हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को इस वर्ष का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है। साहित्य के क्षेत्र में शुक्ल जी छह दशकों से सक्रिय हैं। ‘द लेंस’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं…
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था।
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था, हताशा को जानता था।
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया।
मैंने हाथ बढ़ाया।
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ।
मुझे वह नहीं जानता था, मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था।
हम दोनों साथ चले।
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे, साथ चलने को जानते थे।
घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में
घर से बाहर निकलने की गड़बड़ी में इतना बाहर निकल आया
कि सब जगह घुसपैठिया होने की सीमा थी।
घुसपैठिया कि देशिहा!
मेरी सूरत मुझको देखती है कि बदला नहीं।
चालाकी से अपनी सूरत की फ़ोटो मैंने खिंचवा ली थी
कि बहुरुपिया होकर भी पहचाना जाएगा।
सब्ज़ी बाज़ार में खड़ा होकर मैं सोचता हूँ
कि विद्रोही न कहलाने के लिए
मुझे कौन-कौन सी सब्ज़ी नहीं ख़रीदनी चाहिए।
मैं हमेशा जाता हुआ दिखलाई देता हूँ।
मैं अपनी पीठ बहुत अच्छी तरह पहचानता हूँ।
सबसे ग़रीब आदमी की
सबसे ग़रीब आदमी की सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए,
जिसकी सबसे ज़्यादा फ़ीस हो।
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर उस ग़रीब की झोंपड़ी में आकर
झाड़ू लगा दे, जिससे कुछ गंदगी दूर हो।
सामने की बदबूदार नाली को साफ़ कर दे,
जिससे बदबू कुछ कम हो।
उस ग़रीब बीमार के घड़े में शुद्ध जल दूर
म्युनिसिपल की नल से भरकर लाए।
बीमार के चीथड़ों को पास के हरे गंदे पानी के डबरे
से न धोए, कहीं और धोए।
बीमार को सरकारी अस्पताल जाने की सलाह न दे।
कृतज्ञ होकर सबसे बड़ा डॉक्टर सबसे ग़रीब आदमी का इलाज करे
और फ़ीस माँगने से डरे।
सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी बहुत महँगा है।
जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के
जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के।
जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार।
जाकर ही वहाँ पहुँचा जा सकेगा
जो बहुत दूर संभव है।
पहुँचकर संभव होगा।
जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे।
जाते-जाते बचा रहेगा आगे।
जाते-जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब,
तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा।
और कुछ भी नहीं में सब कुछ होना बचा रहेगा।
अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं
अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं
और पूरा आकाश देख लेते हैं।
सबके हिस्से का आकाश पूरा आकाश है।
अपने हिस्से का चंद्रमा देखते हैं
और पूरा चंद्रमा देख लेते हैं।
सबके हिस्से का चंद्रमा वही पूरा चंद्रमा है।
अपने हिस्से की जैसी-तैसी साँस सब पाते हैं।
वह जो घर के बग़ीचे में बैठा हुआ अख़बार पढ़ रहा है
और वह भी जो बदबू और गंदगी के घेरे में ज़िंदा है।
सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है।
अपने हिस्से की भूख के साथ
सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात।
बाज़ार में जो दिख रही है
तंदूर में बनती हुई रोटी,
सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है।
जो सबकी घड़ी में बज रहा है,
वह सबके हिस्से का समय नहीं है।
इस समय।