23 मार्च, 1931 के दिन लाहौर जेल इंकलाबी नारों से गूंज उठी, जब भारत मां के तीन सपूत भगत सिंह, सुखदेवऔर राजगुरु को फांसी दी गई। ये दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और भावनात्मक क्षण के रूप में दर्ज है। इन तीनों क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सरकार ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य होने और लाहौर षड्यंत्र मामले (1929) में जॉन सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में दोषी ठहराया था। भगत सिंह ने 1929 में दिल्ली की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बम फेंकने की घटना को भी अंजाम दिया था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाना था। 23 मार्च को हम शहीद दिवस के रूप से मानते हैं और क्रांतिकारियों की शहादत को सलाम करते हैं।
फांसी के दिन जेल में क्या हुआ
भगत सिंह को किताबों से गहरा लगाव था। जब उन्हें फांसी दी जानी थी, उस वक्त भी वह किताब पढ़ रहे थे। भगत सिंह ने जेलर से कहा कि उन्हें उस किताब को खत्म करने का थोड़ा वक्त दे दिया जाए जो उनके हाथ में थी। वह किताब थी ‘लेनिन‘ की जीवनी, जिसे वह आखिरी पलों तक पढ़ते रहे।
मृत्यु को सामने देखकर भी उनके चेहरे पर कोई डर नहीं था। फांसी के फंदे तक जाने के लिए भगत सिंह बीच में चल रहे थे, उनके बाएं ओर सुखदेव और दाएं ओर राजगुरु थे। उस पल में भी तीनों गुनगुना रहे थे ‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।‘
फांसी का समय और योजना: फांसी की तारीख 24 मार्च, 1931 तय की गई थी, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने जनता के बढ़ते आक्रोश और विरोध को देखते हुए इसे एक दिन पहले23 मार्च को शाम 7:33 बजे के आसपास अंजाम देने का फैसला किया। यह गोपनीय तरीके से किया गया।
क्रांतिकारियों का रवैया: फांसी से पहले भगत सिंह, सुखदेव, और राजगुरु ने अदम्य साहस और देशभक्ति का परिचय दिया। तीनों नारे लगाते हुए और “इंकलाब जिंदाबाद” व “भारत माता की जय” जैसे उद्घोष करते हुए फांसी के तख्ते तक गए। भगत सिंह उस समय किताब पढ़ रहे थे।
जेल में माहौल: जेल के अंदर अन्य कैदियों और कुछ कर्मचारियों में उदासी और गुस्से का माहौल था। कई भारतीय जेल कर्मचारी इन क्रांतिकारियों के प्रति सम्मान रखते थे, लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों के दबाव में उन्हें चुप रहना पड़ा। फांसी के बाद जेल में सन्नाटा छा गया था।
फांसी के बाद : फांसी देने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने तीनों के शवों को उनके परिवारों को सौंपने के बजाय रात के अंधेरे में सतलुज नदी के किनारे ले जाकर जलाने की कोशिश की। हालांकिस्थानीय लोगों को इसकी भनक लग गई और वे वहां पहुंच गए, जिसके बाद अधिकारियों को आधे जलाए शव छोड़कर भागना पड़ा। बाद में जनता ने इन शवों का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया।