ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह आरएसएस के उस अधूरे काम में जी-जान से जुटे हुए हैं, जिसके जरिये वे आजादी के आंदोलन से अलग-थलग रही अपनी हिंदुत्व से जुड़ी बहुसंख्यकवादी वैचारिक धारा को देश के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जबरिया स्वीकृति दिलाना चाहते हैं।
राष्ट्रगीत वंदे मातरम् की डेढ़ सौवीं जयंती पर संसद में हुई चर्चा भाजपा और आरएसएस के इसी उपक्रम की अगली कड़ी है, जिसमें वे, पहले ही 14 अगस्त, 1947 को विभाजन विभीषिका दिवस घोषित कर चुके हैं!
लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी और राज्यसभा में गृहमंत्री शाह ने चर्चा की शुरुआत करते हुए वंदे मातरम पर चर्चा के बहाने कांग्रेस और देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर तीखे हमले किए हैं और उन्हें देश के विभाजन तक के लिए सीधे जिम्मेदार ठहरा दिया।
हालांकि संसद में मल्लिकार्जुन खड़गे, गौरव गोगोई, ए राजा, प्रियंका गांधी से लेकर महुआ मोइत्रा, मनोज झा और संजय सिंह सहित विपक्ष के अनेक नेताओं ने तथ्यपरक ढंग से बंकिमचंद्र चटोपाध्याय के इस महान गीत की राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका और देश के राष्ट्रगीत के रूप में उसकी स्वीकृति तक के इतिहास को तथ्यपरक ढंग से सदन के भीतर रखा, जिसे सारे देश ने देखा।
निस्संदेह, किसी भी देश को अपनी महान परंपरा और अपने संघर्षों को याद रखना ही चाहिए। उन नेताओं को, उन गीतों का स्मरण करना ही चाहिए, जिन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ संघर्षों को प्रेरणा दी और नेतृत्व दिया। देश की आजादी की कीमत युवा और आने वाली पीढ़ी को पता होना ही चाहिए, लेकिन गलत जानकारियां कई पीढ़ियों को बर्बाद कर सकती है, यह भी ध्यान रहे।
आखिर इस देश ने अपनी आजादी की रजत जयंती, स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती मनाई ही है। प्रसंगवश याद किया जा सकता है कि आजादी के पचास वर्ष पूरे होने पर 1997 में किस तरह से संसद के दोनों सदनों से सारी दुनिया को एकजुट संदेश दिया गया था।
लेकिन यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इतिहास को अपनी सुविधा से तोड़ा-मरोड़ा जाए। मुश्किल यह है कि 2014 से देश में इतिहास को आरएसएस की विचारधारा के अनुकूल ढालने की कोशिशें तेज हैं।
वंदे मातरम की ही बात करें, तो इसके शुरुआती दो पैराग्राफ, जिसे राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया है, उनकी रचना बंकिमबाबू ने 1875 में की थी और बाद में उन्होंने अपने उपन्यास आनंद मठ में इसे शामिल करते हुए इसमें कुछ और पैराग्राफ जोड़े थे।
संसद से लेकर सार्वजनिक मंचों तक यह दस्तावेज उपलब्ध है, जिनसे पता चलता है कि वंदे मातरम के शुरुआती दो पैराग्राफ को किस तरह से कांग्रेस कार्यसमिति ने 1937 में कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की सहमति से मंजूरी दी थी। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आदाज जैसे उस वक्त के सारे नेताओं की इस पर सहमति थी। यही नहीं, देश की संविधान सभा ने जन गण मन और वंदे मातरम को भी व्यापक चर्चा के बाद मंजूरी दी थी। वंदे मातरम की तरह ही जन गण मन के शुरुआती बंद ही राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किए गए थे।
हैरानी होती है कि इन तथ्यों को नजरंदाज कर प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री शाह और सत्तापक्ष के अन्य सदस्यों ने अपनी सुविधा से अकेले नेहरू पर निशाना साधे रखा।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने बार-बार वंदे मातरम को अपनी हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा से जोड़ा है, तो उसके पीछे उनकी एक लंबी कार्ययोजना काम कर रही है। पूछा जा सकता है कि क्या कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर की देशभक्ति को भी कठघरे में रखा जा सकता है, क्या, जिन्होंने कहा था कि उनके लिए देशभक्ति से ऊपर मानवता है!
टैगोर राष्ट्रवाद को संकीर्ण अवधारणा मानते थे और उनका नजरिया वैश्विक था। संसद के भीतर विपक्ष की ओर से पूछा गया है कि भाजपा और आरएसएस ने अपने कार्यक्रमों में वंदे मातरम गाना कब शुरू किया और क्या वे इसे अब नियमित तौर पर गाएंगे।
इस चर्चा ने संकीर्ण वैचारिकता की धुंध को और साफ कर दिया है; और यह सचमुच साबित कर दिया है कि देश को आजादी के आंदोलन जैसे जज्बे की आज भी जरूरत है, जिसमें वंदे मातरम प्रेरणा गीत बन सकता है।

