यह लेख आज से 22 साल पहले 13 फरवरी 2003 को पहली बार प्रकाशित हुआ। यह प्रख्यात लेखक महीप सिंह की रचनावली का हिस्सा है
संसार में शायद ऐसा कोई राष्ट्र हो जहां दो राष्ट्रीय गीतों को मान्यता दी गई हो। हमारे देश में ‘जन गण मण अधिनायक’ को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया है और वंदेमातरम को अतिरिक्त राष्ट्रगान का स्थान दिया गया है।
इस गीत ने एक ओर इस देश के असंख्य लोगों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया, हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर झूलने के लिए तत्पर किया और जन-जागृति का उद्घोष बनकर चारों और गूंजा वहीं कुछ विवादों में भी रहा। यही कारण या कि उसे पूरी तरह राष्ट्रगान होने का गौरव प्राप्त नहीं हुआ।
यह गीत बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में आया है। बंकिम चंद्र चटर्जी की यह बहुचर्चित रचना सन 1880 में पूर्ण हो गई थी। पुस्तकाकार रूप में 1882 ई. में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। आगामी 10 वर्षों में बंगाली में इसके 5 संस्करण प्रकाशित हो गए थे। वंदेमातरम गीत की रचना आनंदमठ उपन्यास की रचना के पूर्व हो गई थी।
इस गीत के रचनाकाल का सर्वप्रथम उल्लेख महर्षि अरविंद ने सन् 1907 में लिखे अपने एक लेख में किया था। इसके अनुसार इस गीत की रचना 1874 या 1875 में हुई थी।
इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई थी। इसका दूसरा अधिवेशन सन् 1886 में कलकत्ता में हुआ था। यहीं हेमचंद्र बंद्योपाध्याय ने अपनी रचना के अंतर्गत पहले-पहल वंदेमातरम गीत के कुछ अंश गाकर सुनाए थे।
संभवतः यही पहला अवसर था जब सार्वजनिक रूप से इस गीत का खंडित रूप में उपयोग किया था। इसके बाद दूसरी बार रवींद्रनाथ टैगोर ने सन् 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में इसे गाया था। 1901 ई. के बाद, कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वंदेमातरम गीत का गायन हुआ।
वंदेमातरम को गीत को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बंग-भंग आंदोलन के समय में प्राप्त हुई थी। तत्कालीन वाइसराय लाई कर्जन ने 1903 में यह घोषणा की कि बंगाल प्रान्त बहुत बड़ा है, इसलिए प्रशासनिक सुविधा के लिए इसका विभाजन आवश्यक है। उस समय पूरे बंगाल के अतिरिक्त असम, उड़ीसा, बिहार और छोटा नागपुर को बंगाल ही कहा जाता था। घोषणा में कहा गया या कि इस प्रांत को विभाजित करके जो प्रांत बनेगा उसका नाम पूर्वी बंगाल और असम होगा और ढाका उसकी राजधानी बनेगा।
अंग्रेज सरकार की इस नीति का व्यापक विरोध हुआ। उसके विरुद्ध वहां बड़ा प्रभावशाली आंदोलन उठ खड़ा हुआ। यह गीत उस आंदोलन का प्रेरण-गीत बन गया। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउनहाल में बंग-भंग का विरोध दिवस मनाने के लिए हज़ारों लोग एकत्र हुए। उस ऐतिहासिक सभा में वंदेमातरम को को एक लोकप्रिय नारे की मान्यता प्राप्त हो गई।
प्रारंभ में बंकिम बाबू ने जिस गीत की परिकल्पना की थी वह बंगाल तक ही सीमित थी जिसकी जनसंख्या लगभग सात करोड़ थी। संपूर्ण भारत की जनसंख्या उस समय लगभग तीस करोड़ थी। मूल गीत के शब्द हैं-
सप्तकोटि कंठ कल कल निनादकराले,
दिशपत कोटि भुजैघृत खरकर वाले,
अवत्ता केनो मां एतो बले-
कौन ऐसी माता को कह सकता है जिसकी सात करोड़ संताने हैं, चौदह करोड़ हाथ जिसकी सेवा के लिए तत्पर हैं। वह मां तो अतुल बलशालिनी है। जैसे-जैसे इस गीत की लोकप्रियता बढ़ती गई इसे अखिल भारतीय स्वरूप मिलता गया। पहले सप्तकोटि के स्थान पर त्रिशंकोटि हुआ और बाद में कोटि-कोटि कर दिया गया।
सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई, उसी के साथ इस गीत का विरोध भी प्रारंभ हो गया। यह विरोध निरंतर बढ़ता चला गया। कन्नड़ कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली ने सन् 1923 में कहा कि अधिवेशन में वंदेमातरम को गीत नहीं गाया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह गीत इस्लाम के विरुद्ध है। उनके इस कथन का मंच पर बैठे किती नेता ने विरोध नहीं किया।
प्रति वर्ष इस गीत को कांग्रेस मंच पर गाने वाले संगीतज्ञ पंडित विष्णु दिगंबर पुलस्कर ने इस बात को अस्वीकार करते हुए कहा-कांग्रेस का अधिवेशन कोई खिलाफत की कांग्रेस या मुसलमानों की मस्जिद नहीं है, इसे अध्यक्ष को समझना चाहिए। मौलाना अली के विरोध करने पर भी पंडित पत्तुरूकर ने गंभीर कंठ से यह पूरा गीत गाया।
सन 1937 के मुस्लिम लीग के कलकत्ता अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा गया, जिसमें कहा कि वंदेमातरम गीत को राष्ट्रीय गीत बनाने की कांग्रेस की साजिश स्पष्ट रूप से मुसलमानों के विरोध तथा देश के विकास में बाधा लाने वाली है। सन 1958 में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के सामने जो मांगें रखी, उसमें पहली मांग यह थी कि इसके गायन को बंद किया जाए। मद्रास विधान सभा में वंदेमातरम गाए जाने पर मुसलमान सदस्यों ने सभा का बहिष्कार किया।
सन 1937 को अखिल भारतीय कांग्रेस में सर्वप्रथम वंदेमातरम गीत को लेकर तीव्र मतभेद दिखाई दिया। अभी तक कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वंदेमातरम गीत गाया जाता था। कांग्रेस के अंदर के राष्ट्रीय मुसलमान भी इसे हृदय से स्वीकार नहीं करते थे। पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुमत वाले स्कूलों में मुस्लिम विद्यार्थी इसका भरपूर विरोध करते थे। इस कारण वहां सांप्रदायिक तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती थी।
इसी वर्ष कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव की एक उपसमिति गठित की जिसे रवींद्र नाथ टैगोर से परमर्श करके राष्ट्रीय गीत के रूप में वंदेमातरम की उपयुक्तता पर निर्णय लेना था। इस विषय में उस समिति ने यह सिफारिश की कि जब भी राष्ट्रीय सार्वजनिक सभाओं में विदेमातरम गाया जाए तो उसके पहले के दो पद ही गाए जाएं। राष्ट्रीय गीत के रूप में केवल निम्नलिखित पंक्तियों को ही स्वीकार किया गया।
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम
शुभ्रज्योत्स्नां पुलकितयात्रिनीम्
पुन्तकुसामित दुमरत शोमिनीम्
सुहात्तिनी सुमुधुरभाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्
पंक्तियों की गणना की दृष्टि से 26 में केवल 9 पंक्तियों को ही स्वीकार किया गया। आगे की पंक्तियों में, जिनमें दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी देवियों का स्तवन किया गया है, उन्हें राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। कांग्रेस कार्यसमिति के इस निर्णय का रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पूरी तरह समर्थन किया था। इस कारण बहुत से लोग उनसे नाराज हो गए थे।
सन 1938 में इस गीत को लेकर जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना में पत्र व्यवहार भी हुआ। जिन्ना का मत या कि यह गीत इस्लाम विरोधी है। इसमें हिन्दू देवियों की चर्चा है और यह बुतपरस्ती की प्रेरणा देता है। उन्होंने यह भी कहा है कि गीत को मुसलमान कैसे स्वीकार कर सकते हैं जिसे आनंद मठ में से लिया गया है, जो घोर मुस्लिम विरोधी रचना है।
जिन्ना की आपत्तियों का उत्तर देते हुए पं. नेहरू ने लिखा था कि कांग्रेस कार्य समिति ने यह सिफारिश की है कि इस गीत के केवल दो पदों को ही राष्ट्रीय गीत के रूप में गाया जाए। इन पदों में ऐसी कोई बात नहीं है जिन पर किसी को आपत्ति हो।
गीत के संबंध में रवींद्रनाथ टैगोर ने जिस प्रकार कांग्रेस कार्य समिति के निर्णय का समर्थन किया था, उससे चारों ओर उनकी बहुत निंदा होने लगी। कुछ लोगों को यह विश्वास हो गया था कि रवींद्र बाबू की सलाह पर ही कांग्रेस ने गीत का अंग-भंग किया है। जब इस आक्षेप का उन्हें पता लगा तो उन्होंने लिखा-वंदेमातरम गीत हमारे देश के लिए राष्ट्रीय गीत के रूप में गृहीत होने योग्य है या नहीं इस बारे में काफी विवाद उत्पन्न हुआ है, यह बड़े खेद का विषय है।
इस बारे में अपने विचार प्रकट करते समय मुझे एक बात याद आ रही है कि इस गीत के लेखक के जीवनकाल में पहले-पहल सुर देरे का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ या और कलकत्ता में हुए कांग्रेस के एक अधिवेशन में मैंने इसे गाया था। इस गीत के प्रयमांश में कोमल भावना और श्रद्धा का विश्वास है तथा हमारी मातृभूमि के सौंदर्य का प्रचूर परिचय है, इन सबने मुझे बुरी तरह से प्रभावित किया था। अपने पिता के एकेश्वरवादी आदर्श में लालित-पालित होने पर भी उसके तभी अंशों के प्रति मेरी सहानुभूति है।
