोप्लास्ट ने पॉलीथीन शॉपिंग बैग का पेटेंट कराया। इंजीनियर स्टेन गुस्ताफ थुलिन ने इसे बनाया और ये यूरोप में कपड़े-कागज़ की थैलियों की जगह लेने लगा। 1979 तक आते आते यूरोप के 80 फीसदी बैग बाज़ार पर इसका कब्ज़ा हो गया और फिर ये अमेरिका और बाकी दुनिया में फैल गया। 1982 में अमेरिका की सुपरमार्केट चेन सेफवे और क्रोगर ने प्लास्टिक थैलियों को अपनाया। सस्ती होने की वजह से दशक के अंत तक ये कागज़ की थैलियों को लगभग खत्म कर चुकी थीं। 2011 तक हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक थैलियाँ इस्तेमाल होने लगीं। आज हर साल 1000 अरब थैलियाँ बन रही हैं।

प्रदूषण का नक्शा: देशों का हाल

माइक्रोप्लास्टिक हर जगह है, लेकिन कुछ देशों पर बोझ ज्यादा है। World Population Review 2025 और WWF, The Lifecycle of Plastics 2019, OECD, नेचर और UNEP की रिपोर्ट्स के आधार पर कुछ आंकड़े सामने आये हैं –

भारत: दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक! यहाँ हर साल 74 लाख टन कचरा पैदा होता है । हर दिन 28 लाख किलो से ज़्यादा प्लास्टिक नदियों, समुद्रों और गलियों में बिखर जाता है। 83% नल का पानी माइक्रोप्लास्टिक से दूषित है, और हर भारतीय साल में 250 ग्राम प्लास्टिक खा रहा है यानी एक भरी थाली जितना। दिल्ली से गंगा तक हर कोना इस ज़हर से घिरा है।

इंडोनेशिया: 33 लाख टन प्लास्टिक समुद्र में डंप करता है। लोग हर महीने 15 ग्राम माइक्रोप्लास्टिक खाते हैं यानी एक चम्मच जितना। जावा और बाली के समुद्र तट प्लास्टिक के कालीन बन चुके हैं।

चीन: सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषण फैलाने वाला देश है, सालाना 3.76 करोड़ टन कचरा पैदा करता है । 2016 में यह 2.16 करोड़ टन था जो सिंगल-यूज़ प्लास्टिक बैन से कम हुआ। बीजिंग और शंघाई की हवा में माइक्रोप्लास्टिक कण बादलों की तरह छाए हैं, हालाँकि अब सुधार शुरू हुआ है।

अमेरिका: दुनिया में प्लास्टिक प्रदूषण के मामले में दूसरे नंबर पर है, 2.28 करोड़ टन कचरा पैदा करता है। 2016 में यह 3.4 करोड़ टन था और यहाँ रीसाइक्लिंग की तुलना में छह गुना ज्यादा कचरा जलाया जाता है, केवल 52,500 टन पर्यावरण में लीक होता है बाकी एशिया भेज दिया जाता है। बोतलबंद पानी और फास्ट फूड इसकी जड़ हैं।

पाकिस्तान: 27 लाख टन कचरा पैदा करता है। हर साल 5 करोड़ 50 लाख प्लास्टिक बैग्स इस्तेमाल होते हैं। कराची की गलियाँ और सिंधु नदी में प्लास्टिक का अम्बार हैं। यहाँ 50% कचरा अनौपचारिक कूड़ा बीनने वालों के भरोसे है।

रूस: 84 लाख टन कचरा पैदा करता है। साइबेरिया और बैकाल झील तक माइक्रोप्लास्टिक पहुँच चुका है यहां हर किलो मिट्टी में 36 कण मिलते हैं यहाँ कचरा बढ़ रहा है और छोटे प्रयास नाकाफी हैं।

ब्राजील: 49 लाख टन कचरा पैदा करता है। सिर्फ 1.28% रीसाइक्लिंग किया जाता है बाकी जलता है या समुद्र में बह जाता है । अमेजन से समुद्री तटों तक प्लास्टिक का कहर है।

