टिकटों का धड़ाधड़ बिकना जारी है, यमुना तीरे बांसेरा पार्क में स्टेज तैयार है, कुर्सियां बिछ चुकी हैं, जहां उर्दू के चाहने वाले शनिवार यानी छह दिसंबर को आयोजित होने वाले मुशायरे में वसीम बरेलवी, जावेद अख़्तर, विजेंद्र सिंह परवाज़, शारिक़ कैफ़ी, अज़्म शकरी और दूसरे जाने-माने शायरों के कलाम का लुत्फ़ लेंगे.
छह दिसंबर को ही तक़रीबन तीन दशक पहले एक हिंदू भीड़ ने 16 वीं सदी की बाबरी मस्जिद को भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं की मौजूदगी में ढहा दिया था.
राम मंदिर आंदोलन के अगुआ लाल कृष्ण आडवाणी ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने की घटना को ‘भयंकर भूल” और “अपने जीवन का सबसे दुखद दिन” बताया था.
कुछ हल्क़ों में छह दिसंबर को रेख़्ता द्वारा आयोजित प्रोग्राम ख़ासतौर पर मुशायरे के आयोजन को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि क्या छह दिसंबर को किसी जश्न का मनाया जाना उचित है? पूछा जा रहा है कि जिस घटना ने हिंदुस्तान के कई इलाक़ों में दंगों और हिंसा को जन्म दिया जिसमें सैकड़ों लोगों की जाने गईं, उस दिन मुशायरा या दूसरे जश्न का मनाना क्या सही है, ख़ासतौर पर उस संस्था – ‘रेख़्ता’ के ज़रिये जो भारतीय उप महाद्वीप की भाषा, साहित्य और संस्कृति की हिफ़ाज़त और तरक्क़ी के लिए काम करने का दावा करती है?
रेख़्ता का कहना है कि फाउंडेशन का जश्ने-रेख़्ता (कार्यक्रम) हमेशा से दिसंबर के महीने में ही आयोजित होता रहा है और छह दिसंबर को मुशायरे और दूसरे कार्यक्रमों का होना महज़ इत्तेफ़ाक़ है.
जश्ने-रेख़्ता का पूरा प्रोग्राम वैसे तीन दिनों का है, जो पांच दिसंबर से शुरु होकर आठ दिसंबर को समाप्त होगा.
संस्था के प्रोग्राम डायरेक्टर सतीश गुप्ता ने कहा, “हम रेख़्ता के कार्यक्रमों को किसी धर्म या जाति से जोड़कर नहीं देखते”, ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इसे ख़ास चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं. हमारे सामने प्रोग्राम के लिए जगह मिलने का भी सवाल होता है वो इसी समय उपलब्ध था.
सतीश गुप्ता का कहना था कि इस मामले को लेकर सरकार का भी किसी तरह का कोई निर्देश नहीं है, और जहां तक तारीख़ों का मसला है तो वो तो किसी भी समय को लेकर उठाया जा सकता है, अब कोई यूक्रेन और फ़लस्तीन में जारी स्थिति और ख़ास तारीख़ों पर किसी आयोजन को लेकर सवाल खड़े कर सकता है.
हालांकि छह दिसंबर के मुशायरे को लेकर जो सवाल हो रहे हैं वो सिर्फ़ मुस्लिम समाज के भीतर से ही नहीं है.
अनिल चमड़िया कहते है कि “सभी प्रतीक इसी तरह धीरे-धीरे बड़े ही सधे तरीक़े से मिटा दिए जाएंगे.”
इतिहास के कम चर्चित पहलुओं और शख्सियतों को लेकर काम करनेवाली डिजिटल वेबसाइट हेरीटेड फाउंडेशन के संस्थापक उमर अशरफ़ कहते हैं कि चलो अगर रेख़्ता ने कार्यक्रम तय भी कर दिया तो क्या शामिल होने वाले साहित्यिक लोग – शायर और अदीब तो कम से कम छह दिसंबर के प्रोग्राम में शामिल होने से मना न कर सकते थे?