शासकों ने हम लोगों की इच्छा के विरुद्ध जब बंगाल का विभाजन करना चाहा या, तब उस संग्राम की स्थिति में राष्ट्रीय गीत के रूप में इसका प्रचलन हुआ था। बाद में जिन घटनाओं में बंदेमातरम जय ध्वनि के रूप में स्वीकृत हुआ, उसमें हमारे अनेक युवकों का त्याग निहित है।
मैं निस्संकोच रूप से यह स्वीकार करता हूं कि बंकिम का गीत का समग्र अंश जिस पुस्तक में है। यदि उसके साथ पढ़ा जाए तो मुसलमानों के मन में चोट पहुंच सकती है। लेकिन उक्त गीत का प्रथमांश जो राष्ट्रीय गीत के रूप में परिणत हुआ है, उसके साथ हमेशा हम लोगों को उसका अवशिष्ट अंश जिस उपन्यास में, घटनाक्रम से सम्मिलित हुआ है, उसका भी स्मरण करना पड़ेगा, ऐसी बात नहीं है। यह गीत स्वतंत्र सत्ता और प्रेरणदायी भाव प्राप्त कर चुका है। इसमें किसी संप्रदाय या धर्मावलंबी को आपत्ति नहीं करनी चाहिए।
रवि बाबू ने नवंबर सन् 1937 को विभिन्न पत्रों में अपना यह वक्तव्य प्रकाशनार्थ भेजा था। उनके विरोधियों ने यह प्रचार करना प्रारंभ कर दिया कि वे ब्रह्मसमाजी है, इसलिए दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती देवियों को वे नहीं मानते। अपने गीत ‘जन गण मन’ को राष्ट्र गान बनाने के लिए ही वे विदेसातरसों को पीछे हटाना चाहते हैं।
एक और बात भी उस समय प्रचारित हुई कि ‘जन गण मन अधिनायक’ गीत उन्होंने ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम की प्रशस्ति में लिखा था। इस बात का स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने कड़े शब्दों में खंडन किया था। ‘जन गण मन’ के संबंध में यह धारणा वर्षों तक चलती रही है। कुछ लोग आज भी यह बात कहते हैं।
बदेलातर गीत निरंतर विवाद में राजा है। इस संबंध में सन् 1948 में पं.जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था- वंदेमातरम स्पष्टतः और निर्विवाद रूप से भारत का प्रमुख राष्ट्रीय गीत है और महान ऐतिहासिक परंपरा है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम से इसका निकट का संबंध रहा है।
24 जनवरी 1950 के लोकसभा के अधिवेशन में बदमातरम गीत को प्रार्थना गीत के रूप में स्वीकार किया गया। राष्ट्रगान के रूप में किसे स्वीकार किया जाए इस संबंध में अनंतस्वामी आयंगार और उनके कुछ साथी ‘जन गण मन’ के पक्ष में थे और पूर्णिमा चनर्जी आदि अनेक लोग वंदेमातरम को राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। बहुमत ने ‘जन गण मन’ के पक्ष में अपनी राय प्रकट की। सन् 1961 में पुनः एक बार अंदेमातरम के विषय में एक विवाद उठा था, तब डॉ. संपूर्णा नंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी ने अपनी राय दी कि विद्यार्थियों को बिदेमातरम याद होना चाहिए।
आज भी कभी-कभी गीत को लेकर बातावरण में तनाव पैदा हो जाता है। कुछ अति उत्साही व्यक्ति किसी विशिष्ट वर्ग को चेतावनी देते हुए कहने लगते हैं- “इस देश में रहना है तो बिदेमातरम कहना होगा।” इसकी प्रतिक्रिया होती है और उस बर्ग के लोग कहना प्रारंभ कर देते हैं कि हम जोर जबरदस्ती से अंदेमातरम का गायन नहीं करेंगे।
मेरा मानना है कि वात-बात पर किसी भी वर्ग द्वारा किसी दूसरे वर्ग से देश भक्ति का प्रमाण-पत्र मांगना ठीक नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में कुछ चीजें धीरे-धीरे विकसित होती हैं और समरस समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभाती है। इस विरियता भरे देश में पिछले पचपन वर्ष से कुछ चीजें सहज रूप ते विकसित और स्वीकृत हुई हैं।
देश में कुछ भागों में हिंदी का जो विरोध हमें 30-40 वर्ष पहले दिखाई देता था, अपेक्षाकृत अब यह बहुत कम हो गया है। जिन लोगों को यह लगता था कि हिंदी उन पर बलात ठोकी जा रही है, अब ये इस दृष्टि से कुछ सहज होने लगे हैं। कारण स्पष्ट है। केंद्र में कोई भी सरकार आ जाए, वह अच्छी तरह जानती है कि इस दृष्टि से ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए जिससे किसी प्रकार की प्रतिकूल प्रतिक्रिया को बढ़ावा मिले। वंदेमातरम को के संबंध में भी हम इती नीति पर चलकर निरर्थक विवाद को पनपने से रोक सकते हैं।

