मोदी सरकार के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का नाम बदल कर पूज्य बापू ग्रामीण रोजगार गारंटी बिल (पीपीआरईजीबी) करने के फैसले में अंतरनिहित राजनीति को समझना मुश्किल नहीं है।
यह ठीक है कि सरकार ने रोजगार को संवैधानिक अधिकार से जोड़ने वाले इस कानून का नाम भर बदलने का फैसला नहीं किया है, बल्कि इसमें न्यूनतम काम के दिनों को भी बढ़ाकर 100 से 125 दिन कर दिए हैं। यह काम तो मनरेगा का नाम बदले बिना भी किया जा सकता था और यह भी याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि मनरेगा में काम के दिन बढ़ाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी।
मोदी सरकार ने मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद से सिर्फ शहरों के ही नहीं, बल्कि पहले से चली आ रही ढेर सारी योजनाओं के नाम और कलेवर बदले हैं। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। जहां तक शहरों की बात है, तो उनके नाम बदलने के पीछे भाजपा और आरएसएस की हिंदुत्व की विचारधारा को साफ देखा जा सकता है।
लेकिन महात्मा गांधी के नाम पर बने इस अधिनियम का नाम बदलने की मंशा को समझना जरूरी है, भले ही इसे पूज्य बापू ही क्यों न कर दिया जाए। दरअसल सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इस कानून के नाम में ‘महात्मा गांधी’ की जगह ‘पूज्य बापू’ करने की जरूरत क्यों पड़ गई, जबकि ये दोनों ही संबोधन देश की स्वतंत्रता के संघर्ष के महान नायक मोहनदास करमचंद गांधी के लिए उपयोग किए जाते रहे हैं।
बदले हुए नाम के बाद इसे पूज्य बापू ग्रामीण रोजगार गारंटी बिल (कानून के बनने के बाद अधिनियम) के नाम से जाना जाएगा। यानी इसमें महात्मा गांधी संबोधन नहीं होगा। वास्तविकता यह है कि भारत ही नहीं, सारी दुनिया में गांधी को महात्मा गांधी के नाम से ही कहीं अधिक जाना जाता है।
क्या यह इस मंशा से किया गया, ताकि इतिहास को अपने ढंग से देखा, पढ़ा और लिखा जा सके? ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि गांधी को सबसे पहले कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने 1915-16 में महात्मा संबोधन दिया था।
दक्षिण अफ्रीका के महान नायक नेल्सन मंडेला ने गांधी के बारे में कहा था, ‘आपने हमें मोहनदास गांधी दिया था, हमने उन्हें महात्मा गांधी के रूप में यहां से भेजा!’
जाहिर है, मनरेगा का नाम बदलने के बावजूद गांधी का महत्व कम नहीं हो जाता और न ही पूज्य बापू करने से कुछ बुनियादी फर्क आएगा। सत्ता में आने के सालभर बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी, 2015 में लोकसभा में मनरेगा का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि यह यूपीए सरकार की नाकामियों का जीता जागता स्मारक है!
लेकिन वास्तविकता यही है कि मनरेगा ने 2006 में अस्तित्व में आने के बाद से बीते दो दशकों में ग्रामीण रोजगार की स्थिति बदली है। कोविड के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ घंटों के नोटिस पर राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का ऐलान किया था, तब गांवों की ओर लौटने वाले लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए यही मनरेगा आसरा बना था। गांधी की चिंता में कतार का सबसे आखिरी व्यक्ति सबसे आगे होता था। दरअसल यह अंतिम व्यक्ति ही प्राथमिकता में सबसे आगे होना चाहिए।
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