तबाही का असर: हमारा शरीर और पर्यावरण

माइक्रोप्लास्टिक सिर्फ पर्यावरण का नहीं हमारी सेहत का भी दुश्मन है। सोचिए समुद्र की मछली माइक्रोप्लास्टिक खाती है और फिर वो आपकी थाली में। सबसे डरावनी बात? हाल ही में गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक मिला है यानी हमारे बच्चे जन्म से पहले ही इसके शिकार हैं। पक्षियों के पंख प्लास्टिक में उलझ रहे हैं।

ये भी पढ़ें : डायर वुल्फ की 12 हजार साल बाद धरती पर वापसी, वैज्ञानिकों का कमाल, देखें वीडियो

इतना ही नहीं यह माइक्रो प्लास्टिक अब दिल को भी निशाना बना रहे हैं, विश्व में माइक्रो प्लास्टिक और ह्यूमन हेल्थ को लेकर 2024 में इटली के एक शोध में ये सामने आया कि 200 से ज्यादा सर्जरी वाले मरीजों की धमनियों में 60% माइक्रोप्लास्टिक मिला है जिससे हार्ट अटैक, स्ट्रोक या मृत्यु का खतरा 4.5 गुना बढ़ गया। दिमाग में माइक्रोप्लास्टिक से याददाश्त और न्यूरोलॉजिकल समस्याएँ हो सकती हैं। इसका एक पहलू ये भी है कि माइक्रोप्लास्टिक बैक्टीरिया को एंटीबायोटिक्स के खिलाफ 30 गुना मजबूत बनाता है जिससे बीमारियाँ लाइलाज हो रही हैं। हाल के शोध कहते हैं कि ये माइक्रोप्लास्टिक अब हमारे दिमाग तक पहुँच रहे हैं जिससे याददाश्त और न्यूरोलॉजिकल समस्याएँ हो सकती हैं।”

उम्मीद की राह

अब हार मानने का वक्त नहीं है। दुनिया जाग रही है। फ्रांस ने वॉशिंग मशीन में माइक्रोफाइबर फिल्टर लगाए जिससे 75 फीसदी माइक्रोप्लास्टिक को रोका जा सकता है। जापान ने समुद्र से कचरा हटाने वाली मशीनें बनाईं, ये हर साल 50 टन प्लास्टिक साफ करती हैं। भारत ने सिंगल-यूज प्लास्टिक बैन करने की ठानी, हालाँकि रास्ता लंबा है।

2024 में UNEP ने ग्लोबल प्लास्टिक संधि शुरू की जिसमें 170 देश साथ आए हैं। नवंबर 2024 में दक्षिण कोरिया में इसकी आखिरी बातचीत हुई, इसका लक्ष्य 2030 तक प्लास्टिक प्रदूषण को 50% कम करना है। लेकिन असली बदलाव आपसे शुरू होगा। प्लास्टिक की थैलियाँ छोड़ें, कपड़े के थैले अपनाएँ। रीसाइक्लिंग को आदत बनाएँ , भारत में अभी सिर्फ 60 फीसदी कचरा रीसाइकल होता है। अपने बच्चों को सिखाएँ कि धरती हमारी जिम्मेदारी है। सरकार से माँग करें कि कचरा प्रबंधन बेहतर हो।

माइक्रोप्लास्टिक छोटा लेकिन ताकतवर जहर है मगर हमारी इच्छाशक्ति उससे कहीं बड़ी है। आज का एक कदम 2060 की तबाही को रोक सकता है। आइए अपनी धरती को बचाएं अपने बच्चों को एक साफ और हंसता हुआ भविष्य दें।

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पूनम ऋतु सेन युवा पत्रकार हैं, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में बीटेक करने के बाद लिखने,पढ़ने और समाज के अनछुए पहलुओं के बारे में जानने की उत्सुकता पत्रकारिता की ओर खींच लाई। विगत 5 वर्षों से वीमेन, एजुकेशन, पॉलिटिकल, लाइफस्टाइल से जुड़े मुद्दों पर लगातार खबर कर रहीं हैं और सेन्ट्रल इण्डिया के कई प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में अलग-अलग पदों पर काम किया है। द लेंस में बतौर जर्नलिस्ट कुछ नया सीखने के उद्देश्य से फरवरी 2025 से सच की तलाश का सफर शुरू किया है।
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