द लेंस डेस्क। बांबे हाईकोर्ट ने एक गर्भवती महिला को 26 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देकर महिलाओं के शारीरिक स्वायत्तता और प्रजनन स्वतंत्रता के अधिकार को मजबूत किया है। यह फैसला 28 मार्च 2025 को सुनाया गया, जिसमें कोर्ट ने भ्रूण में गंभीर असामान्यता (कंकाल डिसप्लेसिया) और मां की स्थिति को आधार बनाया। कोर्ट ने जेजे अस्पताल के मेडिकल बोर्ड को प्रक्रिया की निगरानी करने का निर्देश दिया है। यह निर्णय भारत में गर्भपात कानून और महिला अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।
एक महिला ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर 26 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति मांगी थी। मेडिकल रिपोर्ट्स में सामने आया कि भ्रूण में कंकाल डिसप्लेसिया (Skeletal Dysplasia) है, जिसके कारण बच्चे का सामान्य जीवन संभव नहीं होगा। कोर्ट ने माना कि गर्भ को जारी रखना मां के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। जस्टिस ए.बी. चौधरी की बेंच ने कहा, “महिला का अपने शरीर पर अधिकार सर्वोपरि है, और उसे असहनीय पीड़ा के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।”
कानूनी ढांचा- MTP एक्ट और उसकी सीमाएँ
भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट, 1971 के तहत गर्भपात की समय सीमा 24 हफ्ते निर्धारित है। 2021 के संशोधन ने कुछ विशेष मामलों (बलात्कार पीड़िताओं, नाबालिगों) में राहत दी, लेकिन 24 हफ्ते से अधिक के गर्भ को समाप्त करने के लिए कोर्ट की मंजूरी जरूरी है। बांबे हाईकोर्ट ने इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिला के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्राथमिकता दी।
चिकित्सीय पहलू- जोखिम और चुनौतियाँ
26 हफ्ते में गर्भपात जटिल और जोखिम भरा होता है। इस समय तक भ्रूण के अंग विकसित हो चुके होते हैं, और प्रक्रिया में भारी रक्तस्राव, संक्रमण या प्रजनन क्षमता पर असर पड़ सकता है। मेडिकल विशेषज्ञ कहतें हैं की “देर से गर्भपात में सर्जिकल विधियाँ जैसे डाइलेशन और इवैक्यूएशन या दवाओं का इस्तेमाल होता है। यह सुरक्षित हो सकता है, लेकिन प्रशिक्षित डॉक्टर और उन्नत सुविधाओं की जरूरत होती है।” दिल्ली के एक मामले में 28 हफ्ते के गर्भपात के बाद महिला को गंभीर रक्तस्राव हुआ, जिसके कारण उसे कई दिन आईसीयू में रखना पड़ा।
यह फैसला महिलाओं के अपने शरीर पर नियंत्रण को मजबूत करता है, लेकिन समाज में गर्भपात को लेकर अभी भी कलंक बना हुआ है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी और परिवार का दबाव महिलाओं के लिए चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 67% गर्भपात असुरक्षित तरीकों से होते हैं, जिससे हर साल हजारों महिलाओं की जान जाती है। 2023 में हरियाणा में एक महिला ने 25 हफ्ते के गर्भ को असुरक्षित तरीके से समाप्त करने की कोशिश की, जिसके बाद उसकी मौत हो गई।
भ्रूण का जीवन बनाम मां का अधिकार
26 हफ्ते के भ्रूण में हृदय की धड़कन और अंगों का विकास हो चुका होता है। कुछ संगठन इसे “जीवन” मानते हैं और गर्भपात का विरोध करते हैं। वहीं, महिला अधिकार संगठनों का कहना है कि मां की पसंद और स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हालाँकि विशेषज्ञों का मानना है कि भ्रूण के अधिकार और मां की स्वतंत्रता के बीच संतुलन जरूरी है, लेकिन हर मामला अलग होता है।
सुप्रीम कोर्ट (2022): एक अविवाहित महिला को 24 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी गई, यह कहते हुए कि वैवाहिक स्थिति भेदभाव का आधार नहीं हो सकती।
दिल्ली हाईकोर्ट (2022): 33 हफ्ते के गर्भ में असामान्यता के चलते गर्भपात को मंजूरी मिली।
सुप्रीम कोर्ट (2023): 26 हफ्ते के स्वस्थ भ्रूण को समाप्त करने की याचिका खारिज की गई।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट (2025): 14 साल की बलात्कार पीड़िता के 30 हफ्ते के गर्भ को समाप्त करने से इनकार, लेकिन बच्चे के पालन-पोषण का खर्च सरकार को सौंपा।
बांबे हाईकोर्ट का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों के लिए मील का पत्थर है, लेकिन कई सवाल अब भी उठ रहें हैं। क्या MTP एक्ट में समय सीमा बढ़ानी चाहिए? क्या ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित गर्भपात की सुविधाएँ बढ़ेंगी? विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को जागरूकता अभियान और चिकित्सा ढांचे पर ध्यान देना होगा।