आज 21 मार्च, को विश्व कविता दिवस है। इस मौके पर द लेंस के पाठकों के लिए हम प्रतिरोध की कुछ कविताएं लेकर आ रहे हैं। हमने पांच कवियों को चुना है, जिनकी एक-एक कविताएं हम यहां दे रहे हैं।
कबीरः अपने समय में कबीर प्रतिरोध के सबसे बड़े कवि थे, जिनके दोहे और साखियां आज भी सामाजिक रूढ़ियों और सांप्रदायिक संकीर्णता के खिलाफ प्रतिरोध की सबसे बड़ी आवाज़ हैं।
फैज अहमद फैजः अविभाजित भारत के क्रांतिकारी कवि फैज अहमद फैज की कविताएं लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों को लेकर किए जाने वाले संघर्षशील लोगों को ताकत देती हैं।
चिनुआ अचेबेः नाइजीरिया के कवि चिनुआ अचेबे ने यातनाओं और शोषण को कविताओं में पिरोया है, जिनकी कविताएं दुनियाभर में प्रतिरोध का एक प्रमुख स्वर हैं।
पाशः पंजाब के आतंकवाद के दौर में अवतार सिंह संधू “पाश” को गोली मार दी गई थी, लेकिन चार दशक बाद आज भी उनकी कविताएं हाशिये के लोगों को लड़ने का हौसला देती हैं।
फद़वा तूकानः फलस्तीन की दिवंगत कवयित्री फ़दाव तूकान फलस्तीन पर इस्राइल के बर्बर कब्जे के खिलाफ प्रतिरोध की प्रतिनिधि आवाज रही हैं।
कबीर

अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।
गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा।
पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा।
दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई।
यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई।
जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरियाँ॥
फ़ैज अहमद फ़ैज

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
चिनुआ अचेबे

जब तक हिरन, अपना इतिहास ख़ुद नहीं लिखेंगे,
तब तक हिरनों के इतिहास में
शिकारियों की शौर्यगाथाएं गायी जाती रहेंगी।
पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना—बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना—बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना—बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना—बुरा तो है
मुट्ठियाँ भींचकर बस वक़्त निकाल लेना—बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी निगाह में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ़ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
पर आपकी आँखों को मिर्चों की तरह नहीं गड़ता है
सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
आपके कानों तक पहुँचने के लिए
जो मरसिये पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
जो ग़ुंडे की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो ज़िंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ़ उल्लू बोलते और हुआँ-हुआँ करते गीदड़
हमेशा के अँधेरे-बंद दरवाज़ों-चौगाठों पर चिपक जाते हैं
सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती।
फ़दवा तूक़ान

काफ़ी है मेरे लिए
काफ़ी है उसकी ज़मीन पर मरना
उसमें दफ़्न होना
घुलना और ग़ायब हो जाना उसकी मिट्टी में
और फिर खिल पड़ना एक फूल की शक्ल में
जिससे एक बच्चा खेले मेरे वतन का।
काफ़ी है मेरे लिए रहना
अपने मुल्क के आग़ोश में
उसमें रहना करीब मुट्ठी भर मिट्टी की तरह
घास के एक गुच्छे की तरह
एक फूल की तरह।