मशहूर शायर वसीम बरेलवी ने ये पूछे जाने पर कहा, “ये बात मेरे सामने लाई ही नहीं गई.”
अज़्म शकरी का कहना था कि जो लोग आग को पानी से बुझाने के काम करने की कोशिश कर रहे हैं हम तो उन्हीं के साथ खड़े होंगे.
बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने की घटना को 33 साल हो गए हैं, लेकिन पहले मंदिर आंदोलन के नाम पर, और फिर मस्जिद गिराये जाने के बाद की हिंसा, अदालत का आख़िरी फ़ैसला, मुल्क में इस वक़्त जारी हालात और फिर हिंदूत्व संगठनों और यदा-कदा बीजेपी सरकारों के सूखते ज़ख़्म को कुरेदते रहने की कोशिशों ने बाबरी के घाव को लगातार हरा रखा है.
प्रणव रॉय को दिए गए एक इंटरव्यू में आडवाणी ने दावा किया था कि आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख राजेंद्र सिंह ने मंदिर गिराये जाने की घटना की निंदा की थी और कहा था कि ये आरएसएस के आचार के विरुद्ध है.
मगर फिर आरएसएस से जुड़ी संस्थाओं जैसे विश्व हिंदू परिषद ने 6 दिसंबर, 1992 को शौर्य दिवस के रूप में मनाना शुरु कर दिया. अब इस पर सरकारी मुहर लग रही है, राजस्थान की बीजेपी सरकार के मंत्री ने हाल में स्कूलों को शौर्य दिवस मनाने का हुक्म जारी कर दिया.
हालांकि बाद में आदेश वापिस ले लिया गया मामला ठंडा पड़ ही रहा था कि केंद्रीय रक्षा मंत्री ने बयान दे डाला कि नेहरू सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद बनवाना चाहते थे, और पटेल को उन्हें रोकना पड़ा.
अगर हिंदूत्व संगठन बाबरी गिराये जाने की घटना के दोहने में लगे हैं तो मुस्लिमों में से भी एक वर्ग मामले को हवा देता रहता है.
पिछले कुछ दिनों से पश्चिम बंगाल सरकार की पार्टी त्रिणमूल कांग्रेस के नेता हिमांयू कबीर का बयान चर्चा में है जिसमें उन्होंने कहा है कि छह दिसंबर को मुर्शीदाबाद में बाबरी मस्जिद की नींव रखी जाएगी. इसी गर्म फ़िज़ा के बीच जब रेख़्ता ने अपने मुशायरे को छह दिसंबर को रखा तो वो भी लोगों के बीच चर्चा में आ गई.
ब्रॉडकास्टर और सीनियर पत्रकार परवेज़ आलम कहते हैं कि कुछ लोग आसान टार्गेट खोजते हैं और इस वक़्त उन्हें वो रेख़्ता में दिख रहा है.
उन्होंने कहा कि “न ही वो घटना भूलने वाली है, न ही यहां उस पर जश्न मनाने का सवाल है.”
परवेज़ आलम रेख़्ता से लंबे वक़्त से जुड़े रहे हैं और इस बार के कई कार्यक्रमों में शामिल होने के अलावा पूरे प्रोग्राम के प्रजेंनटेशन का हिस्सा हैं.
वैसे रेख़्ता से विवादों का नाता नया नहीं है – ख़ालिस उर्दू पर ज़ोर देने वाले उस पर उर्दू स्क्रिप्ट (नश्तालिक़) को धीरे-धीरे मिटाने और जिनकी कृतियां उसने अपनी वेबसाइट पर डाली हैं उन्हें इसका कुछ भी माली फ़ायदा न देने का इल्ज़ाम लगाते हैं, तो दूसरी तरफ़ हिंदूत्व विचारधारा से जुड़ी वेबसाइट आप इंडिया उसपर जिहादी साहित्य को बढ़ावा देने को लेकर कार्यक्रम करता रहता है.
- लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पूर्व में बीबीसी में वरिष्ठ पद पर रह चुके हैं।
- इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

