- राज्यसभा सांसद के घर पर हमले को लेकर पुलिस ने कहा, हमने सूक्ष्म बल प्रयोग किया
- ठाकुरों की महापंचायत के बाद मथुरा के 42 राजपूतों पर की गई एफआईआर रद्द
- आवेश तिवारी
नई दिल्ली। सांप्रदायिक तनाव का गढ़ बनते जा रहे यूपी में हिंदूवादी संगठनों का प्रतिक्रियावादी रुख मुस्लिमों के साथ-साथ दलितों पर भारी पड़ा है। प्रदेश में लगातार ऐसी कई घटनाएं घटी हैं, जिसमें सवर्णों ने हिंदुत्व के झंडे तले दलितों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। हालांकि इस तरह मोर्चे को भाजपा का समर्थन इसलिए मिल रहा क्योंकि दलितों मुस्लिमों की आड़ में सपा पर निशाना लगाया जा रहा। हालांकि यह भी सच्चाई है कि भाजपा का यूपी में दोबारा आना दलितों और पिछड़ों के वोटों के बड़ी संख्या में शिफ्टिंग की वजह से ही संभव हो पाया है।
दलितों की आवाज कुचल रही उग्र ताकतें
समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के घर पर कल करणी सेना के एक हजार से ज्यादा समर्थकों का हमला पत्थरबाजी और पुलिस के साथ बदसलूकी अकेली घटना नहीं है। ताजा घटनाक्रम में मथुरा में भी राजपूतों द्वारा बुलाई गई महापंचायत के बाद 42 ठाकुरों के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द कर दी गई है। यह एफआईआर होली के दिन दलित गांव में घुसकर जबरदस्ती मारपीट करने पर लगाई गई थी। इस बीच मेवात दंगों के आरोपी बिट्टू बजरंगी ने सांसद सुमन के सिर पर 5 लाख का इनाम घोषित कर दिया है। वहीं विहिप और बजरंग दल भी रामजीलाल सुमन के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं।
योगी के दावे की खुल रही पोल
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक निजी न्यूज एजेंसी को दिए गए इंटरव्यू में यह कहना कि जो जिस तरह से ठीक होना चाहेगा वैसे ठीक करेंगे, कानून व्यवस्था किसी को हाथ में नहीं लेने देंगे, फिलहाल यूपी के मनबढ़ों पर लागू होता नहीं दिख रहा। योगी की जय जयकार और हिंदू राष्ट्र के नारे की आड़ में तमाम अपराध अंजाम दिए जा रहे हैं। अगड़ी बिरादरी के द्वारा कानून व्यवस्था की स्थिति से बार-बार खिलवाड़ के बावजूद सरकार खामोश है।
दलित उत्पीड़न में टॉप पर यूपी
अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के लगभग 97.7 फीसदी मामले 13 राज्यों से दर्ज किए गए। 51,656 मामलों में अकेले 12,287 मामले उत्तर प्रदेश से हैं, जो कुछ मामलों का 23.78 फीसदी है। राजस्थान में 8,651 (16.75 फीसदी) और मध्य प्रदेश में 7,732 (14.97 फीसदी) मामले दर्ज किए गए। यकीनन यह उत्पीड़न अल्पसंख्यकों ने नहीं किए थे।
2017 से हुई शुरुआत
यूपी में दलितों के खिलाफ हिंदुत्ववादी हिंसा का दौर मई 2017 में शुरू हो गया था, जब योगी आदित्यनाथ ने शपथ ली। उस वक्त सहारनपुर जिले के शब्बीरपुर गांव में दलितों और राजपूतों (ठाकुरों) के बीच हिंसक झड़प हुई। यह विवाद महाराणा प्रताप जयंती के जुलूस को लेकर शुरू हुआ, जिसमें दलितों ने जुलूस का विरोध किया था। इस घटना में एक दलित की मौत हुई और कई घायल हुए। इस घटना को राजपूत समुदाय द्वारा दलितों पर हमले के रूप में देखा गया, जिसके बाद इलाके में तनाव बढ़ गया और पुलिस तैनात करनी पड़ी।
हाथरस बना बड़ा उदाहरण
2020 में हाथरस में घटी घटना जिसमें अगड़ों ने दलित जाति की लड़की के साथ रेप और हत्या की घटना को भी हिंदुत्व के उभार से जोड़ कर ही देखा गया। राज्य में बीजेपी की सरकार थी और आरोपी ऊंची जाति के थे। योगी सरकार ने इस मामले का जिस तरह निपटाया उससे भी यही संदेश गया कि लीपापोती हुई है।
धर्मांतरण के खिलाफ भी दलितों पर अत्याचार
यूपी में धर्मांतरण को लेकर की जा रही ज्यादातर हिंसा दलितों के खिलाफ हो रही है। सिद्धार्थनगर में दो वर्ष पूर्व हुआ चर्च पर हमला हो या पिछले साल फतेहपुर में दलित परिवार के खिलाफ विहिप और बजरंग दल का उग्र प्रदर्शन सब में वही लोग शामिल थे जो भाजपा और संघ के समर्थन में आयोजित प्रदर्शनों में शामिल होते हैं।
यूपी पुलिस भी कटघरे में
आगरा में राज्यसभा सांसद के आवास पर हमले के बाद पुलिस अधिकारियों ने अपने प्रेस कांग्रेस में कहा है कि हमने सूक्ष्म बल का प्रयोग करके उपद्रवियों को हटा दिया है। सवाल खड़ा होता है कि 26 मार्च को करणी सेना की कार्रवाई में पुलिस पर भी हमले हुए। क्या कोई दलित या मुस्लिम संगठन ऐसे हमले करता तो उसे बर्दाश्त किया जाता।